ऐसा जीवन जी चलो, खुश होवें भगवन्त
बुद्घि से ही उपजता
जीवन में सदा ज्ञान।
गर बुद्घि में अहं हो,
तो ज्ञान बनै अज्ञान ।। 948।।
व्याख्या :-
संसार में आज जितना भी बहुमुखी और बहुआयामी विकास दृष्टि गोचर हो रहा है, इसके मूल में मनुष्य की बुद्घि है। यह बुद्घि मनुष्य को परमपिता परमात्मा का अनुपम उपहार है। ज्ञान सर्वदा बुद्घि में ही उपजता है किंतु जब बुद्घि में अहंकार उपजता है तो ज्ञान भी शनै:शनै: अज्ञान में बदल जाता है और विनाश का कारण बनता है। जैसा कि महाभारत में भारत का ज्ञान-विज्ञान अपनी चरम सीमा पर था किंतु दुर्योधन की बुद्घि का अहंकार महाविनाश का कारण बना। रामायण में जरा देखिए-रावण वेद शास्त्रों का प्रकाण्ड पंडित था तथा संस्कृत का उच्चकोटि का कवि भी था किंतु जब उसकी बुद्घि में अहंकार का शूल उपजा तो वही उसके विनाश का कारण बना। इसलिए बुद्घि में उपजे पवित्र ज्ञान पर कभी भी अहंकार की काली छाया मत पडऩे दीजिए। प्रभुता पाकर विनम्र रहिए। संस्कृत के कवि ने ठीक ही कहा है-”विद्या विनयै शोभते।” अर्थात विद्या (ज्ञान) की शोभा विनम्रता से होती है। हमेशा इतना ध्यान रखो, ”हर अहंकार के पीछे आंसू का दरिया होता है।”
आम जन संसार में,
रहें चालाकी में चूर।
देव पुरूष संसार में,
सद्भावों से भरपूर ।। 949।।
व्याख्या :-
कैसी विडंबना है नरक के मार्ग को अधिकतर लोग चुनते हैं जबकि स्वर्ग के मार्ग को मुठ्ठी भर लोग चुनते हैं। आम आदमी प्राय: झूठ, फरेब, छल, कपट, बेईमानी तरह-तरह के जघन्य अपराधों के लिए षडयंत्र रचता है, विभिन्न प्रकार की चालाकी करके दम्भ में जीता है। यह नरक का रास्ता नही तो और क्या है? जबकि देवता प्रवृत्ति के व्यक्ति ‘सर्वजन सुखाय और सर्वजन हिताय’ में जीवन व्यतीत करते हैं। उनका हृदय चालाकियों से नही अपितु सद्भावनों से ओत-प्रोत होता है। ऐसे सत्पुरूष अपने सत्कर्मों से अपना स्थान स्वर्ग में सुनिश्चित करते हैं और प्रभु की कृपा के पात्र होते हैं।
ऐसा जीवन जी चलो,
खुश होवें भगवन्त।
आनंद ही आनंद मिले,
आदि मध्य और अंत ।। 950।।
व्याख्या :-
हे मनुष्य! इस संसार में ऐसा जीवन जी कर चल अर्थात ऐसे सत्कर्म (पुण्य) कर जिन्हें देखकर प्रभु प्रसन्न हो जायें। यदि तूने अपना कर्माशय सुधार लिया तो तू विश्वास रख, तेरे जीवन के तीनों कालों (आदि, मध्य और अंत) में आनंद ही आनंद की वर्षा होगी।
लोक का साथी अर्थ है,
परमार्थ परलोक।
अर्थ लगा परमार्थ में,
व्यसनों पै लगा रोक ।। 951।।
व्याख्या :-
संसार की धन दौलत आज है कल नही, इसके अतिरिक्त मनुष्य को मिला हुआ धन ज्यादा से ज्यादा इस संसार में जीवनपर्यन्त साथ निभा सकता है, जबकि परमार्थ का धन इस लोक का ही नही, अपितु परलोक का भी साथी बनता है। इसलिए विवेकशील व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने धन को परमार्थ में लगाये, व्यसनों में नही।
क्रमश: