ग्रामीण भारत : बड़ी चुनौती
1932 के बाद देश में पहली बार सामाजिक, आर्थिक और जातिगत आधार पर जनगणना संपन्न हुई है। जिससे प्राप्त आंकड़ों ने हमारे ग्रामीण विकास की सारी कलई खोलकर रख दी है। जो तस्वीर उभर कर सामने आयी है, उससे पता चलता है कि देश में गरीबी और फटेहाली आजादी से पूर्व की स्थिति से भी बदतर रूप मेें है। हमने सडक़ों के विस्तार, रेलवे और हवाई जहाजों के निर्माण करने या देश की शहरी आबादी को तेजी से पश्चिमी जीवन प्रणाली में ढालकर संतोष कर लिया कि संभवत: विकास इसी का नाम है। जबकि भारत का ग्रामीण आंचल, जिसमें लगभग 18 करोड़ परिवार रहते हैं आज भी विकास की बाट जोह रहे हैं।
भारत और इंडिया के बीच की बढ़ती खाई को दर्शाने वाली यह रिपोर्ट बताती है कि कांग्रेस सहित किसी भी पार्टी ने देश को कभी उसकी वास्तविकता से परिचित नही कराया। देश में लगभग 24.39 करोड़ कुल परिवार हैं जिनमें से 18 करोड़ के लगभग परिवार गांवों में रहते हैं। इन ग्रामीण परिवारों में 5.37 करोड़ परिवारों को भूमिहीन के रूप में चिन्हित किया गया है।
ग्रामीण परिवारों के विषय में स्पष्ट किया गया है कि 23.52 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के 25 वर्ष से अधिक आयु के लोग आज भी अशिक्षित हैं। इससे स्पष्ट है कि लगभग चौथाई युवा पीढ़ी ऐसी है जो पढ़ लिखकर ‘बड़ा आदमी’ बनने या ‘बड़ा काम’ करने का सपना तक नही ले सकती। सामाजिक न्याय के नाम पर शिक्षा पर सबका अधिकार बताने वाले हमारे नेता पिछले 68 वर्ष से देश का मूर्ख बना रहे थे, क्योंकि आंकड़े तो बता रहे हैं कि आजादी के 68 वर्ष बीत जाने के पश्चात भी देश के युवा को सामाजिक न्याय नही मिला है।
इस सामाजिक न्याय की प्राप्ति से किसी जाति विशेष के लोग ही वंचित रहे हों, यह बात नही है, अपितु इससे वंचित रहने वाले सभी वर्गों के लोग हैं और सभी जाति बिरादरियों के युवा हैं। शहर का युवा इन वंचित ग्रामीण युवाओं से घृणा करता है। वह इन्हें साथ लगाने या साथ बैठाने को भी तैयार नही है। अंग्रेजी की ‘किटपिट’ ने ग्रामीण और शहरी भारत के बीच की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। फलस्वरूप देश में आर्थिक और राजनीतिक न्याय को प्राप्त करने से भी देश के ग्रामीण आंचल का युवा वंचित रह गया है, या रहता जा रहा है।
शहरों में और विशेषत: किन्हीं पॉश कालोनियों में रहने वाले लोग अपने से छोटों के प्रति तनिक भी लगाव नही दिखाते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी सोसाइटी में किराये पर रहता है तो उसे लोग अपने समारोहों में नही बुलाते हैं, इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति 2000 वर्ग गज के मकान में रहता है तो वह 1000 वर्ग गज में मकान बनाकर रहने वाले व्यक्ति को अपने साथ लगाने या अपने पास बैठाने या अपने किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करने में शर्म महसूस करता है। मानव की मरती संवेदनहीनता को यह समाज आधुनिकता या प्रगतिशील सोच कहकर महिमांडित करता है। जबकि यह सोच उस शिक्षा नीति की देन है जिसमें ग्रामीण भारत और शहरी विकास के बीच की खाई को चौड़ा करने की पूरी योजना है।
हमारे किसानों के विकास की बाबत सरकारों ने कुछ नही सोचा और जो सोचा गया वह विपरीत दिशा में सोचा गया। परिणाम ये आया है कि 10.69 करोड़ परिवार ऐसे हैं जो ग्रामीण आंचलों में रहते हैं और जिनको ‘वंचित परिवार’ की श्रेणी में रखा गया है। 13.25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के लोग ऐसे हैं जो आज भी एक कमरे में कच्चे मकान में या झोंपड़ी में जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त हैं। इनसे अलग ऐसे परिवार भी हैं कि जिनके पास कोई घर नही है। उनका आंकड़ा 5.37 प्रतिशत बताया गया है। जो लोग झोंपडिय़ों में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, या झोंपडिय़ों से भी वंचित हैं, उनकी अपनी कोई ‘यूनियन’ नही होती, अपना कोई संगठन नही होता और देश का ‘गंूगा बहरा’ लोकतंत्र उसी की बात सुनने का अभ्यासी है जिसकी कोई न कोई ‘यूनियन’ होती है या अपना कोई संगठन होता है।
देश के ग्रामीण भारत में आज भी 45 प्रतिशत कच्चे मकानों की भागीदारी है। 78 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिसका जीवन यापन 5000 रूपये से कम की आय से होता है। देश ने यह विकास किया है-पिछले 68 वर्ष में ‘राजपथ’ पर हम चाहे जितने गणतंत्र मना लें और चाहे जितने ‘योग दिवस’ मना लें, हमारा राजपथ तब तक ओजहीन और तेजहीन ही रहेगा जब तक कि देश का ‘ग्राम्यपथ’ मुरझाया पड़ा रहेगा। ग्राम्य पथ की चमक से ही राजपथ रोशन होते हैं, कभी भी ग्राम्य पथ को उजाडक़र राजपथ अपना भला नही कर सकता। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में 8 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं तो जो 10 हजार से अधिक की अपनी मासिक आय रखते हैं। इसका अभिप्राय है कि 92 प्रतिशत भारत आज भी अपनी रोटी के लिए लड़ रहा है। कैसे बनेगा विश्वगुरू भारत? मोदी जी चुनौती कड़ी है। भागीरथ प्रयास की आवश्यकता है।