अब जाकर यह तथ्य सामने आया है कि 1921 में हुए उस भीषण नरसंहार को करने वाले मुसलमानों को किस प्रकार कांग्रेस की सरकारें स्वतंत्रता सेनानी मानकर पेंशन आदि की सुविधाएं प्रदान करती रहीं। अब 2015 में आकर भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद’ ( ICHR) को इसके एक सदस्य द्वारा सौपीं गई रिपोर्ट में ‘मालाबार विद्रोह’ (मोपला विद्रोह) के नेताओं के नाम ‘शहीदों की सूची’ से हटाने की संस्तुति की गई।
आईसीएचआर की इस रिपोर्ट में अली मुसलीयर, वरियामकुननाथ कुंजाहम्मद हाजी सहित 387 मोपला विद्रोहियों (जिसमें लगभग 10 हिंदू भी सम्मिलित रहे थे ) तथा ‘वैगन त्रासदी’ में शहीद नेताओं के नाम ‘शहीदों की सूची’ से हटाने की मांग की गई थी।
केन्द्र की मोदी सरकार ने आईसीएचआर की इस समिति की संस्तुतियों पर इन फर्जी स्वतंत्रता सेनानियों के नामों को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से बाहर कर जहां इतिहास के साथ न्याय किया है, वही स्वतंत्रता सेनानियों के साथ भी न्याय किया है। इस घटना से देशवासियों के समक्ष इतिहास के साथ कांग्रेस द्वारा की गई छेड़छाड़ का भंडाफोड़ भी हो गया है। वास्तव में कांग्रेस ऐसा राष्ट्रघाती कार्य अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के ‘एजेंडा’ पर काम करते हुए करती रही । उसने मुस्लिमों को अपना ‘वोट बैंक’ बनाने के लिए देश के हितों और विशेष रूप से बहुसंख्यक वर्ग के सम्मान का सौदा करने में भी किसी प्रकार की हिचक नहीं दिखायी।
यदि कांग्रेस उस समय इतिहास को सच बोलने देती और यह बताती कि देश को तोड़ने वाली मानसिकता के लोग किस – किस प्रकार देश के बहुसंख्यक वर्ग के साथ अत्याचार करते रहे तो आजाद भारत में होने वाली ऐसी अनेकों घटनाओं से मुक्ति मिल सकती थी या कहिए कि ऐसी घटनाएं को होने से रोका जा सकता था जो उसी मानसिकता के वशीभूत होकर बाद में की गईं। आज जब आईसीएचआर की रिपोर्ट के आधार पर 387 हिंदू हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी की दी गई सुविधाओं को वापस लिया गया है तो कांग्रेस की राजनीतिक साथी रही मुस्लिम लीग ने इसका विरोध करना आरंभ कर दिया है।
उस समय की घटनाओं के विषय में इतिहासकारों का मानना है कि 25,000 से अधिक हिंदुओं को उस समय बड़ी निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिया गया था । हजारों महिलाओं का शीलभंग हुआ था। ऐसी भी अनेकों घटनाएं हुई थीं जब गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़ दिए गए थे। ऐसी माताओं की चीत्कार और उनके गर्भ में पल रहे बच्चों को देखकर भी जल्लादों को तनिक भी दया नहीं आई थी। उन पर उस समय केवल एक ही भूत सवार था और वह था जिहाद का।
अपने इसी उन्माद के वशीभूत होकर उन उन्मादियों ने हिंदुओं के सैकड़ों मंदिरों को तोड़ दिया था। मानव का दानवीय स्वरूप मजहब के उन्माद के साथ मिलकर नंगा नाच कर रहा था। मानव की दानवता और मजहब के उन्माद के इस पापपूर्ण गठबंधन ने मानवता को अपमानित और लज्जित कर दिया था।
इस अनैतिक और पापपूर्ण गठबंधन के चलते उस समय हिंदुओं को कितने जान-माल की क्षति हुई थी ? – इसका अनुमान लगाया जाना भी कठिन है। सर्वत्र लाश ही लाश पड़ी थीं। जिन्हें गिद्ध और कौए नोंच रहे थे । अनेकों हिंदू परिवार पूर्णरूपेण समाप्त हो चुके थे। ऐसा लगता था कि जैसे मालाबार के गली मोहल्लों में फिर बाबर, नादिरशाह, अब्दाली के अत्याचार जीवित होकर अपनी कहानी दोहरा रहे हैं । हिन्दुओं की लाशों के भी कोई उत्तराधिकारी नहीं मिले थे। बहुत से परिवार ऐसे थे जिनके बचे हुए लोग अपने ही परिजनों की लाशों को उठाकर लाने का साहस नहीं कर पा रहे थे।
इस पाप को छुपाने के लिए कांग्रेस ने इतिहास में कुछ इस प्रकार लिखवाया कि ‘मोपला हत्याकांड’ सुनियोजित ढंग से मजहब से प्रेरित होकर किया गया नरसंहार नहीं था। इसके विपरीत यह भ्रांत धारणा स्थापित की गई कि खिलाफत की असफलता से मुस्लिम समाज में जो क्षोभ का वातावरण बन गया था, उसकी प्रतिक्रियास्वरुप यह घटना हो गई थी।
यहां पर खिलाफत के विषय में भी स्पष्ट करना उचित होगा। वास्तव में खिलाफत आंदोलन के गर्भ से ही मोपला हत्याकांड ने जन्म लिया था। हिंदुओं के लिए खिलाफत की कहानी भी बहुत ही पीड़ादायक है।
