अंग्रेजी शिक्षा के भारतीय संस्कृति पर पड़ते प्रभाव

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पिछली एक शताब्दी में अंगरेजी शिक्षा ने हमें जितना नियंत्रित किया है, उतना बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक चला ब्रिटिश राज भी नहीं कर पाया था। अंगरेजी शिक्षा ने हमें अपनी सभ्यता के मूल मार्ग से भटका दिया है और उसने हमसे अपने पिछले इतिहास को समझने की दृष्टि छीन ली है। हमारे इतिहास की पिछली छह-सात शताब्दियों का काल एक तरह का विपरीत काल था। इस काल में एक आंधी की तरह विदेशी आक्रमण-शक्तियां आईं और हम धीरे-धीरे उनके नियंत्रण में चले गए। इतिहास में सबके साथ ऐसा होता रहता है। फिर अनुकूल समय आता है और आंधी-पानी में घर की जो टूट-फूट हुई है उसे लोग देखते हैं। अपने चिर-परिचित तरीकों से उसे फिर से निर्मित करने का प्रत्यन करते हैं। इस बीच जो नई विधियां और नए विचार आए हैं, उन्हें भी आत्मसात करते हैं। इस सब का उपयोग करते हुए वे अपने जीवन को फिर पटरी पर लाते हैं और अपनी स्वाभाविक समृद्धि के लिए फिर से जुट जाते हैं। लेकिन सन 1947 में जब हम स्वतंत्र हुए, अपने पुनर्निर्माण के बारे में हमने नहीं सोचा। हमारे अंगरेजी शिक्षा में पगे-पुसे नेतृत्व को लगा कि दुनिया बदल गई है। यह एक नई और विचारों व भौतिक स्वरूप में बिल्कुल नई दुनिया है। यह दुनिया उन्हीं यूरोपीय लोगों ने बनाई है जो अब तक लगभग पूरी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाए हुए थे। अब उनका जुआ उतर गया है, इसलिए हम जिस दिशा में वे आगे बढ़े हैं उसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उनके बराबर पहुंच सकते हैं। इस परिकल्पना के बाद उन्हें न अपनी सभ्यता को समझने की आवश्यकता रह गई थी, न यूरोपीय सभ्यता को समझने की। वे तो जिस तरफ यूरोपीय लोग दौड़ रहे थे, उधर दौड़ पड़े और थोड़े ही समय में हांफने लगे।

अंगरेजी शिक्षा का सबसे घातक प्रभाव यह हुआ है कि वह हमें आत्म-विस्मृति की ओर ले गई है। अंगरेजी शिक्षा ने हमारी बुद्धि में यह भ्रामक धारणा डाल दी है कि अब तक का हमारा और पूरी दुनिया का सभ्यतागत अनुभव निरर्थक हो गया है। यूरोपीय लोगों ने पिछली कुछ शताब्दियों में एक ऐसी वैचारिक क्रांति कर दी है कि अब किसी को पीछे मुड़ कर देखने की आवश्यकता नहीं है। यूरोपीय स्वयं अपने अतीत को तिरस्कार से देखने लगे हैं। वह गरीबी, अन्याय और उत्पीडऩ का काल था, यह समृद्धि, न्याय और स्वेच्छा से जीने का काल है। अगर इस काल की कुछ समस्याएं हैं भी तो उन्हें हल करने की प्रौद्योगिकीय विधियां निकाल ली जाएंगी। सब समस्याएं प्रौद्योगिकीय विधि से हल की जा सकती हैं। एक तरह से प्रौद्योगिकी आज की दुनिया का जादू-टोना हो गई है। इस अंधानुकरण में हमें यह देखने की आवश्यकता ही नहीं हुई कि आज की यूरोपीय दुनिया सचमुच क्या कोई नई दुनिया है? क्या वह अपने ही पूर्व-रूप का रूपांतरण नहीं है? क्या एक नई दुनिया के रच गए होने के भ्रम में हम अपना यूरोपीयकरण तो नहीं कर रहे? ये सारे प्रश्न हमारे बौद्धिक जगत के मन में उठने चाहिए थे। उन लोगों के मन में भी, जो यूरोपीय भौतिक जीवन और उसके वैचारिक ढांचे को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं। क्योंकि यह किसी भी बौद्धिक जिज्ञासा की सामान्य अंतरंग प्रक्रिया होती है कि प्रतिप्रश्न किए जाएं। लेकिन जो प्रतिप्रश्न यूरोप में अपनी इस तथाकथित नई सभ्यता के बारे में किए जा रहे थे, उन्हें भी हमने गंभीरता से नहीं लिया। वास्तव में अनुकरणकर्ता प्रश्न करने से सदा डरता रहता है।

