‘कहानियों का पिटारा’ नामक पुस्तक डॉ अलका अग्रवाल जी के द्वारा लिखी गई है । इस पुस्तक को लेखिका ने बच्चों के लिए विशेष रुप से लिखा है। जिससे कहानियों के माध्यम से उनके ज्ञान में वृद्धि हो सके। पुस्तक के संबंध में उन्होंने अपने ‘दो शब्द’ की भूमिका में ही यह स्पष्ट किया है कि – मैं जब अपने बचपन को याद करती हूं तो मुझे याद आती हैं दादी नानी की कहानियां। नंदन, पराग जैसी बाल पत्रिकाओं से कहानी, कविता पढ़ना, अपने से छोटे बच्चों को सुनाना। कविता याद करके बाल सभा में सुनाना और अंत्याक्षरी खेलना।’ उनकी इस प्रकार की अभिव्यक्ति से स्पष्ट है कि कहानी, कविताएं उन्हें बचपन से पसंद रही हैं। बचपन का संस्कार देर तक और दूर तक जीवन में साथ चलता है। बस, इसी संस्कार से उनके भीतर का लेखक निखरता गया और उन्हें ऐसी पुस्तकों के लेखन की प्रेरणा देता गया।
सचमुच बच्चों के लिए लिखना कोई आसान काम नहीं होता। क्योंकि उसमें भाषा और शब्दों का ऐसा संतुलन बनाकर भी चलना पड़ता है। जिसे बच्चे बड़ी सहजता से समझ सके । बच्चों के लिए बोझिल भाषा करके जब लिखा जाता है तो उनके लिए लेखक का अच्छा प्रयास भी निरर्थक हो जाता है। इस पुस्तक में विदुषी लेखिका ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है।
पृष्ठ संख्या 54 पर वे लिखती हैं – ‘कोयल सिर झुका कर खड़ी हो गई और बोली आज मैं सबके सामने अपराध स्वीकार करती हूं। जो कुछ भी कौए ने कहा सब सच है। मैं कौए से अपने अपराध की क्षमा चाहती हूं । मैंने अपने बच्चों के साथ भी अन्याय किया है। मैंने उन्हें कभी मां का प्यार नहीं दिया। मैंने पक्षी समाज के नियमों का उल्लंघन किया है । सभी पक्षी अपने बच्चों के लिए जीते हैं । उनका पालन पोषण करते हैं, लेकिन मैंने तो अपने अंडों को ही त्याग दिया।”
उनके इस एक वाक्य से पुस्तक की भाषा की सहजता और सरलता का बोध हो जाता है। साथ ही इसमें छुपा हुआ उनका गहरा संदेश भी स्पष्ट हो जाता है कि मां को कभी भी अपनी संतान के प्रति निर्मम नहीं होना चाहिए। यदि वह ऐसा करती है तो निश्चय ही वह समाज के नियमों का उल्लंघन करती है।
इस पुस्तक में लेखिका ने कुल 21 कहानियों को स्थान दिया है। प्रत्येक कहानी अपने आप में एक विशेष संदेश देती है।
बालकों के कोमल मस्तिष्क में मीठी – मीठी गुदगुदी करते हुए उन्हें अच्छी – अच्छी बातें बताना और उन बातों में भी गहरी शिक्षा के साथ-साथ उनके बालमन पर अच्छे संस्कार अंकित करना किसी भी लेखक – लेखिका के लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है। आज के शिक्षाविदों ने इसे खेल – खेल में शिक्षा कहा है। विदुषी लेखिका ने इस पुस्तक में अपनी इसी कला का परिचय दिया है। मानो वह बच्चों के साथ खेल रही हैं और खेलते – खेलते उनके बाल – मन के मानस को गुदगुदाते जाते हुए उनके भीतर संस्कार उकेर रही हैं। जिसे बच्चे मीठी टॉफी की तरह पसंद कर रहे हैं और स्वीकार करते हुए रसास्वादन ले रहे हैं।
इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 128 है। पुस्तक बहुत ही अच्छे कागज पर तैयार की गई है । पुस्तक के प्रकाशक ‘ग्रंथ विकास’ c-37 बरफखाना , राजा पार्क, जयपुर है। पुस्तक प्राप्ति के लिए 0141-2322382, 2310785 पर संपर्क किया जा सकता है। पुस्तक का मूल्य ₹225 है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत