बाल गीता
बाल गीता
प्रिय बच्चों!
गीता हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को उस समय उपदेश दिया जिस समय वह मोह के वशीभूत होकर युद्ध से पीठ फेरकर बैठ गया था।
युद्ध का पहला दिन था। श्री कृष्ण जी अर्जुन के रथ को हाँकते हुए जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पहुंचे तो अर्जुन ने कहा कि -‘केशव! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीचों-बीच ले चलो। जिससे कि मैं दोनों ओर के योद्धाओं को एक बार देख सकूं।’
तब श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच ले जाकर खड़ा कर दिया । अर्जुन ने दोनों ओर के योद्धाओं को देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया । उसने देखा कि दोनों ओर उसके सगे संबंधी ही दिखाई दे रहे हैं । तब उसने सोचा कि मरने और मारने वाले दोनों एक ही हैं और यदि ये आपस में लड़कर मर गए तो इसका पाप मुझे लगेगा। इसलिए उसने युद्ध से हथियार फेंक दिए और श्री कृष्ण जी से कह दिया कि -‘केशव ! मैं युद्ध नहीं करूँगा।’
इस प्रकार युद्ध से भाग चुके अर्जुन को फिर से युद्ध के लिए तैयार करने का जो उपदेश श्री कृष्ण जी ने उस समय दिया उसी से यह ‘गीता’ नाम का ग्रंथ बन गया।
गीता का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । हमारे जीवन में भी ऐसे बहुत से मोड़ आते हैं जब हम किसी मोह के कारण या किन्हींदूसरे कारणों से जीवन रूपी जंग के मैदान को छोड़कर भागने की सोचने लगते हैं। उस समय गीता का उपदेश हमें भी यह संदेश देता है कि युद्ध से भागो मत , परिस्थितियों से मुंह मत फेरो , हालात के सामने हथियार मत फेंको बल्कि उनका बहादुरी के साथ सामना करो। अपने धर्म का निर्वाह करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहो।
अपने छोटे से संबोधन में श्री कृष्ण जी ने बहुत गहरे ज्ञान की बातें बताकर अर्जुन को फिर से युद्ध के लिए तैयार किया। उसे समझाया कि भागो मत ,क्योंकि पलायनवाद क्षत्रियों का धर्म नहीं है । बहादुरी से परिस्थिति का सामना करना ही क्षत्रिय का सबसे बड़ा धर्म है। भागने से समस्याओं का समाधान नहीं होता बल्कि वे और भी अधिक उलझ जाती हैं । कई बार हमारे इस प्रकार हथियार फेंकने से शत्रु हम पर और भी अधिक हमलावर हो जाता है। जिससे हम विनाश से बच नहीं पाते हैं बल्कि विनाश के और भी निकट पहुंच जाते हैं।
कृष्ण जी ने अर्जुन को बताया कि यदि तू युद्ध करते हुए मरता है तो तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा और यदि युद्ध में विजयी होता है तो तुझे संपूर्ण भूमंडल पर राज करने का सुअवसर प्राप्त होगा।
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को इस बात के लिए तैयार किया कि संसार में राक्षस प्रवृत्ति के दुर्योधन जैसे लोगों के सामने यदि हथियार फेंक दिए गए तो वह सज्जन प्रवृत्ति के लोगों का जीना हराम कर देंगे, इसलिए उस जैसे लोगों का अंत कर देना ही लाभकर है।
अर्जुन के हथियार फेंकने से सीधा लाभ दुर्योधन को ही होना था इसलिए श्री कृष्ण जी ने उसे समझाया कि राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का संहार करना जरूरी है। अर्जुन ! यदि मुझे स्वयं को भी इस काम के लिए बार-बार जन्म लेना पड़े तो मैं लेना चाहूंगा। मैं नहीं चाहता कि मुझे तो मोक्ष प्राप्त हो और संसार के लोग जेल में पड़े रहें। जिन लोगों से अच्छे लोगों को कष्ट की अनुभूति होती है मैं उन लोगों का संहार करना उचित मानूंगा जिससे कि सज्जन प्रवृत्ति के लोगों को किसी प्रकार का कष्ट ना हो । मैं चाहता हूं कि दुनिया के शरीफ लोग सहज रूप में अपना जीवन यापन कर सकें ।
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा कि ‘अर्जुन ! तुझे भी ऐसा ही प्रयास करना चाहिए कि दुनिया के शरीफ लोग आराम से जिंदगी बसर कर सकें। उन्हें जालिम लोग किसी भी प्रकार से तंग व परेशान ना करें। यदि तू अपने इस धर्म को समझ कर युद्ध करेगा तो तेरा यह युद्ध धर्म युद्ध कहलाएगा। क्योंकि ऐसा करने से तू अपने लिए कुछ नहीं कर रहा होगा बल्कि दुनिया के लोगों के लिए काम कर रहा होगा।’
अपने लिए कुछ ना करके दुनिया के लोगों के लिए काम करना और उसमें भी किसी प्रकार का अहंकार पैदा ना करना ही निष्काम कर्म है। इसे बड़े सरल शब्दों में परंतु गहरे ज्ञान के साथ श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को युद्ध के मैदान में समझाया। उसे बताया कि तू जो कुछ भी कर रहा है उसे भगवान के लिए, भगवान के आदेश से, भगवान के द्वारा किया गया कर्म समझ कर कर । उसमें अपनी ओर से यह भाव पैदा मत कर कि इसे मैं कर रहा हूं। यदि तू इसमें अहंकार का भाव पैदा करेगा तो तेरा शुभ कर्म भी अशुभ हो जाएगा। तू अपने किए हुए कर्म को भगवान को समर्पित कर और अच्छे लोगों की भलाई के लिए जीवन यापन करने का संकल्प ले।
कृष्ण जी ने अर्जुन को बताया कि संसार में रहकर हमें शुभ कर्म करते रहने का संकल्प लेना चाहिए ।शुभ कर्मों के संकल्प लेने से जीवन अच्छा बनता है । संसार में हम अच्छाई को फैलाने के लिए आए हैं ना कि बुराई फैलाने के लिए। उन्होंने कहा कि अर्जुन जो कुछ भी तू करता है उसे भगवान को समर्पित करता चल। इससे तू जीवनमुक्त का आनंद अनुभव करेगा और अपने को बहुत हल्का भी अनुभव करेगा। क्योंकि जो भगवान को समर्पित होकर काम करते जाते हैं वह अहंकार के भाव से मुक्त हो जाते हैं। तब भगवान उनकी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। समझो कि भगवान उनके प्रत्येक अच्छे संकल्प और अच्छे विचार को समझ कर उसके लिए मार्ग प्रशस्त करने का कार्य करने लगते हैं। वास्तव में ऐसा जीवन प्रभु की कृपा का साक्षात प्रतिबिंब होता है।
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा कि कर्म करना ही तेरे अधिकार में है। फल पर तेरा अधिकार नहीं है। क्योंकि किसी भी कर्म का फल देना ईश्वर के अधीन है ।इसलिए तू कर्म के फल की आसक्ति को छोड़कर केवल अपने कर्म पर ध्यान दे। यदि कर्म को पवित्र बना कर करेगा अर्थात अपना चित्त शुभ कर्मों में लगाएगा तो भगवान तेरी सहायता अवश्य करेंगे। जिसका तुझे अच्छा परिणाम भी मिलेगा। जो मनुष्य कर्म के फल पर भी अपना अधिकार मानकर कार्य करते हैं उन्हें जीवन में कभी भी सुख नहीं प्राप्त होता।
कर्म के फल पर भगवान का अधिकार होने से जो व्यक्ति फल पर अपना अधिकार मान लेता है, वह अज्ञानी होता है। क्योंकि जो काम उसके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं है, वह उस पर अपना अधिकार मानने की मूर्खता करता है। जो काम भगवान को करना है उसे भगवान ही कर सकता है। उन्होंने कहा कि अर्जुन तू अज्ञानी या मूर्ख नहीं है । इसलिए कर्म के फल पर अपनी आसक्ति छोड़कर लोक कल्याण के लिए काम करने की अपनी खानदानी परंपरा का निर्वाह कर। अपनी प्रजा का भला करना राजा का धर्म है । जिसे तेरे खानदान के लोग अब तक करते चले आए हैं। इस समय तेरी प्रजा का भला इसमें है कि धरती पर जितने राक्षस लोग पैदा हो गए हैं उन सब का अंत हो। यदि तेरे सामने दुर्योधन जैसे लोग इस समय राक्षस के रूप में खड़े हैं तो इनका अंत कर । जिससे जनता तेरा गुणगान करेगी। यही तेरा धर्म है। इस समय अपने धर्म को पहचान कर उसके अनुसार काम करने की सोच, अन्यथा तुझे इतिहास में आने वाले समय के लोग कायर कहेंगे।
हमारे सामने जो भी स्थिति परिस्थिति एक चुनौती के रूप में खड़ी है, उससे हम निपटने के लिए काम करें । यदि हमारे सामने परीक्षा में उत्तीर्ण होना और अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण होना एक स्थिति परिस्थिति उपस्थित है तो हम उसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करें । उसे मुंह नहीं फेरें। अपने काम को मनोयोग से करें। भगवान को ध्यान रखते हुए करें। जो कुछ भी कर रहे हैं उसे भगवान को समर्पित करते चलें। यदि हम ऐसा करेंगे तो निश्चित रूप से हमें परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त होंगे।
