रामचंद्र जी के विषय में जानबूझकर यह भ्रांति फैलाने का प्रयास किया गया कि वह एक काल्पनिक ग्रन्थ के काल्पनिक पात्र हैं । ऐसी मान्यता रखने वाले लोगों का कहना है कि रामायण भी अपने आप में एक काल्पनिक महाकाव्य है। जिसे किसी उपन्यास से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। ऐसा भ्रान्तिपूर्ण प्रचार इसलिए किया गया जिससे कि हम भारतवासियों को अपने गौरवमयी प्राचीन काल खंड से काटा जा सके और हम विदेशी शासकों और विद्वानों के चाटुकार बनकर रह जाएं।
श्री राम और उनके पूर्वजों के बारे में हमें रामायण से अलग भी इतिहास उपलब्ध होता है। विद्वानों ने उनके पूर्वजों की वंशावली को खोजने का प्रयास किया है। यद्यपि हम इस वंशावली को पूर्णतया उचित नहीं मानते, क्योंकि श्री राम के पूर्वजों की यह वंशावली बहुत लंबी है, जिसे 10 – 20 पीढ़ियों में नहीं समाप्त किया सकता। परंतु फिर भी हमें इस वंशावली से इतना तो पता चलता ही है कि श्रीराम से पहले उनके सूर्यवंश में एक से बढ़कर एक महान शासक सम्राट पैदा हुए हैं । इसीलिए सूर्यवंश की इस वंशावली को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
श्रीराम इक्ष्वाकु वंश के थे और इस वंश के गुरु वशिष्ठ जी थे। भगवान श्री राम की वंशावली बहुत ही व्यापक और प्रभावशाली रही है। ब्रह्मा जी से मरीचि का जन्म हुआ था और मरीचि के पुत्र कश्यप थे। कश्यप के पुत्र विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुए और इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि थे। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण हुए और बाण के पुत्र अनरण्य। अनरण्य से पृथु हुए और पृथु से त्रिशंकु पैदा हुए। त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार और धुन्धुमार के पुत्र युवनाश्व हुए। युवनाश्व से उनके पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि पैदा हुए।
सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत और भरत के पुत्र असित हुए। असित के पुत्र सगर और सगर के पुत्र असमञ्ज पैदा हुए। असमञ्ज के पुत्र अंशुमान और अंशुमान के पुत्र दिलीप जन्म लिए। दिलीप के पुत्र भगीरथ और भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ हुए। ककुत्स्थ के पुत्र रघु पैदा हुए और रघु और रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन जन्म लिए। वहीं सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण और अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग का जन्म हुआ। शीघ्रग के पुत्र मरु हुए और मरु के पुत्र प्रशुश्रुक हुए। प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीश पैदा हुए और अम्बरीश के पुत्र नहुष हुए। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र अज और अज के पुत्र हुए राजा दशरथ। राजा दशरथ के चार पुत्र हुए श्री रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न। भगवान श्री रामचंद्र के दो पुत्र लव और कुश हुए।
श्री रामचंद्र जी की महानता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य प्रेमभिक्षु वानप्रस्थ जी ‘शुद्ध रामायण’ – भाग 2, के पृष्ठ 451 पर लिखते हैं कि -“जैसे एक कैंडल पावर की बत्ती 5 केंडल वाली बत्ती से , 5 कंडल वाली से 10 कंडल पावर वाली श्रेष्ठ , 10 कंडल पावर वाली से 100 केंडल पावर वाली और 10 केंडल वाली पावर से 1000 केंडल पावर वाली बत्ती श्रेष्ठ होती है ,इस तरह हर एक बत्ती क्रम से श्रेष्ठ मानी जाती है.। उसी प्रकार मनुष्य मात्र के शरीर यद्यपि समानाकृति के होते हैं, उनके घटक द्रव्य रक्त, मांस, अस्थि ,चर्म इत्यादि सब समान होते हैं। प्रत्येक शरीर में आत्मा का चैतन्यांश विद्यमान है, तथापि वह चैतनयाँश व्यक्ति मात्र के पूर्व सुकृतानुसार न्यून वा अधिक प्रमाण में होता है और उसी प्रमाण में उस व्यक्ति को श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मिलता है। …….. इसी न्याय से श्रेष्ठ मनुष्य के सम्मुख कनिष्ठ मनुष्य का प्रभाव फीका पड़ जाता है । राजा के सम्मुख सर्वसाधारण लोग नम्र हो जाते हैं तथा उसे सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । इसका कारण यही है कि सर्व साधारण लोगों की अपेक्षा राजा में तैजस अंश का प्रमाण अधिक ही होता है। सम्राट को राजा से श्रेष्ठ मानते हैं और सार्वभौम राजा सम्राट से भी श्रेष्ठ होता है। फिर ऐसे शतावधि सार्वभौम राजाओं से भी अनंतगुणित श्रेष्ठत्व जिनमें पाया जाता है उन श्री रामचंद्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम या श्रेष्ठतम लिया जाए तो यह युक्ति युक्ति ही होगा। स्पष्ट है कि मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो उसके लिए श्री रामचंद्र जी होना असाध्य नहीं है।”
किसी श्रेष्ठतम या कनिष्ठतम व्यक्ति के मूल्यांकन की यही परंपरा व्यवहार में अपनाई जाती है। इसी के चलते अपने समकालीन सभी राजवंशी लोगों में रामचंद्र जी श्रेष्ठतम दिखाई देते हैं । इतना ही नहीं उनके बाद की पीढ़ियों में भी वह अपनी श्रेष्ठता को यथावत बनाए रखने में सफल रहे हैं। इसीलिए उनको हमने भगवान की उपाधि से सम्मानित किया।
रामचंद्र जी की महानता पर विचार करते हुए पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने कहा है कि वह आत्मवान, नियतात्मा, अदीनात्मा थे। इन तीनों शब्दों को स्पष्ट करते हुए श्री सातवलेकर जी ने कहा है कि ‘आत्मवान’ वह होता है जो आत्मिक बल से युक्त होता है अर्थात जिसने अपना अंतःकरण अपने वश में किया है। नियतात्मा शब्द की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि जिसने अपना अंत:करण अपने अधीन किया है, । ‘अदीनात्मा’ के बारे में वह बताते हैं कि असाधारण क्षात्र तेज से दीनतारहित अत्यंत कष्टदायक प्रसंग उपस्थित होने पर भी जिसके अंत:करण में भीति उत्पन्न नहीं होती, चंचलता नहीं होती, अथवा क्षोभ नहीं होता।”
रामचंद्र जी के भीतर ये तीनों गुण हमें मिलते हैं। वह किसी भी संकट में तनिक भी घबराए नहीं। भीतिरहित होकर उन्होंने प्रत्येक संकट का सामना किया। प्राणिमात्र के प्रति समर्पित होकर उन्होंने भारत के जिस सांस्कृतिक मानवतावादी राष्ट्रवाद की प्राचीन काल में स्थापना की ,वह उनका भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक क्षेत्र में ऐसा महान योगदान है जिसकी तुलना किसी अन्य से नहीं की जा सकती। रामचंद्र जी ने अनेकों अवसरों पर यह सिद्ध किया कि वह संयमी, नीतिवान, धर्मज्ञ हैं।
संयम ,नीतिमत्ता और धर्मज्ञता को उन्होंने प्रत्येक पल और जीवन के प्रत्येक मोड़ पर अपनाने का सराहनीय प्रयास किया है। उनकी मर्यादा कहीं पर भी पथभ्रष्ट होती हुई दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि ऋषि दयानन्द जैसे लोगों ने भी उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर सम्मान दिया है।
पुरुषोत्तम श्री राम जी महान गुणों की खान।
आन बान हैं देश की और हम सबकी शान ।।
अनिरुद्ध जोशी हमें बताते हैं कि प्रभु श्रीराम पर वैसे तो कई ग्रंथ लिखे गए लेकिन वाल्मीकि कृत रामायण ही प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। यह मूल संस्कृत में लिखा गया ग्रंथ है। तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आदि भारतीय भाषाओं में प्राचीनकाल में ही रामायण लिखी गई। मुगलकाल में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधि भाषा में ‘रामचरित मानस’ लिखी जो कि हिन्दीभाषा और उससे जुड़े राज्यों में प्रचलित है। विदेशी में कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), मलयेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रचलीत है। इसके अलावा भी अन्य कई देशों में वहां की भाषा में रामायण लिखी गई है।
देश विदेश में मिलने वाले साहित्य में इतनी प्रचुर मात्रा में यदि राम पर लिखा गया है तो यह मानना पड़ेगा कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित व्यक्तियों की संख्या आज भी संसार में करोड़ों में है।
रामचंद्र जी महाराज सज्जनों की संगति प्राप्त करने में ही आनंद की अनुभूति करते थे। दुर्जनों को उन्होंने कभी अपने पास फटकने तक नहीं दिया। उनकी ऐसी विचारधारा ही उन्हें राष्ट्रीय वृत्ति का बनाती है। परमार्थ का चिंतन रखने वाला व्यक्ति कभी भी उन लोगों से कोई समझौता नहीं करेगा जो दुर्जन प्रवृत्ति के होते हैं। दुर्जन प्रवृत्ति के व्यक्तियों से वही व्यक्ति संपर्क और संबंध बनाएगा जो संसार में निहित स्वार्थ से भरा जीवन जीता हो।
परमारथ के कारने धारत जो निज देह।
दुर्जन से रहे दूर वो सुजन संग करै नेह।।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हमारे राजनीतिक मनीषियों ने प्राचीन काल से ऐसे व्यक्ति को ही राष्ट्रीय माना है जो सर्वप्रजाधारणपोषण सामर्थ्य युक्त होता है। वह प्रजाहितेरत: की लोक कल्याणकारी मानसिकता में विश्वास रखता है और उसी में सर्वभूतहितेरत: की पवित्रता के साथ जीवन जीने का अभ्यासी होता है। प्रजाहित उसके जीवन का लक्ष्य होता है और जीव लोक की रक्षा करना उसके जीवन का मनोरथ होता है। वह धर्म की रक्षा करने में अपने आपको आनंदित अनुभव करता है। वह सब लोगों का प्रिय होता है।
ऐसे गुण व्यक्ति में तभी आते हैं जब वह अपने चरित्रबल में अत्यंत पवित्र होता है । जिसके पास चारित्रिक बल और आत्मबल होता है वही संसार पर वास्तविक अर्थों में शासन करता है । क्योंकि ऐसे चरित्रबल और आत्मबल के धनी व्यक्ति का लोग स्वभाविक रूप से अनुकरण करने में आनंद की अनुभूति करते हैं।
जो राजा चरित्र बल और आत्मबल से हीन होता है वह लोगों पर शासन करने के अयोग्य होता है। उसके शासन में प्रजा में भांति -भांति के कुविचार फैलते हैं और लोग परस्पर एक दूसरे के धनहरण आदि का प्रयास करने लगते हैं। जब राजा स्वयं ही दूसरों का धनहरण करने वाला, लुटेरा, बदमाश, हत्यारा और दूसरों की स्त्रियों का शील भंग करने वाला होता है तो ऐसा राजा लोक में निंदा का पात्र होता है। दुर्भाग्य है कि भारत में मुगल, तुर्को और अंग्रेजों के शासनकाल में ऐसे ही नीच शासकों को हमारे लिए पूजा की थाली में परोसकर हमारे सामने रख दिया गया। जबकि इनमें से किसी के भीतर भी ऐसा कोई गुण नहीं था जिसके कारण इन्हें महान माना जाए या एक सुयोग्य शासक माना जाए।
गुणहीन शासक बने चरित्र से कमजोर ।
देश धर्म की लाज को लूट रहे थे चोर ।।
रामचंद्र जी ने अपने भीतर जिन गुणों का विकास किया वे गुण उन्हें दूसरों का धनहरण करने वाले लुटेरे, बदमाश और दूसरों की स्त्रियों का शील भंग करने वाले शासकों या समाज के प्रमुख लोगों का विरोध करने के लिए प्रेरित करते थे। चरित्रबल के माध्यम से वह भीतर से मजबूत थे ,इसीलिए राक्षसवृत्ति के लोगों का वह निर्भीकता के साथ सामना कर लिया करते थे।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति