विजयनगर के महान हिन्दू राजाओं की ऋणी है मां भारती

india1दो हिंदू वीर बंधु

जब भारत की स्वतंत्रता को दिन प्रतिदिन विदेशी विषधर डंस रहे थे और मां भारती की दिन प्रतिदिन की बढ़ती पीड़ा को देखकर बार-बार मां भारती के सच्चे सपूत अपना बलिदान दे रहे थे, और धर्म तथा स्वतंत्रता की रक्षार्थ संघर्ष कर रहे थे-तब ऐसे दो हिंदू वीर बंधु भी थे जो समय की रेत पर अपने उत्कृष्ट कार्य को अंकित कर दक्षिण भारत में एक नये राजवंश की नींव रख रहे थे।

विजय नगर का हिंदू राज्य

यह घटना 1336 ई. की है। हरिहर प्रथम और बुक्का राय प्रथम द्वारा रखी गयी नये राज्य की इस नींव पर जिस राजवंश ने अपना भव्य भवन स्थापित किया वह ‘विजय नगर का हिंदू राज्य’ कहलाया। राजधानी का नाम रखा-विजय नगर अर्थात ऐसी राजधानी जो विजय के ही गीत गाती हो, मानो पराजय उसके लिए न होकर किसी और के लिए है। इस राजवंश ने दिल्ली के सुल्तानों के अत्याचारों से दुखी हिन्दू जनता का उस समय अच्छा मार्गदर्शन एवं नेतृत्व किया। दक्षिण में स्थापित हुए इस हिंदू राज्य ने 310 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया। यह अवधि लगभग उतनी ही है जितनी दिल्ली के सल्तनत काल की। जिसने 1206 से 1526 ई. तक 320 वर्ष की अवधि तक शासन किया था। यह दु:खद तथ्य है कि निरंतर तीन सौ वर्ष से अधिक समय तक स्वतंत्रतापूर्वक सत्तासीन रहने के उपरांत भी विजय नगर के हिंदू राजाओं को इतिहास ने सम्मानित नही किया। यद्यपि इन लोगों ने हिंदुत्व की रक्षार्थ महत्वपूर्ण कार्य किये।

एक भी नही था दुर्बल और प्रमादी शासक

निरंतर 310 वर्ष तक किसी ऐसे भू भाग को पूर्णत: सुरक्षित बनाये रखना, जिसे विजयनगर राज्य की भूमि कहा जाता था-सचमुच इस प्रसन्नतादायिनी घटना को देखकर लगता है कि इस राजवंश पर निश्चय ही परमपिता परमात्मा की भी विशेष अनुकंपा थी। अन्यथा इस काल में कोई तो ऐसा राजा या शासक निकल सकता था जो अन्य की अपेक्षा दुर्बल और प्रमादी होता और उसकी दुर्बलता एवं प्रमाद के कारण विजय नगर का अभेद्य दुर्ग शत्रु की पताका के अधीन चला जाता। परंतु देखिए, ईश्वर का अनंत आशीर्वाद कि ऐसा एक भी शासक नही हुआ कम से कम 230 वर्षों तक तो कतई नही।

