कैसे और क्यों बनाई गयी तमिल संस्कृति संस्कृत विरोधी:
डॉ. नागास्वामी से समझिये
दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘ तिरुकुरल ’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी-ग्रन्थ है , जैसा उतर भारत में रामायण , महाभारत अथवा गीता । इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरूवल्लुवर ने की है । 19 वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ ‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है । उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया । उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उननें उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें । इस दावे की पुष्टि के लिए उनने उस अनुवादक द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेण्ट टामस ने ईस्वी सन 52 में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया , तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी । हालाकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डण भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी संस्थायें इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टामस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ कर अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं ।
1969 में देइवनयगम ने एक शोध-पुस्तक प्रकाशित की- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन ?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा है कि सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था । अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई- अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । इस प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है और उसके एक मंत्री ने उसका विमोचन किया ।
इस बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म को ‘ईसाइयत के निकट , किन्तु सनातन धर्म से पृथक’ प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि “सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टामस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई शिक्षाओं से ही दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया” । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है ।
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