यूरोपीय सभ्यता के इस अनुकरण को अंगरेजी भाषा ने हमारे लिए सहज बना दिया। अगर हमारे पढ़े-लिखे लोगों का विमर्श हमारी अपनी भाषाओं में हो रहा होता तो अनुकरण आसान नहीं था। अगर हमारे सार्वजनिक विमर्श की भाषाएं हमारी अपनी भाषाएं होतीं तो वे हमें पग-पग पर अपनी वैचारिक कोटियों का स्मरण करवातीं। तब उन वैचारिक कोटियों के आधार पर अपनी वर्तमान दिशा को जांचना-परखना हमारे लिए आवश्यक हो जाता। अपनी भाषा में विमर्श करने पर आप अधिक समय तक आत्म-विस्मृत नहीं रह सकते। नए विचारों और नई भौतिक परिस्थितियों का जादू कुछ समय तक सब पर रहता है। लेकिन अपनी भाषा हमें अपने वर्तमान का आगा-पीछा देखने-समझने के लिए प्रेरित करती है। इस मीमांसा से ही हम सही दिशा की ओर बढ़ पाते हैं।

अंगरेजी भाषा के व्यवहार ने हमें अपने इतिहास-बोध से, अपनी सभ्यता के बोध से काट दिया। भाषा केवल विचारों की वाहक नहीं होती, वह विचारों की नियामक भी होती है। उसमें हमारा जातीय अनुभव निबद्ध होता है। विभिन्न भाषाओं के समानार्थी दिखने वाले शब्द भी विभिन्न व्यंजनाएं देते हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कई बार भाषा हमारे विचार करने की दिशा भी निर्धारित कर देती है। विचारों पर यह नियंत्रण वह इतनी सहजता से करती है कि अक्सर हमें उसका भान नहीं होता। अंगरेजी भाषा ने पिछली एक शताब्दी में विशाल साहित्य निर्मित कर लिया है। इस साहित्य से स्कूली-विश्वविद्यालयी शिक्षा की विषयवस्तु गढ़ी गई है। इस समूचे तंत्र ने विश्व भर में अपना विस्तार कर लिया है। शिक्षा के इस तंत्र ने यूरोपीय जाति को विश्व भर के बौद्धिक औपनिवेशीकरण का सरल मार्ग उपलब्ध कर दिया है। यह औपनिवेशीकरण कुछ समय पहले तक के राजनीतिक औपनिवेशीकरण से और अभी के व्यापारिक औपनिवेशीकरण से अधिक घातक है। क्योंकि उसने हमारी बुद्धि को आविष्ट कर लिया है। किसी प्रेताविष्ट व्यक्ति की तरह हम आत्म-विस्मृत होकर वही बोलते हैं जो प्रेत हमसे बुलवाना चाहता है। हमारी तर्कबुद्धि भी इस मायाजाल को काट नहीं पाती। क्योंकि हम इस शिक्षातंत्र के भीतर ही तर्क कर रहे होते हैं, उससे पार नहीं देख पाते। हमारी बुद्धि यूरोपीय जाति के बौद्धिक विमर्श से बंधी रहती है और उन्हीं के इशारों पर नाचती रहती है।

हमारे नायकों में से केवल गांधीजी ने इसे सबसे पहले और सबसे अच्छी तरह देखा था। उन्होंने 1915 में भारत आते ही हमारे सार्वजनिक विमर्श का स्वरूप और भाषा दोनों को बदलने का प्रयत्न किया था। अंगरेजी शिक्षा को तो वे हमारी सब समस्याओं की जड़ समझते थे। और उन्हें लगता था कि अंगरेजी पढ़े-लिखे लोग न केवल अपनी सभ्यता के मार्ग से भटक गए हैं, बल्कि वे शेष समाज को भी भटकाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने सबसे पहले कांग्रेस को वकीलों-डॉक्टरों के दायरे से बाहर निकाल कर साधारण भारतीयों तक पहुंचाने का प्रयत्न किया। ‘हिंद स्वराज’ में उन्होंने इस शिक्षित वर्ग पर बहुत निर्मम होकर टिप्पणियां की हैं। उन्होंने युवकों से अंगरेजी शिक्षा संस्थानों का बहिष्कार करने के लिए कहा और राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की नींव डालने का प्रयत्न किया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस की भाषा और दिशा बदल गई।

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