हरिहर प्रथम तथा बुक्का राय प्रथम

बड़े शुभ मुहूर्त में विजय नगर की विजय की कामना के मंगल गीतों के मध्य 1336 ई. में विजय नगर राज्य की नींव हरिहर प्रथम तथा बुक्का राय प्रथम के द्वारा रखी गयी। इस राज्य पर संगम वंश, सलुव वंश, तुलुव वंश और अरविंदु वंश इन चार वंशों ने शासन किया। इनके शासकों का उल्लेख हमें इस प्रकार मिलता है :-हरिहर राय प्रथम (1336-1356 ई.) बुक्का राय प्रथम (1356-1377 ई.) हरिहर राय द्वितीय (1377-1404 ई.) तिरूपक्ष राय (1404-1405 ई.) बुक्का राय (1405-1406 ई.) देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)  रामचन्द्र राय (1422 ई.) वीर विजय बुक्का राय (1422-1424 ई.)। देवराय द्वितीय (1424-1446 ई.) मल्लिकार्जुन राय (1446-1465 ई.) विरूपक्ष राय द्वितीय (1465-1485 ई.) प्रौढ़ राय (1485 ई.) ये राजा संगम वंश के कहे जाते हैं। इसके पश्चात सलुव वंश का शासन 1485 ई. से प्रारंभ हुआ। इसके तीन शासक हुए, जिनका विवरण इस प्रकार है-सलुव नरहरि देव राय (1485-1491 ई.) थिम्मू भूपाल (1491ई.) नरहरिराय द्वितीय (1491-1505 ई.) सलुव वंश के उपरांत तुलुव वंश के 5 शासकों ने राज्य किया, जिनका विवरण प्रकार है-तुलुव नरस नायक (1491-1503 ई.) वीर नरसिंह राय (1503-1509 ई.) कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.) अच्युत देवराय (1529-1542 ई.) सदाशिव राय (1542-1570 ई.) तुलुव वंश के पश्चात अरविंदु वंश ने शासन किया। अरविंदु वंश के शासकों का विवरण निम्नवत है- आलिय राय राय (1542-1565 ई.) तिरूमल देव राय (1565-1572 ई.) श्रीरंग प्रथम (1572-1586 ई.) वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.) श्रीरंग द्वितीय (1614-1617 ई.) रामदेव अरविंदु (1617-1632 ई.) वेंकट तृतीय (1632-1642 ई.) श्रीरंग तृतीय (1642-1646 ई.)।

राष्ट्रसंत विद्यारण्य स्वामी की महान अनुकंपा

हरिहर और बुक्का दोनों पहले मुसलमान बन गये थे, और धर्मांतरित होकर हिंदुत्व के विरोधी हो गये थे। परंतु उसी समय एक राष्ट्रसंत विद्यारण्य स्वामी हुए जिनके भीतर अपने धर्म और अपनी मातृभूति के प्रति असीम श्रद्घा थी। उन्होंने इन दोनों भाईयों का हृदय परिवर्तन किया। मथुरालाल शर्मा अपनी पुस्तक ‘दिल्ली सल्तनत’ पृष्ठ 116-117 पर हमें बताते हैं कि विद्यारण्य स्वामी के आशीर्वाद एवं पुण्य प्रेरणा से इन दोनों भाईयों का हृदय परिवर्तन हुआ और पुन: हिंदू धर्म स्वीकार कर तुंगभद्रा के उत्तरी तट पर 1336 ई. में विजय नगर साम्राज्य की स्थापना की।

हिन्दू निष्ठा ने रच दिया नया इतिहास

इसी प्रकार यदि हिंदू से मुस्लिम बने कालापहाड़ को कोई विद्यारण्य मिल गया होता तो आज के बांग्ला देश का कहीं अस्तित्व ही नही होता? यदि इतिहास कालापहाड़ का है तो इतिहास हरिहर और बुक्का का भी है। जिनकी एक बार की हिली हुई निष्ठा जब पुन: हिंदू धर्म पर आकर टिकी तो उसके पश्चात उसे कोई डिगा नही सका और वह इतनी अटूट होकर लौटी कि एक राजवंश की ही स्थापना करा गयी साथ ही कितने ही हरिहर और बुक्का रायों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें मुसलमान बनाने से रोक गयी। इस प्रकार इस राजवंश ने अपने काल में हिंदुत्व की जिस निष्ठा से रक्षा और सेवा की उसके दूरगामी परिणाम निकले।

मौहम्मद तुगलक ने किया था धर्म परिवर्तन

बात उस समय की है जब दिल्ली का सुल्तान मोहम्मद तुगलक था। तुगलक ने कम्पिली को दबाये रखने के लिए हरिहर राज्यपाल तथा बुक्का को उपराज्यपाल नियुक्त कर कम्पिली की ओर भेजा। दोनों भाईयों ने सुल्तान के निर्देश का अक्षरश: पालन किया। कम्पिली के मुस्लिम आक्रमण के समय इन दोनों भाईयों को बलात मुस्लिम बना लिया गया था। मुस्लिम बने दोनों भाई जब अपने-अपने दायित्वों का निर्वाह करने के लिए कम्पिली कर्नाटक की ओर गये थे तो बल्लाल तृतीय ने सोमेश्वर नामक वीर हिंदू की सहायता से इन दोनों को पराजित कर दिया। इसके पश्चात इन्हें इधर उधर भटकने के लिए विवश होना पड़ गया था।

