बिहार के चुनाव की आहट
देवेन्द्र सिंह आर्य
ज्यों-ज्यों बिहार के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, त्यों-त्यों नेताओं को अपनी औकात की जानकारी होती जा रही है। कभी नाज नखरों से मोदी की छाया से भी परहेज कर एनडीए छोड़ गये, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस समय अपनी नैया मझधार में फंसती दीख रही है। अब उन्होंने पराजित मानसिकता के साथ कहा है कि विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख वोट के लिए भाजपा पिछड़ा कार्ड खेल रही है। एक ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर भाजपा को जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने से एतराज है। इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया जाना बहुत बड़े तबके का हक मारने जैसा है। जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने से उन्हें ही इनकार होगा जिनके मन में खोट है।
बिहार के मुख्यमंत्री का आरोप है कि भाजपा का रवैया धोखाधड़ी वाला है। अलमीरा में बंद कर रखने के लिए यह रिपोर्ट तैयार नहीं हुई है। यह भाजपा के दोहरे चरित्र को प्रदर्शित करती है। क्या तर्क है इसे रोकने का? दरअसल भाजपा की घबड़ाहट इस बात को लेकर है कि अगर आंकड़े आ जाएंगे तो यह सवाल उठेगा कि बड़ी संख्या में जिनकी आबादी है, उनके लिए वह क्या कर रहे हैं?
वास्तव में नीतीश जो कुछ भी कह रहे हैं वह उनकी अपनी बौखलाहट को भी स्पष्टï करती है, नीतीश ने राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के साथ गठबंधन कर लिया और कांग्रेस को अपनी चेरी बना लिया, पर सत्ता फिर भी उन्हें अपने हाथ से निकलती दिखाई दे रही है। उन्हें दुख सत्ता हाथ से जाने का नही है, अपितु वह इस दुख से दुखी हैं कि एनडीए से नाता तोडऩे का दंड उन्हें उनकी पार्टी भी दे सकती है, विशेषत: तब जबकि उनकी अपनी पार्टी के बड़े नेता शरद यादव उस समय नीतीश से सहमत नही थे, पर अब तो ‘‘चिडिय़ा चुग गयीं खेत’’ पछताने से क्या होता है?