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राजनीति

जनप्रतिनिधियों की जरूरत का सवाल

कुलदीप नैयर

पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के इस सुझाव से भी सहमत हूं कि सांसदों की वेतनवृद्धि संबंधी निर्णय करने हेतु स्वतंत्र वेतन आयोग का गठन किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि बढ़ते खर्चों को पूरा करने के लिए उन्हें अधिक पैसे चाहिए, लेकिन उनकी जरूरत को ठीक ढंग से जानने के लिए एक अध्ययन की आवश्यकता है। चटर्जी ने जो कहा है, उसमें दम है। सांसद खुद इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि उनका वेतन कितना हो। यह भी एक सच्चाई है कि विभिन्न राज्यों में चयनित प्रतिनिधियों के वेतनमान और सुविधाओं में काफी अंतर देखने को मिलता हैज्मैंने पिछले कई वर्षों के अवलोकन के बाद यह पाया है कि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट, सेना के सतत दबाव के बावजूद हमसे अधिक प्रगतिशील है, जबकि भारत के पास एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक परिवेश है। अभी इस बात को बहुत अधिक समय नहीं हुआ जब पाकिस्तानी वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश की सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई लड़ी और जिया-उल-हक तथा परवेज मुशर्रफ जैसे तानाशाहों को विवश कर दिया। एक बार फिर पाकिस्तानी उच्च न्यायालय ने हमें अपना चेहरा आईने में देखने के लिए विवश कर दिया है। एक बड़े निर्णय में शीर्ष न्यायालय ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विभिन्न राजभवनों तथा इन पदों पर रहने वाले लोगों की शाही जीवनशैली पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि यह सब कुछ ‘सरकार की नीति के मामले’ और ‘राजनीतिक प्रश्न’ हैं। यह हमारी संस्थाओं के सापेक्ष कितना प्रगतिशील निर्णय है? पाकिस्तानी उच्च न्यायालय ने कहा कि एक ऐसा देश जो विदेशी कर्ज से दबा हुआ है, जहां जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करता है तथा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है, इस तरह की शाहखर्ची पैगंबर की सादगी के सिद्धांत के न केवल उलट है, बल्कि यह नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का अतिक्रमण भी है। यह टिप्पणी हमें महात्मा गांधी की उस सलाह की याद दिलाती है जो उन्होंने देश के स्वतंत्र होने के बाद चुने गए विभिन्न पदाधिकारियों को दी थी। उन्होंने कहा था कि लोगों को एक स्वामी के बजाय एक न्यासी की तरह कार्य करना चाहिए। वह चाहते थे कि इन लोगों का वेतन सामान्य लोगों की आमदनी के आसपास होना चाहिए।  पाकिस्तानी उच्चतम न्यायालय ने भी यही बात कही है कि सार्वजनिक संपत्ति, लोक पदाधिकारियों के हाथ में सार्वजनिक संग्रह मात्र है। मैं चाहता था कि न्यायालय चयनित सदस्यों की वेतनवृद्धि संबंधी शाश्वत मांग पर भी टिप्पणी करे, लेकिन न्यायालय ने इसमें राजनीतिक निहितार्थ स्वीकार करते हुए इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। तकनीकी दृष्टि से न्यायालय सही था, लेकिन यदि न्यायाधीश टिप्पणी करते तो राजनीतिक बिरादरी की शाहखर्ची पर रोक लगाने में मदद मिलती, क्योंकि अब भी न्यायपालिका का काफी सम्मान किया जाता है। हमारे यहां के राजनेताओं की जीवनशैली संपन्न और समृद्ध देश के नेताओं की जीवनशैली से बहुत ज्यादा अलग है। लेकिन समस्या यह कि इस शाहखर्ची पर सवाल कौन उठाए। पहले