राज्य विस्तार की योजना

जब अपने राज्य की स्थापना करने में ये दोनों भाई सफल हो गये तो इन्होंने उसका विस्तार करने की योजना बनाई। मैसूर के होयसल शासकों का पूर्णत: विनाश करके इन्होंने अपने राज्य की सीमायें मैसूर राज्य के अंतिम छोर तक बढ़ा लीं। मदुरै में उस समय तक मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था। वहां के मुस्लिम सुल्तान विजयनगर राज्य के इस अप्रत्याशित उत्थान से सशंकित थे और इसका यथाशीघ्र विनाश कर देना चाहते थे। इसलिए उनका विजयनगर से टकराव होना आवश्यक हो गया था। फलत: लगभग 40 वर्ष तक विजयनगर राज्य इस मुस्लिम राज्य से अपने अस्तित्व का संघर्ष करता रहा। 1377 ई. में मदुरै के मुस्लिम राज्य का पूर्ण सफाया करने का अवसर इस राजवंश को मिला। 40 वर्ष के अनथक प्रयास से मिली यह सफलता बड़े बलिदानों के पश्चात मिली थी, इसलिए इस सफलता का इस राजवंश के इतिहास में ही नही अपितु भारत के इतिहास मं भी विशेष महत्व है। क्योंकि एक हिंदू राज्य के विस्तार का और एक मुस्लिम राज्य के अंत होने का अर्थ है कि उस क्षेत्र की धर्मांतरण से सुरक्षा हो जाना। मदुरै का क्षेत्र विजय नगर में मिलते ही रामेश्वरम् तक इस राजवंश की सीमाओं का विस्तार हो गया था। इसमें आज का तमिलनाडु और केरल भी सम्मिलित थे।

उत्तर भारत का मुस्लिम बहमनी राजवंश

इधर उत्तर भारत में उस समय एक नया मुस्लिम राजवंश (1347 ई.) अस्तित्व में आया जिसे हम इतिहास में बहमनी राजवंश के नाम से जानते हैं। तुंगभद्रा के दोआब में कृष्णा गोदावरी के क्षेत्र में तथा मराठावाड़ा में इस मुस्लिम राजवंश से विजय नगर के हित टकराते थे। बहमनी राज्य का संस्थापक एक अफगान अलाउद्दीन हसन नामक व्यक्ति था। वह एक गंगू नामक ब्राह्मण की सेवा में रहकर ऊपर उठा था इसलिए लोग उसे हसन गंगू भी कहते थे।

बहमनी राज्य को दिया कड़ा दण्ड

विजयनगर के शासक इस बहमनी राज्यवंश से भी टक्कर लेते रहे। 1347 ई. में बुक्का राय ने बहमनी राज्य के तुंगभद्रा दोआब में आक्रमण किया तो उसे कड़ा दण्ड दिया और पूर्णत: विनष्ट कर डाला था। इस पर प्रतिशोध की भावना से बहमनी सुल्तान ने प्रतिज्ञा ली कि वह अब तक एक लाख हिंदुओं का वध नही कर लेगा तब तक शांत नही बैठेगा, और इस अपमान की आग में जलता ही रहेगा। उसने विजय नगर पर हमला किया और तोपों से भारी विनाश मचाया। पर उसकी पकड़ में विजयनगर का राजा नही आ सका। यह युद्घ कई माह तक चला था। हिंदुओं का व्यापक स्तर पर नरसंहार किया गया। अंत में दोनों में संधि हो गयी। संधि में एक शर्त यह भी जोड़ी गयी कि आगे से यदि दोनों पक्षों में युद्घ होता है तो कोई भी पक्ष जनसाधारण को कोई कष्ट नही देगा। यह एक अच्छी शर्त थी और आगे के युद्घों में इस शर्त का प्रभाव भी दिखाई दिया।

श्रीलंका तक भेजी थीं अपनी सेनाएं

अब विजय नगर राज्य ने पूर्वी तट की ओर स्थित रेड्डी तथा वारंगल शासकों के साथ संघर्ष का मार्ग अपनाया। हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) के काल में इस राजवंश ने इस ओर अपना प्रसार किया। विजय नगर और बहमनी राज्य का शक्ति संतुलन कुछ ऐसा था कि इनकी स्थिति न्यूनाधिक अपरिवर्तित रही। युद्घ का पलड़ा कभी विजयनगर की ओर तो कभी बहमनी राज्य की ओर झुक जाता था। परंतु बहमनी साम्राज्य से बेलगाम और गोवा छीनकर विजयनगर ने श्रीलंका को भी अपने आधीन करने के लिए वहां अपनी सेना भेजी।

