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वैदिक संपत्ति

वैदिक संपत्ति : आसुर उपनिषद की उत्पत्ति

गतांक से आगे….

जहां वेद कहते हैं कि ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाध्नत’ अर्थात ब्रह्मचर्य से ही देवता अमृत को प्राप्त होते हैं और जहां छान्दोग्य 7/4/3 कहता है कि, तद्यएवैतं ब्रह्मलोकं ब्रह्मचर्येणानुविन्दति तेषामेवैष ब्रह्मलोकस्तेषां सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति’ अर्थात वह निश्चय ही ब्रह्मचर्य से ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं और ब्रह्मलोकवासी सब लोकों में जाने वाले इच्छाचारी होते हैं, आसुर उपनिषद की अश्लील और वीभत्स कामकाथाए आकाश पाताल का अंतर पैदा कर देती हैं। यही नहीं कि आसुर उपनिषदों में व्यभिचार को ही स्थान दिया हो, किन्तु वे मांस खाने का भी आदेश करते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् में है की-
अथ य इच्छेत्पुत्रो मे पण्डितो विगीत: से समिर्ति गम: शुश्रुषितां वाचं भाषिता जायेत सर्वान्वेदाननुब्रयीत।
सर्वमायूरियादिति मांसौदन पाचयित्वा सपिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयित वा औक्षेण वाऽऽर्षभेण वा।
(बृहदा० 6/4 /18२ अर्थात यदि इच्छा हो कि मेरा पुत्र पंडित, सभा में जाने योग्य, अच्छा भाषण करने वाला, सब वेदों का ज्ञाता और सारी उम्र सुख से रहने वाला हो, तो उसे चाहिए कि वह घोड़े या बैल का मांस घृत मिले भात के साथ खावे। गाय, बैल, घोड़ा, बकरी, भेड़ी ये तो आर्यों की बड़ी प्यारी वस्तुएं हैं। इनको मारना और खाना उनकी संस्कृति के विरुद्ध है, इसलिए यह कभी संभव नहीं है कि आर्यों ने इस प्रकार की शिक्षा दी हो। यह सारा हत्याकाण्ड तो अनार्यो का ही है।गीता में ठीक ही लिखा है कि ‘यजन्ते नाम यज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम’ अर्थात ये असुर यज्ञों में मांस, मद्य और व्यभिचार की ही प्रधानता रखते हैं। इसलिए इन अनार्य असुरों ने समस्त राक्षसी लीला को ब्रह्मविद्या के नाम से उपनिषदों में बड़ी खूबी के साथ मिश्रित किया है। वह समझते थे कि सभी चाहते हैं कि हमारे घर में सर्व सुंदर और विद्वान लड़का हो। अतः ऐसी शास्त्रज्ञा पाकर सभी की प्रवृत्ति मांस खाने की ओर हो जाएगी। वही हुआ भी।आर्यजाति इसी प्रकार के आसरी साहित्य के कारण मांस भक्षण जैसे आसरी स्वभाव को शास्त्रीय मानने वाली हो गई। इतना ही नहीं हुआ प्रत्युत बृहदारण्यक 4/3/21 और 4/3/34 में ब्रह्मानंद जैसे उच्च पद की उपमा स्त्रीभोग से देकर इन्होंने आर्यों की ब्रह्यप्राप्ति की और से भी हटा कर महाकामी बना दिया और उसी प्रकरण के आगे लिख दिया कि, ।तस्मिन स्वप्ने रत्वा चरित्वा अर्थात बेहोशी की हालत में सुषुप्तियें-मनुष्य आनंद प्राप्त करता है। इस वाक्य से ज्ञात होता है कि यह लोग शराब पीकर ही यह सुषुप्ति प्राप्त करते थे। क्योंकि जहां मास हो और व्यभिचार हो वहां सुरा होनी ही चाहिए ? यही कारण है कि तैत्तिरीय ब्राह्मण में सुरा का खुलासा करते हुए लिखा है कि, यस्य पिता पितामहादि सुरा न पिबेत स व्रात्य:’ अर्थात जिसके पिता पितामहादि शराब न पीते हो, वह नीच है।
इस तरह से यहां तक हमने उपनिषदों में आसुरी सिद्धांत के मिश्रण के अनेक प्रमाण दिए।अब हम नहीं समझते कि इस प्रकार के प्रमाणों की आवश्यकता है। गीता में जितने लक्षण आसुरी संपत्ति वालों के लिखे हैं, वे सब इन उपनिषदों में मिश्रण करने वालों के साथ मिल जाते हैं।कामी, दम्भी, धनलोलुप, मांसमद्य से यज्ञ करने वाले और अपने आप को परमेश्वर मानकर इस लोक के सुखोपभोग में जीवन बिताने वालों को गीता में आसुरी संपत्तिवाला बतलाया गया है। वही सब बातें हमने इस मिश्रणकर्ताओं में देखी। इसलिए अब यह माने बिना छुटकारा नहीं कि यह समस्त सिद्धांत आसुरी हैं। गीता में भी आसुरी सिद्धांतों का मिश्रण है। क्योंकि उसमें भी दुराचारियों को मोक्षभागी बताया गया है। इस तरह से हमने देखा कि प्रस्थानत्रयी के दोनों प्रधान साहित्य – उपनिषद और गीता – आसुरी सिद्धांतों से परिपूर्ण हैं। इसके आगे अब हम ब्रह्मसूत्रों की आलोचना करते हैं और देखते हैं कि उनमें भी क्या-क्या लीला हुई है।
क्रमशः

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