कभी यह काम मीडिया किया करता था। लेकिन आजकल मालिक और कारपारेट सेक्टर के कर्ता-धर्ता इस बात का निर्देश देते हैं कि समाचार किस रूप में प्रकाशित अथवा प्रसारित हो, उसका कोण क्या हो। यह निश्चित रूप से एक चिंतनीय पहलू है। लेकिन क्या इस स्थिति का कोई विकल्प नहीं खोजा जा सका है। विकसित देशों में भी मीडिया की कमोबेश यही स्थिति है। कहना न होगा कि भारतीय प्रेस परिषद भी उच्च पत्रकारीय मानदंडों को स्थापित करने में असफल रही है। मुझे अब भी याद है कि आपातकाल के दौरान उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जो कि प्रेस परिषद के अध्यक्ष थे, ने सूचना प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला को लिखा था कि उन्होंने अपनी चालाकियों से प्रेस परिषद में आपातकाल का विरोध करने वाले किसी प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया है। जनता पार्टी ने इस तरह के दृष्टिकोण को सामने लाने के लिए श्वेत पत्र लाया था। 1980 में जब इंदिरा गांधी ने भी इसी तरह का श्वेत पत्र प्रस्तुत किया तो उनके खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं रह गया था। आज भी जब प्रेस परिषद का पुनर्गठन कर के इसमें संपादकों और पत्रकारों को जगह दी गई है, स्थितियों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। संभवत: भारतीय प्रेस परिषद, ब्रिटिश संस्था की तर्ज पर पुनर्गठन किए जाने का इंतजार कर रहा है। हालांकि वहां भी इस संस्था में गिरावट दर्ज की गई है। अस्सी के दसक में वहां प्रेस परिषद के स्थान पर प्रेस शिकायत परिषद का गठन किया गया। इसका भी अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा, लेकिन सरकार या मीडिया ने इसके आगे कुछ नया करने की जहमत नहीं उठाई। मामला जहां का तहां अटका हुआ है। मैं मानता हूं कि मीडिया पर सेंसरशिप लगाए जाने की कोई संभावना नहीं है, फिर भी प्रेस परिषद की भूमिका को कुछ अर्थ देने के लिए इसको पुनर्परिभाषित करना आवश्यक है। अन्यथा, यह एक कागजी संस्था मात्र बनकर रह जाएगी। इसी तरह, मैं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के इस सुझाव से भी सहमत हूं कि सांसदों की वेतनवृद्धि संबंधी निर्णय करने के लिए एक स्वतंत्र वेतन आयोग का गठन किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि बढ़ते खर्चों को पूरा करने के लिए उन्हें अधिक पैसे चाहिए, लेकिन यह भी कि उनकी जरूरत को ठीक ढंग से जानने के लिए एक अध्ययन की आवश्यकता है। चटर्जी ने जो कहा है, उसमें दम है। सांसद खुद इस बात का निर्णय नहीं कर सकते कि उनका वेतन कितना होगा। यह भी एक सच्चाई है कि विभिन्न राज्यों में चयनित प्रतिनिधियों के वेतनमान और सुविधाओं में काफी अंतर देखने को मिलता है। वर्तमान में केरल के विधायक 21,300 रुपए मासिक उठाते हैं। जबकि दिल्ली में विधायकों की वेतनमान 50 हजार और पंजाब में 54,500 है। केरल में विधायक को 300 रुपए वेतन के रूप में, 3500 रुपए विधानसभा भत्ता, 4000 रुपए टेलीफोन खर्च के रूप में, 6000 रुपए ईंधन और रेलवे कूपन के लिए तथा 7500 रुपए स्थायी यात्रा भत्ता मिलता है।  चुने हुए प्रतिनिधियों को एकमुश्त राशि मिलनी चाहिए, जिसमें सभी खर्चे शामिल हों। इस एकमुश्त राशि में बिजली, पानी, टेलीफोन जैसे खर्चों को भी शामिल किया जा सकता है। इससे लोगों को यह पता चल सकेगा कि प्रतिनिधि को कुल कितने पैसे मिल रहे हैं।

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