इतालवी यात्री निकोलो कोती का वर्णन

1420 ई. में इतालवी यात्री निकोलो कोती विजयनगर आया था। उसने विजयनगर का बड़ा सजीव चित्रण किया है। वह कहता था-‘‘नगर का घेरा साठ मील है, उसकी दीवारें पहाड़ों तक चली गयी हैं, और इन पहाड़ों की तराई में पहुंचकर उन्होंने घाटियों के गिर्द घेरा बना दिया है। इस नगर में शस्त्र धारण करने योग्य नब्बे हजार लोगों के होने का अनुमान है। उनका राजा भारत के दूसरे सभी राजाओं से अधिक शक्तिशाली है।

फिरिश्ता का भी कहना है-‘‘बहमनी घराने के शाहजादों ने केवल अपनी वीरता के बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये रखी, क्योंकि शक्ति, संपत्ति और देश के विस्तार में बीजा नगर (विजय नगर) के राय उनसे बहुत आगे हैं।’’

एक अन्य इतिहासकार का मत है कि-‘‘दक्षिण भारत के नरेश इस्लाम के प्रवाह के सम्मुख झुक न सके। मुसलमान उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजय पताका फहराने में असमर्थ रहे। इस्लाम के प्रभुत्व को मिटाकर विजय नगर के सम्राटों ने पुन: हिंदू धर्म को जाग्रत किया। यही कारण है कि दक्षिणापथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया गया है। दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजय नगर उसकी गोद में पला।’’

किये थे जनहित के कार्य

इस प्रकार विभिन्न इतिहासकारों ने विजय नगर राज्य की स्पष्ट शब्दों में प्रशंसा की है। उनकी प्रशंसा का एक आधार ये भी है कि विजयनगर के सभी शासकों ने जनहित के कार्य भी किये। जिनसे जनता में सुख शांति और समृद्घि का वास रहा। जैसे इस वंश के प्रतापी शासक देवराय प्रथम ने तुंगभद्रा पर एक बांध का निर्माण कराया। जिससे खेती के लिए नहरें निकाली गयीं। इससे उसके साम्राज्य की आय में अप्रत्याशित वृद्घि हुई। हरिद्र नदी पर भी उसने एक बांध बनवाया।

किया मुस्लिमों का भी सम्मान

इन कार्यों से लोगों का हित हुआ और उन्हें लगा कि राज्य उनके कल्याण के लिए है। हिंदू शासक स्वभावत: सर्वसंप्रदाय समभाव के समर्थक होते हैं। इसलिए इन शासकों के राज्य में भी इसी नीति का अनुकरण किया गया। मुसलमानों को विजय नगर की सेना तक में भी सम्मानपूर्ण पद दिये गये।

सेना को बनाया आधुनिक

सैन्य शक्ति के क्षेत्र में भी विजय नगर को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयास किया गया। सेना को आधुनिक अस्त्रशास्त्रों से सुसज्जित करने और सैनिकों को घुड़सवारी तीरंदाजी आदि का प्रशिक्षण दिलाने का उचित प्रबंध किया।

‘‘घुड़सवार दस्ते तथा स्थायी सेन के निर्माण ने विजय नगर राज्य को दक्षिण में पहले के किसी भी हिंदू राज्य की अपेक्षा अधिक केन्द्रीयकृत बना दिया, भले ही साम्राज्य के संसाधनों पर इसके कारण भारी दबाब पड़ा हो। कारण कि अधिकांशत: अच्छे घोड़ों का आयात किया जाता था और इस व्यापार को नियंत्रित करने वाले अरब उनसे भारी राशि प्राप्त करते थे।’’ फारस का यात्री  अब्दुर्रज्जाक जब भारत आया तो उसने देश के अन्य स्थानों के साथ -साथ विजय नगर का भी भ्रमण किया था। वह अपने यात्रा संस्मरणों में लिखता है-‘‘इस राजा (तत्कालीन शासक देवराय द्वितीय) के राज्य में 300 बंदरगाह हैं, जिनमें से हर एक कालीकट के बराबर है और उसका प्रादेशिक विस्तार इतना अधिक है कि थल मार्ग से उसकी यात्रा पूरी करने में तीन महीने लग जाते हैं। सभी यात्रियों का कहना है कि इस प्रदेश की घनी आबादी थी, तथा यहां अनेकों नगर और गांव थे।

देश के अधिकांश भाग अच्छी खेती वाले और उपजाऊ हैं, सैनिकों की संख्या ग्यारह लाख है।’’

अब्दुर्रज्जाक के इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि विजय नगर के शासक जनहित को कितनी प्राथमिकता देते थे और उनके साम्राय में व्यापार आदि की कितनी उत्तम स्थिति थी। बंदरशाहों का निर्माण और उनकी इतनी बड़ी संख्या बताती है कि राज्य की कृषिक स्थिति भी उत्तम थी। उत्पादन उत्तम होने से ही बंदरगाहों की आवश्यकता होती है।

स्थापत्य कला और नगर निर्माण

स्थापत्य कला और नगर निर्माण के क्षेत्र में भी विजयनगर के शासकों ने उत्तम कार्य किया था। इस काल में अनेकों मंदिरों का निर्माण किया गया। इन स्मारकों में सबसे अधिक प्रसिद्घ हम्पी के स्मारक हैं। मंदिर निर्माण शैली इस प्रकार की थी कि उसे आजकल के इतिहासकार ‘विजयनगरीय स्थापत्य कला’ के नाम से एक अलग नाम और एक अलग पहचान दे चुके हैं। इस प्रकार की स्थापत्य कला में सर्व संप्रदाय समभाव की झलक स्पष्ट दिखती है। अब्दुर्रज्जाक ने विजय नगर को उस समय के विश्व के सबसे सुंदर नगरों में से एक माना है। वह लिखता है-‘‘इस विजय नगर को इस ढंग से बसाया गया है कि सात परकोटे और उतनी ही दीवारें एक दूसरे को घेरे हुए हैं। सातवां किला जिसे दूसरों के केन्द्र में रखा गया है, हेरात नगर के बाजार के दस गुने क्षेत्रफल में फैला हुआ है। नगर की ओर से आरंभ करने पर चार बाजार आते थे, जो बहुत लंबे और चौड़े थे। जैसी कि भारत की प्राचीन परंपरा थी, एक जाति के या एक वृत्ति के लोग नगर के एक विशेष भाग में रहते थे। लगता है मुसलमान उनके लिए सुलभ कराये गये अन्य मुहल्लों में रहते थे, बाजारों में तथा राजा के महल में भी तराशकर पालिश किये गये, चिकने पत्थरों से बने

अनेक तालाब और नहरें दिखाई देती हैं।’’

नगरीय व्यवस्था को लागू किया

इस प्रकार के नगर वर्णन को देखकर लगता है कि विजय नगर के शासकों ने सुनियोजित और सुव्यवस्थित विकास की योजनाओं से गंूथी एक नगरीय व्यवस्था को लागू किया। जिससे स्थापत्य कला, निर्माण कला और व्यक्तियों के जीवन स्तर से जुड़ी कलाओं के विकास में सहायता मिली। ऐसी योजनाओं और बौद्घिक क्षमताओं को देखकर ही किसी अन्य इतिहासकार को लिखना पड़ा  कि ‘विजयनगर रोम से भी बड़ा था।’

इस नगरी का विकास वैदिक युग के नगरों की भांति किया गया था। यह नगर वैसा ही था जैसा कि हम वैदिक ऋषियों को या तत्कालीन राजाओं को अयोध्या (अवध्य नगरी) को बसाते समय उसका स्वरूप देखते हैं। जिसे वेद के उस मंत्र के आधार पर बसाया गया था जिसमें ऋषि मानव शरीर को एक ‘अवध्य’ नगरी मानकर उसके आठ चक्र और नौ द्वारों की कल्पना करता है, कालांतर में इस ‘अवध्य नगरी’ को अवधपुरी के रूप में सरयू के तट पर साकार रूप दिया जाता है। जिसमें आठ चक्र और नौ द्वारों की स्थापना की गयी थी। इस आर्यावर्त देश में नगर निर्माण और स्थापत्य कला कितनी प्राचीन है-इसे अध्योध्या आदि नगरों को देखकर समझा जा सकता है।

बस, उसी पुरातन को एक सदपरंपरा के रूप में अधुनातन के साथ जोडऩे का स्तुत्य कार्य विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों और शासकों ने किया। जिस पर विदेशी आज तक आश्चर्य व्यक्त करते हैं।

किया राजनीति का हिंदूकरण

हमें लगता है कि राजनीति का हिंदूकरण करने की जिस बात को वीर सावरकर ने कालांतर में कहकर इस देश के लिए उसे आवश्यक माना, उसे विजयनगर के शासकों ने उस समय आरंभ कर दिया था, जब सारा देश मुस्लिम अत्याचारों की भट्टी में झुलस रहा था और उससे मुक्त होने के लिए पूर्णत: संघर्ष मयी जीवन व्यतीत कर रहा था। यह एक प्रयोग था और इसकी उस समय नितांत आवश्यकता भी थी, और यह सौभाग्य की बात है कि हमारे विजय नगर के हिंदू शासक अपने इस प्रयोग में सफल भी रहे।

पुर्तगाली और राजा कृष्णदेव राय

कृष्णदेव राय के शासन काल में हमारे देश में पुर्तगाली आने आरंभ हुए। जिनसे राजा कृष्ण देव राय ने व्यापारिक संबंध स्थापित किये। पुर्तगालियों के साथ की गयी व्यापारिक संधि का परिणाम ये निकला कि विजय नगर और भी अधिक श्री संपन्न हो गया। इसका एक लाभ यह भी हुआ कि हमारे देश के लोग दूसरे देशों के संपर्क में (विशेषत: समुद्री मार्ग से) आये और किन्हीं कारणों से समुद्री विदेश यात्राएं जो अशुभ मानी जाने लगी थीं वे पुन: प्रारंभ हुईं। लोगों को एक दूसरे को समझने का अवसर मिला और कूप मंडूकता की स्थिति में सुधार हुआ। हिंदुओं का सैनिकीकरण

जहां तक हिंदुओं के सैनिकीकरण की बात थी तो किसी साम्राज्य के पास ग्यारह लाख की सेना उस समय होना मानो प्रत्येक नागरिक को ही सैन्य शिक्षा दिला देना था। यह भी विजयनगर साम्राज्य के राजाओं की दूरदृष्टिता का ही प्रमाण था। जब शत्रु कभी भी आप की स्वतंत्रता को हड़प करने के लिए हर क्षण तत्पर हो तो उस समय आपको तनिक सी भी असावधानी का प्रदर्शन नही करना चाहिए। कई बार ऐसा हुआ है कि हमारी वीरता नही हारी, अपितु  हमारा प्रमाद हारा, हमारी असावधानी हारी। हिंदू राजा या राव जमींदार कई बार उसी समय सेना तैयार करते थे, जब शत्रु द्वार पर आ खड़ा होता था। इससे प्रशिक्षण हीन सैनिक पर्याप्त वीरता का प्रदर्शन करने के उपरांत भी परास्त हो जाते थे। परंतु विजय नगर के राजाओं ने ऐसा नही किया उन्होंने सैन्य बल के लिए बुद्घिबल से कार्य किया और अपने पास लाखों की स्थायी सेना रखी।

मुस्लिम सल्तनतें भय खाती रहीं

विजयनगर की इस दूरदृष्टिता के परिणाम स्वरूप उनसे मुस्लिम सल्तनतें भय खाती रहीं और एक समानांतर दूरी बनाकर चलने में भी उन्होंने अपना हित समझा। जितने भर भी संघर्ष हुए उन सबमें सेना के स्थायी रहने के इन राजाओं के निर्णय का स्पष्ट भाव दिखाई दिया। मुस्लिम सेनापतियों ने की गद्दारी

जब इस वंश ने अपनी सैन्य नीति में परिवर्तन किया या उस ओर प्रमाद प्रदर्शन किया तो उस समय (1565 ई.) तालिकोट के युद्घ में इन्हें भी पराजय का सामना करना पड़ा।