गीता का हमारे लिए यह भी संदेश है कि हम किसी भी स्थिति में निराश उदास , हताश ना हों। हताशा, निराशा और उदासिंयों को जीवन से निकाल दें । उत्साह, उमंग और उल्लास के साथ जीवन को जीने के लिए समर्पित होकर हर स्थिति परिस्थिति में अपने साथ भगवान को खड़ा समझते रहें। यह आभास करते रहें कि भगवान सदा हमारे साथ हैं और हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहे हैं।
ऐसा भाव अपनाने से हम भगवान के सर्व व्यापक स्वरूप के उपासक बनते हैं हमें ऐसा लगता है कि भगवान हमारी हर गतिविधि को देख रहे हैं । जब भगवान हमें हर पल देखते हैं, हमारे हर काम को देखते हैं तो हम बुरे कामों से बचने का प्रयास करेंगे । जब बुरे काम से बचेंगे तो जीवन में अच्छे कामों को करने की प्रेरणा भीतर से मिलेगी । जिससे जीवन में सुख और शांति स्थायी रूप से हमारे साथ रहेगी।
हम अपने आपको एक अर्जुन के रूप में देखें । जो युद्ध क्षेत्र में खड़ा है और जिसके साथ कृष्ण जी खड़े हैं। जो उसे समझा रहे हैं कि अर्जुन ! उदास मत हो । निराश मत हो। हताश मत हो। संघर्ष कर। खड़ा हो जा। हथियार उठा ले और जो भी तेरे सामने शत्रु खड़े हैं उन्हें मार गिरा। युद्ध में विजयी हो । अपने लक्ष्य को प्राप्त कर । इसका मतलब है कि हम अपने छात्र जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा या परीक्षा से घबराएं या भागें नहीं बल्कि उसका पूरी बहादुरी से सामना करें।
हमारा वैदिक धर्म हमें अपने भगवान से जोड़ता है। अपने वेदों से और उन धर्म शास्त्रों से जोड़ता है जो हमें अच्छा मानव बनने की शिक्षा देते हैं । हमारा धर्म हमें मानव को मानव से जोड़ने का माध्यम है। वैदिक सनातन धर्म तो हर प्राणी के साथ जुड़कर रहने की शिक्षा देता है । इसलिए किसी के भी प्राणों को लेने का मानव को अधिकार नहीं है। यही कारण है कि गीता और वैदिक धर्म ग्रंथ हमें सभी प्राणियों के साथ मिलकर रहने की शिक्षा देते हैं।
भारत के वैदिक धर्म में धर्म, अर्थ ,काम और मोक्ष की बात कही गई है । अच्छे मानव के लिए इन चारों को अपनाकर जीवन को ऊंचाइयों तक पहुंचाना बताया व समझाया गया है। इस मार्ग पर चलने से मनुष्य को आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है । वह संसार में किसी भी प्रकार के कलह – क्लेश से दूर रहता है और सबको अपना भाई – बंधु समझ कर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है। सब में समभाव बरतकर अपने जैसा मानना ही गीता का समत्व योग है। जिसके अनुसार गीता ईर्ष्या -द्वेष की बातें न सिखाकर सबको हर स्थिति परिस्थिति में सम रहने की शिक्षा देती है।
गीता की शिक्षा है कि सुख-दुख, यश – अपयश, हानि – लाभ प्रत्येक प्रकार की स्थिति में सम रहो। समान भाव बरतो। दुख में कराहो नहीं और सुख में सराहो नहीं – यह गीता का संक्षिप्त सार है । जो व्यक्ति इन दो बातों को मानकर चलता है वह जीवन में सुखी रहता है। जैसे सूर्य उदय होते समय भी लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है , वैसे ही सुख हो या दुख हो मनुष्य को एक जैसा रहना चाहिए। इससे जहां हमारा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है वही शरीर भी स्वस्थ अनुभव करता है। हम संसार के लोगों से भी सहज व्यवहार करने में सफल होते होते हैं । फलस्वरुप समाज का परिवेश भी अच्छा बना रहता है। क्योंकि उसमें कोई भी व्यक्ति किसी से गलत भाषा का प्रयोग तक नहीं करता। इसलिए गीता संसार के सामाजिक व्यवहार के लिए भी बहुत उपयोगी ग्रंथ है।