बात 1919 की है । यही वह वर्ष था जब कुख्यात अली बंधुओं ने खिलाफत कमेटी का गठन किया था । इस खिलाफत कमेटी का उद्देश्य था मुसलमानों के धर्मगुरु खलीफा के पद को फिर से स्थापित कराया जाए। जिसे अंग्रेजों ने समाप्त कर दिया था। वास्तव में उस समय के मुसलमानों में अपने खलीफा के प्रति कोई किसी प्रकार का सम्मान का भाव अधिक नहीं रह गया था। भारतवर्ष में तो जिन्नाह जैसे लोग भी अंग्रेजों के इस कदम का स्वागत कर रहे थे। इतना ही नहीं, टर्की के शासक मोहम्मद कमाल पाशा ने तो यहां तक कह दिया था कि मुसलमानों के कंधों पर खलीफा नाम की पड़ी हुई लाश को उतारकर अंग्रेजों ने मुसलमानों पर बहुत भारी उपकार किया है। इसके उपरांत भी भारतवर्ष में मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिंतक होने की कांग्रेसियों में उस समय होड़ सी मची रहती थी। इन सबमें सबसे पहले आगे बढ़ने का काम गांधी जी ने किया। जिन्होंने खिलाफत के समर्थन में उतरने का निर्णय लिया। यद्यपि मोहम्मद अली जिन्नाह गांधी जी के इस प्रकार के निर्णय का विरोधी था।
अली बंधुओं के द्वारा खिलाफत के समर्थन में जिस कमेटी का गठन किया गया था, उस समय उसका विरोध मुसलमान भी कर रहे थे। जिससे लग रहा था कि अली बंधुओं को अपने लक्ष्य में कोई विशेष सफलता नहीं मिलेगी, परंतु उनके कार्य को गांधी जी ने अपना समर्थन देकर मानो प्राण ऊर्जा ही प्रदान कर दी।
यह घटना 24 नवंबर 1919 की है। इस दिन दिल्ली में आयोजित किये गये खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी जी ने की थी। गांधीजी को चाहे धर्म की राजनीति से भले ही घृणा रही हो, परंतु उन्हें मजहब की राजनीति करने में बहुत आनंद की अनुभूति होती थी। इस सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने मुसलमानों को आजादी की लड़ाई में साथ देने के उद्देश्य से खिलाफत को अपना समर्थन देने की घोषणा की।
जिन लोगों ने ऐसा कहा है कि गांधी जी ने मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम में साथ देने के उद्देश्य से खिलाफत को अपना समर्थन देने की घोषणा की थी, उनसे यह पूछा जा सकता है कि यदि गांधीजी ने इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर खिलाफत को अपना समर्थन दिया था तो क्या उससे पहले मुसलमान स्वतंत्रता आंदोलन को अपना समर्थन नहीं दे रहे थे ? और यदि खिलाफत को समर्थन देने से ही मुसलमानों का समर्थन कांग्रेस प्राप्त कर सकती थी तो क्या मुसलमान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को समर्थन अपनी शर्तों पर दे रहे थे ? झूठ को दबाने का प्रयास तो किया गया परंतु झूठ के साथ तार्किक आधार पर उभरते प्रश्नों का उत्तर आज तक नहीं दिया गया। जब जिन्नाह गांधी जी से कह रहा था कि खिलाफत अब पुराने जमाने की बात हो गई है, नए जमाने में पुराने जमाने की बातों को स्वीकार नहीं करना चाहिए तो गांधी जी ने जिन्नाह की बातों पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
दिल्ली में आयोजित किए गए उपरोक्त सम्मेलन में उपस्थित मुस्लिम समाज के लोग अपने चिर परीचित नारे अर्थात “इस्लाम खतरे में है” को लगा रहे थे। वे ऐसा करके अपने जिहादी चरित्र का परिचय दे रहे थे और लोगों को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने का कार्य कर रहे थे ।तब संभवतः गांधी जी को भी यह पता नहीं होगा कि यह उनके द्वारा जो कुछ किया जा रहा है उसका परिणाम हिंदुओं की 25000 लाशों के रूप में देखने को मिलेगा। किसी भी मुसलमान नेता ने भारत की आजादी में अपना सहयोग व समर्थन देने का एक शब्द भी वहां नहीं बोला ।ना ही यह कहा कि वे अंग्रेजों का विरोध करने के लिए गांधी जी के साथ होंगे ।
बस, उनका एक ही उद्देश्य था कि इस्लाम को खतरे से कैसे बाहर निकाला जाए? ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता कि गांधी जी ने भी खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने की एवज में मुसलमानों से भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपना सक्रिय सहयोग और समर्थन देने की मांग की हो। गांधी जी की ओर से सब कुछ कल्पनाओं पर आधारित होकर किया जा रहा था । वह इस सपने को देख रहे थे कि यदि वे स्वयं खिलाफत आंदोलन का समर्थन करेंगे तो मुसलमान अपने आप ही राष्ट्रवादी बनकर देश की स्वाधीनता में अपना सक्रिय सहयोग और समर्थन प्रदान करेंगे। गांधी जी यह भी सोच रहे थे कि उनके ऐसा करने से मुसलमान देश की एकता और अखंडता के लिए काम करने के प्रति अपनी संकल्पबद्धता व्यक्त करेगा। बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया कि ऐसा ना कुछ होना था और ना हुआ।
जिन लोगों ने इस हिंदुओं के इस नरसंहार को मुसलमानों का अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश कहा है, उनसे यह पूछा जा सकता है कि यदि वास्तव में उस समय मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोशित थे तो उन्हें अपना आक्रोश अंग्रेजों के विरुद्ध ही व्यक्त करने का अधिकार था। उन्होंने अपने आक्रोश को हिंदुओं के विरुद्ध क्यों व्यक्त किया और क्यों उनका सामूहिक नरसंहार किया ?
मोपला मुसलमान उस समय जो कुछ भी कर रहे थे उसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गांधी की सहमति थी। मोपला अपना नंगा नाच करते रहे और जितना नुकसान वह हिंदुओं का कर सकते थे उतना जी भर करते रहे। हिंदुओं के प्रति इतनी भयानक हिंसा को देखकर भी गांधी जी जैसे अहिंसा वादी का ह्रदय द्रवित नहीं हुआ। मोपला आतंकवादियों ने उस समय कितने ही पुलिस स्टेशनों को आग लगा दी थी। सरकारी खजाने को लूट लिया था । कई स्थानों पर अंग्रेजों को भी अपने निशाने पर महिलाओं ने लिया, परंतु उन्हें अधिक क्षति नहीं पहुंचाई। अनेकों हिंदुओं का बलात धर्मांतरण कराया गया। जिसे देखकर आर्य समाज के महान सन्यासी स्वामी श्रद्धानंद जी का हृदय रो उठा था। उन्होंने अपने हिंदू भाइयों के इस प्रकार किये गए बलात धर्मांतरण को लेकर कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी। स्वामी जी महाराज ने आर्य समाज के झंडे तले उस समय शुद्धि आंदोलन चलाया। यही कारण रहा कि उन्होंने मोपला हत्याकांड में जिन हिंदुओं का बलात धर्मांतरण कर लिया गया था ,उन्हें फिर से उनके मूल वैदिक धर्म में लाने का अभियान चलाया। स्वामी जी का यह महान कार्य जहां मुसलमानों को पसंद नहीं आ रहा था वही कांग्रेस और गांधीजी भी इसे पसंद नहीं कर रहे थे अर्थात कांग्रेस और गांधी जी की दृष्टि में यदि हिंदुओं को मुसलमान बना भी लिया गया था तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई थी। उनकी सोच थी कि जो लोग हिंदू से मुसलमान बन गए हैं उन्हें मुसलमान ही रहने दिया जाए।
जबकि स्वामी श्रद्धानंद जी की सोच इसके विपरीत थी। वह मानते थे कि यदि देश विरोधी लोगों को अपनी संख्या बढ़ाने की अनुमति दी गई तो यह वैदिक धर्म और वैदिक धर्मावलंबियों के लिए भविष्य में खतरनाक सिद्ध होगी। अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए स्वामी श्रद्धानंद जी ने इसीलिए शुद्धि आंदोलन चलाया।
गांधीजी और कॉन्ग्रेस स्वामी श्रद्धानंद जी के इस शुद्धि आंदोलन का समर्थन नहीं कर रहे थे। कांग्रेस की इस लंगड़ी लूली सोच का लाभ सदा विरोधियों ने उठाया है, जो भारत के मूल वैदिक समाज के लिए घातक सिद्ध हुआ है। यहां पर भी कांग्रेस की इस लंगड़ी लूली सोच का लाभ उठाते हुए स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या एक मुस्लिम आतंकवादी ने कर दी। यह घटना 23 दिसंबर 1926 की है। तब भी कांग्रेस में स्वामी जी के हत्यारे का समर्थन किया था। इस प्रकार गांधीजी और कांग्रेस की गलत नीतियों के शिकार स्वामी श्रद्धानंद जी हो गए। स्वामी जी की हत्या के रूप में भारत ने मोपला कांड की बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी। आज के आर्य समाजियों और हिंदुओं को इस बलिदान का मूल्य समझना चाहिए।
मोदी सरकार ने आईसीएचआर की रिपोर्ट को स्वीकार कर यदि फर्जी स्वतंत्रता सेनानियों को अब आकर फर्जी करार दे दिया है तो हम समझते हैं कि यह भी इस सरकार के द्वारा मोपला कांड में शहीद हुए हजारों हिंदुओं और स्वामी श्रद्धानंद जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत