कांग्रेस ने अपने हिंदू विरोधी चरित्र और आचरण का परिचय एक बिंदु पर नहीं, अनेकों बिंदुओं पर दिया है । आर्य समाज के महान स्तंभ और हिंदू नेता स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे संन्यासियों की हत्या पर जहां कांग्रेस और कांग्रेस के नेता गांधीजी या तो मौन साध गए या ऐसी अशोभनीय भाषा बोलते रहे जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता था , इसी प्रकार जहां कई क्रांतिकारियों की हत्या या फांसी पर उल्टी सीधी टिप्पणी करते रहे , वहीं हिंदुओं के हत्यारे रहे मुसलमानों और उनके नेताओं के बारे में उनका दृष्टिकोण सर्वथा बदल गया।
कांग्रेस की मुस्लिमपरस्ती या मुस्लिम तुष्टिकरण की इसी नीति का एक उदाहरण है – मोपला हत्याकांड । यह वह घटना थी जो अब से सही 100 वर्ष पहले केरल के मालाबार में रहने वाले मोपला मुसलमानों द्वारा वहां के हिंदुओं का बड़ी संख्या में नरसंहार करके पूर्ण की गई थी। वीर सावरकर जी जैसे महानायक ने अपने क्रांतिकारी जीवन में इस घटना का बहुत ही गंभीरता से उल्लेख किया है। क्योंकि वह जानते थे कि जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया है उनका चाल ,चरित्र और चेहरा कैसा है ? वे यह भी जानते थे कि यदि इस घटना को सही ढंग से इस समय जनसाधारण के समक्ष नहीं उठाया गया तो आने वाले समय में ऐसी और भी घटनाएं होंगी ।
क्रांतिवीर सावरकर जी के द्वारा लिखा गया ग्रंथ ‘मोपला’ यद्यपि उपन्यास शैली में है, परंतु इसके उपरांत भी उसने ‘मोपला हत्याकांड’ की परतों को बड़ी निर्भीकता के साथ खोलने का सफल और साहसिक प्रयास किया है। वास्तव में सावरकर जी जैसे महानायक कांग्रेस और कांग्रेसियों की आंखों में इसलिए खटकते रहे हैं कि उन्होंने हर उस तथ्य को जनता के सामने लाने का सफल प्रयास किया जिसे कांग्रेस छुपाने का प्रयास करती रही। कांग्रेस पाप करके पाप को छुपाती थी और सावरकर जी उसके पाप का चौराहे पर भंडाफोड़ करने का काम करते थे।
मोदी सरकार के सत्ता में आने के पश्चात सावरकर जी के द्वारा लिखे गए इस साहित्य के आधार पर उन कई अनछुए पहलुओं को जनता के सामने लाने में बहुत सफलता प्राप्त हुई है जो अब तक छुपे पड़े रहे थे। यही कारण है कि कांग्रेस की झल्लाहट बार-बार सावरकर जी के प्रति दिखाई देती रहती है।
यह घटना 20 अगस्त 1921 की है । जब मुसलमानों ने दिन धर कर हिंदुओं का भीषण नरसंहार किया था। बाद में इस घटना के लगभग 25 वर्ष पश्चात इसी घटना को आधार बनाकर या कहिए कि इसी को अपना आदर्श उदाहरण मानकर सोहरावर्दी ने बंगाल में ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ मनाकर हिंदुओं का नरसंहार किया था। कांग्रेस दोनों समय ही या तो मौन साधे रही या किसी ना किसी प्रकार से उन्मादियों के इस दुष्ट – आचरण का समर्थन करती हुई दिखाई देती रही।
कई इतिहासकारों का मानना है कि मुसलमानों ने इस नरसंहार में लगभग 25000 हिंदुओं की हत्या की थी। बहुत ही पीड़ादायक ढंग से महिलाओं के साथ अत्याचार किए गए थे।
‘ऑप इंडिया’ मैं छपे एक लेख के अनुसार विभिन्न स्रोतों के अनुसार, 38 हिंदुओं पर मोपला कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ सेना की मदद करने का आरोप लगा था। उनके ख़िलाफ़ आरोपों को उन्हें पढ़कर सुनाया गया और देखते ही देखते कट्टरपंथियों ने उनका सिर कलम कर दिया। हत्या के बाद सबकी खोपड़ियाँ कुएँ में फेंक दी गई।
दीवान बहादुर सी. गोपालन, जो कालीकट, मालाबार के डिप्टी कलेक्टर थे, द्वारा लिखित ‘द मोपला रिबेलियन, 1921’ पुस्तक में, 25 सितंबर के उस भयानक दिन के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है।
पुस्तक के 56वें पेज पर गोपालन लिखते हैं: ‘एक बंजर पहाड़ी की ढलान पर थुवूर और करुवायकांडी के बीच-बीच में एक कुआँ स्थित है। यहाँ चेम्ब्रसेरी (चंब्रासेरी) तंगल के 4000 अनुयायियों ने एक बड़ी बैठक की। तंगल एक छोटे से पेड़ की छाया में बैठ गया और 40 से अधिक हिंदुओं को विद्रोहियों (कट्टरपंथियों) ने पकड़ लिया और उनकी पीठ के पीछे हाथ बाँधकर तंगाल ले जाया गया। इन हिंदुओं पर आरोप लगाया गया कि इन्होंने विद्रोहियों के विरुद्ध सेना की मदद की थी। इनमें 38 को मौत की सजा सुनाई गई। कहा जाता है कि इनमें तीन को गोली मारी गई और बाकी को एक-एक करके कुएँ पर ले जाया गया। किनारे पर एक छोटा सा पेड़ है। जल्लाद यहीं खड़ा हो गया जो तलवार से गर्दन काटकर शव को कुएं में धकेलता रहा था।
उनमें से कई लोग जिन्हें नहीं फेंका गया था वह मरे भी नहीं थे। लेकिन चंगुल से छूटना नमुमकिन था। कुएँ के किनारे सख्त लाल चट्टान में कटे हुए हैं और कोई सीढ़ियाँ नहीं हैं। बताया जाता है कि हत्याकांड के तीसरे दिन भी कुछ लोग कुएँ से चिल्ला रहे थे। वे एक अजीबोगरीब भयानक मौत मरे होंगे। जिस समय यह हत्याकांड हुआ था उस समय बारिश का मौसम था और थोड़ा पानी था, लेकिन अब यह सूखा है और कोई भी आने जाने वाला इस भीषण नजारे को देख सकता है। कुआँ पूरी तरह से मानव हड्डियों से भरा है। मेरे बगल में खड़े आर्य समाज मिशनरी पंडित ऋषि राम ने 30 खोपड़ियों की गिनती की।
एक खोपड़ी जिसका अलग से जिक्र होना चाहिए।
यह अभी भी बड़े करीने से दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखाई देता है। कहा जाता है कि यह कुमारा पणिक्कर नाम के एक वृद्ध व्यक्ति की खोपड़ी है, जिसके सिर को आरी से धीरे-धीरे दो भागों में काट दिया गया था।’
इस प्रकार अमानवीय ढंग से किए गए रोंगटे खड़े कर देने वाले अत्याचारों से धरती आकाश कांप गए थे। योजनाबद्ध ढंग से चलने वाले इस नरसंहार में मुसलमान बर्बर आतंकवादी की भाँति काम करते रहे । कई महीनों तक हिंदू नरसंहार का यह कार्य चलता रहा।
इस घटना में अनेकों महिलाओं के साथ हुए अन्याय और अत्याचार पर श्याम श्री कुमार नामक लेखक ने बड़ा गंभीर वर्णन किया है। श्री कुमार की दादी उस समय डेढ़ वर्ष की थी। उनके साथ हुई दर्दनाक घटना का वर्णन करते हुए वह लिखते हैं- :’21 अगस्त 1921 को सुबह 8 बजे नीलांबुर शहर में अज़ान की गूँज सुनाई दी। दक्षिणी मालाबार में अशांति की खबर सुनकर, नीलांबुर साम्राज्य ने अपने कोविलकम (महल) की सुरक्षा के लिए मुट्ठी भर संतरी (पहरेदार) नियुक्त किए। मोपला के समूह की पहचान उस समय नहीं हुई, क्योंकि विद्रोही काफिला एक धार्मिक जुलूस की तरह लग रहा था। महल के छोटे पहरेदारों ने भरसक इसका विरोध किया, लेकिन यह सब व्यर्थ रहा।
ये मजहबी खानाबदोश कोविलकम के हर जीवित हिंदू और हिंदू समर्थकों पर हमला करने के लिए आगे बढ़े; और अंत में, एक लंबी लड़ाई के बाद वेलुथेडन नारायणन और वेलीचप्पड़ (कोविलकम मंदिर के जानकार- वेट्टाकोरु माकन) ने महल की दीवारों की रक्षा करने की कोशिश में अपनी जान गँवा दी। दंगाइयों ने सामने के दरवाजे को क्षतिग्रस्त कर दिया लेकिन कोविलकम में प्रवेश नहीं कर सके। भीड़ का एक अन्य समूह पास की चलियार नदी की ओर भागा और नहा रही दो महिलाओं को मार डाला। महिला वहीं पास की चट्टान पर बैठी अपनी डेढ़ साल की बेटी की जान बचाने की गुहार लगाती रही। मगर दंगाइयों ने कोविलकम को लूटने के बाद दूसरी ओर कूच किया।
उस दोपहर में बेरहमी से मारे गए अनेक निर्दोषों के खून ने चलियार के तटों को धो डाला। वह छोटी बच्ची दूध की एक बूँद के लिए अपनी मृत माँ के स्तन को चूस रही थी, तभी नीलमपुर मानववेदन तिरुमुलपद के दूसरे राजा ने उसे देखा। उन्होंने उस अनाथ बच्ची को गोद लिया, उसका नाम कमला रखा और उसे अपनी बेटी के रूप में पाला। बाद में 1938 में कमला का विवाह इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के जूनियर इंजीनियर पद्मनाभ मेनन से हुआ। दुख की बात यह है कि भारतीय इतिहार इसे मोपला विद्रोह के रूप में दर्शाता है, जबकि यह 1921 में हिंदू परिवारों द्वारा झेली गई भयावह हिंसा को उजागर करता है।
