“सृष्टिकर्ता और पालक ईश्वर कहां रहता है और क्या करता है?”
ओ३म्
ईश्वर और उसके अन्य सभी गुण, कर्म और सम्बन्ध वाचक नाम वेदों से संसार में प्रसिद्ध हुए हैं। वेद, सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की अमैथुनी सृष्टि के साथ परमात्मा की ओर से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा के माध्यम से प्राप्त हुए ज्ञान व उसकी पुस्तकें हैं। इस सृष्टि को ईश्वर ने ही उत्पन्न किया है और सृष्टि की आदि में इन चार ऋषियों सहित सभी चराचर जगत को भी उसी ने उत्पन्न किया है। वही इस सृष्टि का अपनी सर्वशक्तिमतता व सर्वज्ञता सहित सर्वव्यापकता एवं अन्य अनन्त गुणों के द्वारा संचालन कर रहा है। ईश्वर सर्वान्तर्यामी भी है। अतः उसने उपर्युक्त चार ऋषियों को एक एक वेद का ज्ञान उनकी आत्माओं में प्रेरणा करके प्रदान व स्थापित किया था। इन ऋषियों ने ही सृष्टि के अन्य ऋषि तुल्य मनुष्य ब्रह्मा जी और अन्य मनुष्यों को अध्ययन कराने सहित वेदों की शिक्षाओं से परिचित कराया था। यदि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति (सृष्टि उत्पत्ति का सत्व, रज व तम गुणों से युक्त सूक्ष्म अनादि कारण जो कि जड़ता के गुण से युक्त है) तथा आकाश, काल आदि अनादि काल से विद्यमान न होते तो न तो हमारी सृष्टि का अस्तित्व होता, न हमारा और न ही ईश्वर का। यह ईश्वर, जीवन तथा प्रकृति तीनों सत्तायें अनादि हैं। आकाश व काल भी अनादि हैं। आकाश व काल का पदार्थरूप में अस्तित्व नहीं है। ईश्वर का सृष्टि रचने व उसे संचालित करने का ज्ञान व शक्ति भी अनादि है। इसी से हमारा यह ब्रह्माण्ड व इसकी सभी रचनायें अस्तित्व में आयीं हैं।
ईश्वर कहां रहता है और क्या करता है? इसे समझने के लिए हमें ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को संक्षेप में जानना होगा। वेदों के उच्च कोटि के ऋषि वा विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने आर्यसमाज के दस नियम बनायें हैं। इसमें दूसरा नियम वेदों के सर्वथा अनुकूल बनाया है जिसमें कहा गया है कि ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। इस नियम में ईश्वर के कुछ मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव सम्मिलित हैं। यह सभी गुण इस सृष्टि में कार्यरत नियमों के आधार पर सत्य सिद्ध होते हैं। ईश्वर का एक गुण उसका सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होना है। इसका अर्थ है कि ईश्वर इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्यापक अर्थात् विद्यमान है। वह आकाश से भी सूक्ष्म एवं आकाश के समान ही सर्व व्यापक है। इसका अर्थ है ईश्वर इस अनन्त ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विद्यमान है अर्थात् निवास कर रहा है। अनन्त ब्रह्माण्ड में ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जहां ईश्वर समान रूप से विद्यमान व व्यापक न हो। सर्वत्र व्यापक होने के कारण ही वह इस सृष्टि को बना पाता है व इसका संचालन कर पाता है। यदि वह सर्वत्र विद्यमान वा सर्वव्यापक न होता तो यह सृष्टि बननी व अस्तित्व में आनी असम्भव थी।
ईश्वर की सर्वव्यापकता से ही यह सम्भव हुआ है कि यह सृष्टि बन सकी है। अतः ईश्वर इस सृष्टि में सर्वत्र अर्थात् प्रत्येक स्थान पर समान रूप से विद्यमान है। इसके समस्त गुण भी सर्वत्र अखण्ड व एक-रसता से उसमें विद्यमान है। ईश्वर प्रकाशस्वरूप है। उसे कोई अपौरुषेय रचना व कार्य करने के लिए सूर्य या प्रकाश आदि किसी साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। वह पृथिवी के भीतर व माता के गर्भ में भी, जहां गहन अन्धकार है, सन्तान व उसके सभी अंग-प्रत्यंगों सहित मनुष्य आदि प्राणियों के शरीरों की रचना करता है। अतः ईश्वर का ब्रह्माण्ड के सभी स्थानों पर उपस्थित, विद्यमान होना सिद्ध है। इससे यह भी खण्डन हो जाता है कि ईश्वर किसी स्थान विशेष यथा क्षीर-सागर, चैथे आसमान व सातवें आसमान पर रहता है। वेदों व ऋषियों ने ईश्वर को सर्वान्तयामी बताया है। गीता में भी कहा है कि ईश्वर सब प्राणियों के हृदयों में विद्यमान है। यह वस्तुतः सत्य है जिसका विश्वास वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित चिन्तन व मनन करने पर सभी मनुष्यों को हो जाता व हो सकता है। अतः ईश्वर कहां रहता है, प्रश्न का उत्तर है कि ईश्वर संसार में सब जगह वा स्थानों पर विद्यमान है। उसे प्राप्त करने के लिए हमें उसे अपने हृदय व आत्मा के भीतर ही खोजना है। वहीं वह प्राप्त होगा। उसे ढूंढने के लिए किसी तीर्थ व प्रसिद्ध स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं है।
हमें योगदर्शन का अध्ययन कर उसके अनुसार यम व नियमों का पालन करते हुए धारणा, ध्यान व समाधि को सिद्ध करना चाहिये। ऐसा करने पर हम ईश्वर का अपनी आत्मा में साक्षात्कार व प्रत्यक्ष कर सकेंगे। समाधि अवस्था में साधक व उपासक को ईश्वर का साक्षात्कार होता है। उपासक वेद के शब्दों में कह उठता है कि उसने ईश्वर का जान लिया व प्रत्यक्ष कर लिया है। वह ईश्वर महान है, वह आदित्य वर्ण वाला तथा अन्धकार व अज्ञान से सर्वथा रहित है। वह पूर्ण ज्ञान से युक्त सर्वज्ञ है। उस ईश्वर को जानकर ही मनुष्य मृत्यु को पार कर ईश्वर के सान्ध्यिय व आनन्द से युक्त मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इससे भिन्न ईश्वर को प्राप्त करने, मोक्ष प्राप्त करने व मृत्यु से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अतः ईश्वर सभी जगहों पर विद्यमान है। उपासना द्वारा उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। साक्षात्कार होने पर ही मनुष्य जन्म व मृत्यु के आवागमन से छूटता तथा ईश्वर के आनन्द व सान्निध्य को मोक्षावधि 31 नील 10 खरब वर्षों से अधिक कालावधि के लिए प्राप्त होता है।
ईश्वर क्या करता है, इसे भी हम संक्षेप रूप में जान लेते हैं। ईश्वर सक्रिय रहने वाली सत्ता है। वह निष्क्रिय सत्ताओं के समान सत्ता व पदार्थ नहीं है। वह अपनी अनादि व नित्य प्रजा जीव, जो कि अनन्त संख्या में हैं, को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार सुख व दुःख रूपी फल प्रदान करती है। इसके लिए वह सृष्टि की रचना कर उन्हें वेदों का ज्ञान देती है जिसमें मनुष्यों के करणीय एवं अकरणीय कर्तव्यों का ज्ञान है। जीवात्मा वा मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेकर अपने पूर्वजन्मों का फल भोगते हैं। मनुष्य योनि ही उभय योनि अर्थात् कर्म एवं फल भोग योनि है। मनुष्य योनि में मनुष्यों को कर्म करने की स्वतन्त्रता भी है और साथ ही उन्हें अपने पूर्व कर्मों जिसमें इस जन्म सहित पूर्व जन्मों के कर्म भी सम्मिलित हैं, सुख व दुःख रूप में भोगने होते हैं। मनुष्य का किया हुआ कोई भी कर्म बिना भोगे क्षय व नाश को प्राप्त नहीं होता है। अतः हम सबको कभी भी कोई अशुभ वा पाप कर्म नहीं करना चाहिये। यदि करेंगे तो इस जन्म व बाद के जन्मों में अवश्यमेव भोगने होंगे। मनुष्यों से इतर अन्य सभी प्राणी योनियां केवल भोग योनियां होती हैं जहां जीव मनुष्य योनि में किये गये अपने पाप कर्मों का फल भोगते हैं। यह पशु, पक्षी आदि प्राणी भी पूर्वजन्मों में मनुष्य रहे थे परन्तु अधिक पाप कर्मों के कारण परमात्मा ने इनको फल भोगने के लिए इस जन्म में पशु व पक्षी आदि बनाया है। भोग समाप्त होने पर मनुष्येतर जीवों का पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। वेदों का यह ज्ञान सत्य है। इस ज्ञान का विश्लेषण व विवेचन ‘दर्शन’ के ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वहां ईश्वर के कार्यों अर्थात् सृष्टि की रचना व कर्म-फल सिद्धान्त वा व्यवस्था आदि को युक्ति व तर्कों से सिद्ध किया गया है।
हमारा कर्तव्य है कि हम वेद, दर्शन एवं उपनिषद आदि ग्रन्थों का तर्क व विवेक बुद्धि से अध्ययन करें। ऐसा करके हम ईश्वर के प्रकाशस्वरूप, सुखस्वरूप, दुःखनिवारक स्वरूप, मोक्षदाता स्वरूप तथा हर क्षण जीवों के साथ रहने वाला, उन्हें सद्कर्मों की प्रेरणा देने वाले आदि नाना स्वरूपों वा कार्यों को जान सकते हैं और अपने जीवन को सफल बनाते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। यदि हमने मनुष्य जन्म लेकर ईश्वर को जानने व उसे प्राप्त करने सहित परोपकार आदि कर्म नहीं किये तो हमारा मनुष्य जन्म लेना व्यर्थ सिद्ध होता है। इस जन्म में मृत्यु के बाद हमारा पुनः जन्म होगा, परन्तु हमें शायद मनुष्य योनि प्राप्त न हो। हम अगले जन्म में मनुष्य बने और हमें वहां भी सुख व आनन्द की प्राप्ति हो, हम मोक्ष प्राप्ति के लिए साधना व तप कर सकें, इसके लिये हमें वेद एवं वैदिक साहित्य की शरण में जाना होगा। हमें वेदों में प्रवेश करने के लिए ऋषि दयानन्द कृत ‘‘सत्यार्थप्रकाश” ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हम सृष्टि व ईश्वर विषयक अन्य रहस्यों को जान सकेंगे और अपने इस जन्म तथा परजन्मों का सुधार व उन्नति कर सकेंगे। ईश्वर क्या करता है, इसका हमने संक्षेप में उत्तर दिया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस उत्तर से सन्तुष्ट होंगे और सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर लेख के विषय संबंधी प्रश्नों व आशंकाओं को दूर करेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य