हमारे ऋषियों ने मानव के जीवन में योग को बहुत महत्वपूर्ण स्थान दिया है। योग से सर्वव्यापक परमपिता परमेश्वर के दर्शन होते हैं। आत्मा परमात्मा का मिलन होता है इसीलिए उसे योग कहते हैं। ऋषि पतंजलि ने यम ,नियम, आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार, ध्यान ,धारणा और समाधि नामक अष्टांगयोग का निर्धारण हमारे लिए किया है। जिसको अपनाकर हम मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। संसार में हमारा आना यहां के प्राकृतिक सौंदर्य में रम जाने के लिए नहीं है , बल्कि इससे बाहर निकल कर मोक्ष की प्राप्ति के लिए है। जिसके लिए अष्टांग योग का सधा सधाया मार्ग हमें बताया गया है। यदि इस मार्ग पर हम चलने के अभ्यासी हो जाते हैं तो जीवन बहुत ही पवित्र हो जाता है । चित्त की निर्मलता हमें भगवान से मिलने में सहायता देती है। जिसका परिणाम यह होता है कि हम भवसागर को करने की शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अनेकों विभूतियों का वर्णन किया है। विभूति शब्द को सरल शब्दों में हम भगवान की विशेष या विलक्षण शक्ति कह सकते हैं । भगवान हमें नदियों के रूप में, पर्वतों के रूप में , पवित्र पीपल वृक्ष के रूप में , तुलसी नामक वनस्पति के रूप में जब लोगों का उपकार करते हुए दिखाई देता है तो मानो यह उसकी विलक्षण शक्तियां हैं। उसकी विभूतियां है। इन्हें देखकर भगवान के सर्व व्यापक और कल्याणकारी शिव स्वरूप की कल्पना की जा सकती है कि जब उसकी बनाई हुई यह चीजें इतना उपकार कर सकती हैं तो वह स्वयं कितना बड़ा उपकारी होगा ?
इस प्रकार हमें अपने पवित्र ग्रंथ गीता के साथ जुड़ना चाहिए। जो हमें जीवन में पवित्र करने, पवित्र बनने और पवित्र होने की शिक्षा देती है । इसके अध्ययन से हमारे जीवन में उत्साह, उमंग और उल्लास का वातावरण बनता है। हम अपनी वैदिक संस्कृति के प्रति निष्ठावान होकर काम करने की शिक्षा लेते हैं। हमें पता चलता है कि संसार की आसुरी शक्तियों को खत्म करने के लिए संसार में हम आर्य लोग अर्थात भारत के वैदिक धर्म ही लोग ही आए हैं। भगवान ने धरती आर्यों को दी है और सारे संसार को आर्य अर्थात श्रेष्ठ अर्थात अच्छा बनाने के लिए हम वैदिक धर्म के लोगों को विशेष रूप से संसार में भेजा है। जिसके लिए हमें काम करना चाहिए। सारी वसुधा को अपना परिवार मानकर काम करने की शिक्षा भी हमें गीता और अपने वेदों से प्राप्त होती है।
बच्चों अंत में मैं तुमसे यही कहना चाहूंगा कि अपने पूर्वजों के सम्मान के लिए उनके द्वारा दी गई परंपराओं को हम त्यागें नहीं । अपनी शुद्ध वैदिक परंपराओं को अपनाएं। जीवन में वेद , उपनिषद आदि उन अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करें जो हमें अच्छा बनने की शिक्षा देते हैं। अपने भगवान और उसके निज नाम ओ३म का जाप करते रहें। भगवान के ओ३म नाम के जप से हमारी आत्मिक उन्नति होती है। यज्ञ आदि से जुड़ें। गीता ने भी यज्ञ जैसे सात्विक कर्मों को करने की शिक्षा हमें दी है। जब हम यज्ञ हवन से जुड़ेंगे तो घर का वातावरण बहुत अच्छा होता है। जो हमारे संस्कारों को और भी अच्छा बनाने में सहायक होता है।
अपने माता- पिता’ गुरु आदि का सम्मान करें । यज्ञ की भावना है कि संसार के लोगों के साथ मिलकर चलें । बड़ों का सम्मान करें। छोटों को प्यार दें । इससे पारिवारिक, सामाजिक और वैश्विक परिवेश सुधरता और अच्छा बनता है।
आशा है आपने मेरी बात को ध्यान से पढ़ा होगा । मैं यह भी मानता हूं कि आप गीता सहित अपने सभी पवित्र आर्षग्रंथों के साथ जुडोगे और उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करोगे । आपके अच्छे भविष्य की शुभकामनाओं के साथ —
भवदीय
डॉ राकेश कुमार आर्य
महर्षि दयानंद स्ट्रीट,
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गोल्फ लिंक -2
तिलपता चौक ग्रेटर नोएडा
जनपद -गौतमबुध नगर
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