कांग्रेसी मानसिकता के विचारकों की मान्यता रही है कि ‘हिन्दू राष्ट्र’ की कल्पना हिंदूवादी संगठनों की सोच है। इसके लिए वह अपने अल्पज्ञान के दोष के कारण हिंदू महासभा या आर.एस.एस. को विशेष दोष देते हैं। जबकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि राष्ट्रीय पटल पर हिंदू महासभा की स्थापना 1915 ई. में हुई तथा आर.एस.एस. की स्थापना 1924 ई. में हुई थी। इन दोनों संगठनों से पूर्व 3 फरवरी 1884 को लाहौर में ‘इंडियन एसोसिएशन’ के अभिनंदन का उत्तर देते हुए सर सैय्यद अहमद खां ने जो कुछ कहा था वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ का विचार कितने पहले से चला आ रहा था? उन्होंने कहा था-”सामान्यत: हम राष्ट्र शब्द को हिंदुओं और मुसलमानों से संबद्घ करते हैं। मेरे विचार में राष्ट्र की संकल्पना को किसी की धार्मिक मान्यता से नही जोडऩा चाहिए, क्योंकि हम सब चाहे हिंदू हों चाहे मुसलमान इस धरती पर पले हैं, श्रम और समृद्घि में समान रूप से साझीदार हैं और समान अधिकार भोगते हैं, यही इस बात का आधार है कि हिंदुस्थान के ये दोनों वर्ग ‘हिंदू राष्ट’्र के समान नाम के झण्डे तले आ जाएं। सभी वर्ग चाहे वे मुस्लिम हों या ईसाई हिंदू हैं। अत: मुझे खेद है कि जहां आपने अपने लिए ‘हिंद’ू शब्द का प्रयोग किया है वहां आपने मुझे हिंदू नही कहा है।”
अब पंकज श्रीवास्तव जैसे लेखकों की समस्या ये है कि यदि कोई ‘कल्याणसिंह’ देश के सभी लोगों को सर सैय्यद अहमद खां की बात को आगे बढ़ाते हुए ‘हिंदू’ कह दे, तो इनकी धर्मनिरपेक्षता तुरंत खतरे में पड़ जाती है। इन लोगों की इसी मानसिकता के कारण हमारी साम्प्रदायिक और जातिवादी पहचान समाप्त नही हो पायी। जबकि संविधान की मूल धारणा हमें किसी ‘एक पहचान’ में विलीन करने की है।
यदि ‘अधिनायक’ शब्द को हटाने की बात कल्याण सिंह कर रहे हैं तो इन श्रीमानों को कष्ट हो रहा है और यदि इसी बात को फारूख अब्दुल्ला कह दे तो संभव है कि ‘अधिनायक’ को हटाने की भी तैयारी आरंभ हो जाए।
कांग्रेस का इतिहास डा. पट्टाभिसीतारमैय्या ने लिखा है। वह कांग्रेस के प्रमाणिक लेखक हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ के प्रथम खण्ड के 49वें पृष्ठ पर लिखा है-”1901 में महारानी विक्टोरिया की मृत्यु और 1910 ई. में सम्राट एडवर्ड की मृत्यु पर कांग्रेस को अपनी ‘राजभक्ति’ फिर प्रकट करने का अवसर मिला।”
इस ‘चारणगीत’ गायन की परंपरा का उल्लेख करते हुए डा. पट्टाभिसीतारमैय्या पृष्ठ 59 पर पुन: कहते हैं-”पुराने जमाने में कांग्रेसी लोगों को अपनी राजभक्ति की परेड दिखाने का शौक था। 1914 में जब लॉर्ड पैण्टलैण्ड (गवर्नर) मद्रास में कांग्रेस के पंडाल में आये तो सब लोग उठ खड़े हुए और तालियों से उनका स्वागत किया। यहां तक कि ए.पी.पेट्रो जो कि उस समय पर एक प्रस्ताव पर बोल रहे थे, एकाएक रोक दिये गये और उनकी जगह सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को ‘राजभक्ति’ का प्रस्ताव उपस्थित करने के लिए कहा गया, जिसे कि उन्होंने अपनी समृद्घभाषा में प्रस्तुत किया।
ऐसी ही घटना लखनऊ कांग्रेस 1916 के समय भी हुई थी, जबकि सर जेम्स मेंस्टन कांग्रेस में आये थे और उपस्थित लोगों ने खड़े होकर अपने उस ‘अधिनायक’ के प्रति ‘राजभक्ति’ प्रदर्शित करते हुए उनका स्वागत किया था।
डा. पट्टाभिसीतारमैय्या आगे पृष्ठ 68 पर लिखते हैं-”वर्तमान (1914 ई.) आपत्ति के समय हिंदुस्थान के लोगों ने जिस उत्कृष्ट राजभक्ति का परिचय दिया है, उसे देखते हुए यह कांग्रेस सरकार से प्रार्थना करती है कि वह इस ‘राजभक्ति’ को और भी गहरी व स्थिर बना लें, और उसे साम्राज्य की एक कीमती संपत्ति बना लें।”
कहने का अभिप्राय यह है कि पंकज श्रीवास्तव जैसे लोग इतिहास के तथ्यों को झुठलाने का प्रयास न करें। इतिहास (वह भी कांग्रेसियों का लिखा हुआ) स्पष्ट कर रहा है कि कांग्रेस अपने ‘अधिनायकों’ के प्रति ‘राजभक्ति’ प्रदर्शित करने की आदी रही है। इसलिए कांग्रेसियों ने 27 दिसंबर 1911 को सम्राट के लिए सर्वप्रथम ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हे’ ही गाया था। उसके बाद उसने ‘बादशाह हमारा’ नामक गीत गाया। इतना ही नही आगे चलकर हर सम्मेलन में जन-गण-मन को गाने की परंपरा कांग्रेस ने डाल ली थी। पुराना संस्कार कांग्रेस का देर तक पीछा करता रहा और जब उसने 1929-30 में आकर पूर्ण स्वाधीनता की मांग अंग्रेजों से की तो उस समय भी उसने ‘जन-गण-मन’ को नही छोड़ा। अपने ‘अधिनायकों’ का कीर्तिगान वह तब भी गाती रही। इसका अभिप्राय है कि 1929-30 तक ‘राजभक्ति’ में लीन रही कांग्रेस के लिए देश के बलिदान व्यर्थ थे, क्योंकि वह उन्हें अपने ‘अधिनायक’ के चश्मे से ही देखती थी। इस अंधानुकरण का और ‘अधिनायक’ की चरणवंदना का परिणाम यह निकला कि क्रांतिकारी आंदोलन पूर्णत: इतिहास से मिटा दिया गया। इसी पीड़ा को हृदय से अनुभव कर एक बुजुर्ग राजनेता राजस्थान के राजभवन में बैठकर चिंतन करता है कि राष्ट्रगान से ‘अधिनायक’ को हटाया जाए और वह स्वयं के लिए ‘महामहिम’ कहलाना बंद कर देता है।