अति विश्वास में रामराय ने अपनी सेना का नेतृत्व अपने दो मुस्लिम सेनापतियों को दे रखा था, जिन्हेांने गद्दारी की ओर युद्घ में निजामशाह व कुतुबशाह की सेना के साथ अपने 70700 सैनिक मिला दिये। जिससे हिंदू सेना हार गयी। निजामशाह ने रामराय को गिरफ्तार कर उसका सर काट दिया।

मुसलमानी सेना ने भव्य विजय नगर को पूर्णत: नष्ट कर डाला था, जिसके कारण दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति को भी भारी क्षति हुई थी। उस समय यहां अरविंदु वंश के शासक अलिमराम राय का शासन था।

साहित्य का भी हुआ विकास

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य और संस्कृति का भी अन्योन्याश्रित संबंध है।

हरिहर द्वितीय के काल में सायण तथा माधव ने वेदों और धर्मशास्त्रों पर निबंध रचना की थी। जिससे जनसाधारण को अपने प्राचीन सनातन वैदिक धर्म को मानने-जानने और समझने का स्वर्णिम अवसर मिला और भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार को गति मिली। 1336 ई.में जब हरिहर व बुक्का ने विजयनगर राज्य की स्थापना की थी तो उस समय भी वैदिक विधि-विधान के अनुसार ही समस्त कार्य संपन्न कराये गये थे। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव संप्रदाय के प्रचारकों ने अपने प्रचार-प्रसार की भाषा कन्नड़ को बनाया और इस भाषा में उत्कृष्ट साहित्य की रचना की। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों का अनुवाद भी कन्नड़  में किया गया। विजयनगर के अधिकांश शासकों ने वैदिक साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए कवियों और लेखकों को सम्मानित भी किया और उन्हें अपने राज्य दरबार में आश्रय भी दिया। इस काल में यहां संस्कृति की वर्णनातीत उन्नति हुई।

विजयनगर राज्य का लोकतांत्रिक स्वरूप

इस प्रकार हम देखते हैं कि विजयनगर राज्य में प्रजाहित के कार्यों पर शासकों ने बल दिया। हिंदुत्व को सुरक्षा मिली, आर्यत्व को बल मिला और यवन धर्म को अपना अस्तित्व बचाने का अवसर तो मिला परंतु अनावश्यक भारतीयों के धर्मांतरण का अवसर उन्हें नही मिला। लोकतांत्रिक समाज का इससे उत्तम स्वरूप कोई नही हो सकता। विजयनगर के शासकों ने मुस्लिम शासकों की धारणा के अनुसार समाज को हिंदू मुस्लिम में विभाजित करके नही देखा ना ही भूमि को ‘मुस्लिम भूमि’ और ‘हिंदू भूमि’ में विभाजित किया। इन शासकों के लिए हिंदू अपना धर्म था और भारतीय होने पर उन्हें गर्व था। वह जानते थे कि-‘‘भारत हमारी पितृभूमि और पुण्यभूमि है, और हमने इसे अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि इसलिए माना है, क्योंकि यह हमारे इतिहास से संबंधित है और यह हमारे पूर्वजों की गृहस्थली रही है, जहां हमने अपनी जननियों का सर्वप्रथम स्तन पान किया है। जहां हमें हमारे पिताओं ने अपनी बांहों में झुलाया है और शताब्दियों से यह क्रम चलता आ रहा है।’’

(संदर्भ: धनंजय कीर लिखित ‘सावरकर एण्ड हिज टाइम्स’ पृष्ठ 228-229) राष्ट्रबोध और इतिहास बोध से भरे विजयनगर राजवंश और उसके राजाओं की यह मातृभूमि ऋणी है, जिन्होंने अपनी सेवाओं और बलिदानों से उस समय मां भारती की रक्षा की थी। यह भी ध्यातव्य है कि जब विजय नगर का पतन हो रहा था तभी दक्षिण में शिवाजी का उदय हो रहा था। कहने का अभिप्राय है कि विजय नगर ने जहां तक हिंदुत्व की सेवा की वहीं से उसके दूसरे सेवक और प्रहरी का उत्थान आरंभ हो गया। दक्षिण भारत में हिंदुत्व के सुरक्षित रहने का कारण यही है कि वहां  पहले ‘विजयनगर’ मिला तो उसके पश्चात ‘शिवा’ मिल गया।

क्रमश:

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