उस समय सुहाद (शहादत) का सही अर्थ इस्लाम में फिर से लिखा गया था, जब उनके कत्लेआम का कारण सिर्फ और सिर्फ मजहब था और उस नाम पर लोगों को बेरहमी से मारा गया, बलात्कार किया गया और गैर-इस्लामी लोगों को लूटा गया। उनके अनुसार, इस्लामी शहीद (जो इस तथाकथित विद्रोह के दौरान मर जाते हैं) कीमती पत्थरों से सुसज्जित घोड़ों पर जन्नत की सैर करते हैं और उनका स्वागत हूरें करती हैं। एक अनपढ़ मोपला के लिए, यह वादे उसके द्वारा जीते गए सांसारिक जीवन की तुलना में अधिक स्वागत योग्य था।’
कांग्रेस ने न केवल उस समय इस घटना के प्रति उदासीनता का प्रदर्शन किया , अपितु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात तो उसने निर्लज्जता की सभी सीमाएं पार कर दीं। जब इस घटना में दोषी रहे अनेकों मुसलमानों को स्वतंत्रता सेनानी मानकर उन्हें पेंशन आदि की सुविधाएं भी दी जाती रहीं। अपने आपको ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ कहने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की नाक नीचे हिंदू विरोध का यह कृत्य किया गया और उनके अंग्रेजियत से भरे दिल पर तनिक भी इसका दर्द नहीं हुआ। इन ‘एक्सीडेंटल हिंदुओं’ के कारण 25000 हिंदू भी एक मुसलमान की जान की बराबरी नहीं कर सकते। आपको याद ही होगा जब दादरी कस्बे के बिसाहड़ा गांव के रहने वाले अखलाक की मौत पर यह ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ छाती पीट – पीटकर रोए थे। यद्यपि उसके बारे में फॉरेंसिक रिपोर्ट के माध्यम से बाद में सब स्पष्ट हो गया था कि उस घटना में गाय की हत्या की गई थी।
कॉन्ग्रेस और इसके मानस पुत्रों ने संभवत: हिंदू इतिहास और हिंदुओं के साथ हुए अत्याचारों के वृत्तांतों को इसीलिए भुलाने का प्रयास किया है कि समय पर इतिहास को लोग याद ना कर सकें। हम हिंदुओं ने भी कांग्रेस की इस षड़यंत्र पूर्ण सोच को फलीभूत करने में अपना सहयोग दिया है। हममें से कई लोग कांग्रेसी होकर सावरकर जी और उनके चिंतन को केवल इसलिए कोसने लगते हैं कि उनका नेता सावरकर जी के विषय में अच्छी सोच नहीं रखता। यद्यपि ऐसे कांग्रेसियों में से कई ऐसे होते हैं जिनके भीतर राष्ट्रवाद की प्रबल भावना होती है, पर इतिहास बोध ना होने के कारण वह कांग्रेस के सुर में सुर मिला कर बातें करने लगते हैं।
अब आप तनिक विचार कीजिए कि मोपला हत्याकांड में जो लोग उस समय ‘अल्लाहुअकबर’ का नारा लगा रहे थे और इस नारे को लगाने के साथ उनकी नंगी तलवारें हिंदुओं की छातियों में घुस रही थीं या जो लोग महिलाओं के साथ बलात्कार करते हुए अमानवीय अत्याचारों को अंजाम दे रहे थे, वह इस देश के स्वतंत्रता सेनानी कैसे हो सकते हैं ? आखिर ऐसा कौन सा पैमाना था जिसको अपनाकर कांग्रेस ने इन लोगों को स्वतंत्रता सेनानी माना ? जिनकी तलवारे मासूमों को भी नहीं देख रही थीं, उन लोगों को इस देश का नायक स्वीकार करना मानवता के साथ भी बड़ा अपराध है।
‘अल्लाह हो अकबर’ का नारा लगाकर हिंदुओं की हत्या करने वाले मुसलमानों की डॉक्टर अंबेडकर ने भी आलोचना की थी। उन्होंने भी इसे हिंदुओं का नरसंहार ही कहा था। जो लोग आज यह अपेक्षा करते हैं कि मोपला के मानस पुत्रों की सोच में परिवर्तन आ गया होगा, उन्हें डॉक्टर अंबेडकर जी का यह कथन स्मरण रखना चाहिए :- ‘मुसलमानों की सोच में लोकतंत्र प्रमुखता नहीं है। उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र, जिसका मतलब बहुमत का शासन है, हिंदुओं के विरुद्ध संघर्ष में मुसलमानों पर क्या असर डालेगा। क्या उससे वे मजबूत होंगे अथवा कमजोर? यदि वे लोकतंत्र में कमजोर होते हैं तो लोकतंत्र नहीं चाहेंगे।’
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत