‘जजिया’ के विरूद्घ ब्राह्मणों ने किया ‘धरना-प्रदर्शन’
नोट: यह लेख और कुछ अन्य लेख जो इस श्रंखला में रह गए हैं।
हम उन्हे प्रकसित करते रहेंगे।
जजिया और जजिया की वास्तविकता
जब भारत में मुस्लिम शासन का सूत्रपात हुआ तो उसी समय से हिंदुओं पर ‘जजिया’ कर लगाकर उनका उत्पीडऩ करने का क्रम भी जारी हो गया था। ‘जजिया’ एक प्रकार का धार्मिक कर था जो केवल हिंदुओं को ही देना पड़ता था, मुस्लिम लोग उससे अछूते रहते थे। कुछ विद्वानों का मत है कि यह कर हिंदुओं पर इसलिए लगाया जाता था कि राज्य उनके जीवन और संपत्ति की सुरक्षा करता था, और उन्हें सैनिक सेवा से मुक्त रखा जाता था। इसके पीछे के वास्तविक उद्देश्य को समझने की आवश्यकता है, और वह यह था कि मुस्लिम कट्टर सुन्नी विधिक व्यवस्था के अनुसार किसी गैर मुस्लिम को मुस्लिम शासन में रहने का कोई अधिकार नही था। यदि इसके उपरांत भी कोई गैर मुस्लिम मुस्लिम राज्य में रहना चाहता है तो उसे उस रहने के बदले में ‘जजिया’ अनिवार्य रूप से देना ही पड़ता था।
‘जजिया’ और हमारे इतिहासकार
अत: एक प्रकार से ‘जजिया’ इस बात की धमकी था किया तो मुस्लिम राज्य में मुस्लिम हो जाओ, अन्यथा अपने आर्थिक शोषण के लिए तैयार रहो। इसके उपरांत भी कुछ धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने इस कर-व्यवस्था को भी उदार दिखाने के लिए इसे धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बताकर महिमामंडित किया है। ‘तुगलककालीन’ भारत के लेखक डा. शाहिद अहमद धर्मनिरपेक्ष ‘जजिया’ की स्थिति स्पष्ट करते हुए उक्त पुस्तक के पृष्ठ संख्या 238 पर लिखते हैं कि -‘‘प्रारंभिक मुसलमान विधि विज्ञों ने करों को दो वर्गों में विभक्त किया-धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष और ‘जजिया’ को उन्होंने दूसरी कोटि में रखा। धार्मिक कर जकात और सदका थे जो केवल मुसलमानों पर लगाये जाते थे। ‘जजिया’ मुसलमानों पर नही लगाया जाता था कि उससे होने वाली आय को धार्मिक कार्यों पर ही व्यय किया जाए। यही कारण था कि मुस्लिम विधिविज्ञों ने उसे धर्मनिरपेक्ष कर की कोटि में रखा।
किंतु उपर्युक्त वर्गीकरण के आधार पर ‘जजिया’ को धर्मनिरपेक्ष कर कहना युक्ति संगत नही है….दिल्ली के सुल्तान कठोरता से इस कर को वसूल करना अपना धार्मिक कत्र्तव्य समझते थे।’’
‘जजिया’ की वास्तविकता
वास्तव में ‘जजिया’ हिंदुओं के आर्थिक और सामाजिक शोषण का एक माध्यम था। किसी भी देश को दास बनाने का उचित माध्यम भी यही है कि आप उसके नागरिकों को आर्थिक रूप से दीवालिया बना दे, और उस देश के आर्थिक संसाधनों पर एक विजेता के रूप में अपना अधिकार कर लें। मुस्लिम सल्तनत के हर सुल्तान ने भारत के चाहे जितने भूभाग पर शासन किया, इस बात को सुनिश्चित कर लिया कि यहां के नागरिकों की आर्थिक स्वतंत्रता का हरण किया जाए। आर्थिक विपन्नता वह अवस्था होती है, जिससे दुखी होकर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का मूल्य लेकर स्वाभिमान को बेचने तक के लिए विवश हो जाता है।
हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि एक बार अलाउद्दीन खिलजी ने अपने काजी से पूछा कि इस्लामी कानून में हिंदुओं की क्या स्थिति है? बर्नी हमें बताता है कि इस काजी ने सुल्तान को उत्तर दिया-‘‘ये भेंट-कर देने वाले लोग हैं, और जब आय अधिकारी इनसे चांदी मांगें तो इन्हें बिना किसी कैसे भी प्रश्न के पूर्ण विनम्रता व आदर से सोना देना चाहिए। यदि अधिकारी इनके मुंह में धूल फेंके तो इन्हें उसे लेने के लिए अपने मुंह खोल देने चाहिएं। इस्लाम की महिमा गाना इनका कत्र्तव्य है….अल्लाह इन पर घृणा करता है, इसलिए वह कहता है, ‘‘इन्हें दास बना कर रखो।’’ हिंदुओं को नीचा दिखाकर रखना हमारा धार्मिक कत्र्तव्य है, क्योंकि हिन्दू पैगंबर के सबसे बड़े शत्रु हैं। (कु 8:55) और चूंकि पैगंबर ने हमें आदेश दिया है कि हम इनका वध करें, इनको लूट लें, इनको बंदी बना लें। इस्लाम में धर्मांतरित कर लें, या हत्या कर दें (कु 9:5)
इस पर अलाउद्दीन ने अपने काजी से कहा-‘‘अरे काजी! तुम तो बड़े विद्वान हो कि यह पूरी तरह इस्लामी कानून के अनुसार ही है कि हिंदुओं को निकृष्टतम दासता और आज्ञाकारिता के लिए विवश किया जाये…’’
‘‘हिन्दू तब तक विनम्र और दास नही बनेंगे जब तक इन्हें अधिकतम निर्धन न बना दिया जाए।’’ (तारीखे फीरोज शाही-बरनी अनु. इलियत एण्ड डाउसन खण्ड 3 पृष्ठ-184-85)
निर्धनता दासता की चेरी है
अलाउद्दीन का यह कथन नितांत सत्य था कि जब तक हिन्दुओं को अधिकतम निर्धन न बना दिया जाएगा तब तक उन्हें दास बनाया जाना असंभव है। क्योंकि निर्धनता दासता की चेरी है। निर्धनता दासता के लिए काम करती है, उसका उत्पीडऩ सहती है और शोषण को अपना भाग्य मानकर स्वीकार करती है। इसलिए यदि हम थोड़ी देर के लिए इस्लामिक धार्मिक पुस्तक कुरान के उन आदेशों को एक ओर भी रख दें, जिनमें हिंदुओं के शोषण-उत्पीडऩ और उनके वध करने की स्पष्ट व्यवस्था की गयी है, तो भी यह मानना पड़ेगा कि यदि आप किसी देश या समाज पर अपना अधिकार करना चाहते हैं, तो उस देश या समाज को आर्थिक रूप से पंगु बना दो।
दासता को निर्धन वर्ग ने ही दी है चुनौती
विश्व के अधिकांश देशों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि निर्धनता दासता की पहली सीढ़ी है। पर यह भी सत्य है कि जब किसी देश से दासता को भगाने का संघर्ष किया गया है तो उसे निर्धन वर्ग ने ही शब्द दिये हैं। नागरिकों को आर्थिक रूप से शोषित करने वाला शासक जब शोषक हो गया, तो उसके विरूद्घ आर्थिक अपराधों को झेलने वाले शोषक वर्ग ने ही सामाजिक विषमता को मिटाने के लिए, मानवाधिकारों में मानव समाज को समान अधिकार देने के लिए, सब नागरिकों को जन्मना स्वतंत्र मानने के लिए, निर्धनता, भुखमरी और आर्थिक अत्याचार मिटाने के लिए आवाज उठाई है। जहां-जहां क्रांतियों ने अपना रंग दिखाया और अत्याचारी शोषक शासक वर्ग का अंत किया वहीं-वहीं ये नारे ही मूल रूप में काम आये।
ताला यदि लगता है तो खुलता भी उसी कुंजी से है जिससे लगाया गया था। इसी प्रकार यदि समस्यायें उत्पन्न होती हैं तो समाप्त भी उसी समाधान से होती हैं, जिसे प्रारंभ में एक उपाय के रूप में प्रयुक्त किया गया था। अत: यदि दासता निर्धनता को माध्यम बनाकर उत्पन्न की जाती है, तो वह अनिवार्यत: समाप्त भी निर्धनता को एकप्रबल हथियार बनाने से ही होनी संभव है।
भारतीय भी जानते थे ‘जजिया का सच’
भारतीय भी समझ रहे थे कि जजिया क्या है और क्यों लगाया जा रहा है?
भारत ने प्राचीन काल से ही राष्ट्र के आर्थिक संसाधनों पर प्रत्येक राष्ट्रवासी का अधिकार समान रूप से स्वीकार किया है। इसलिए व्यक्ति की वास्तविक और प्राकृतिक मौलिक स्वतंत्रता का कोई देश यदि वास्तव में ही पक्षधर है तो वह भारत है।
वेद का आदेश है –
ओ३म्। नहि ते शूर राधसो अन्तं विन्दामि सत्रा।
दशस्या नो मधवन नू चिद् द्रिवो धियो वाजेभिराविथ।।
(ऋ . 8/64/11)
स्वामी वेदानंद तीर्थ जी इस मंत्र की व्याख्या करते हुए ‘स्वाध्याय संदोह’ में कहते हैं-प्रभो! तू अनंत है। तेरा बल अनंत है। तेरा ज्ञान अनंत है। तेरा दान अनंत है। तेरा धन अनंत है। मैं सांत, मेरी क्रिया सांत, मेरी युक्ति सांत, शक्ति सांत। अत: सचमुच शूर, तेरे धन का दान का अंत नही पाता हूं। अनंत काल से तू देता आ रहा है, और सबको बिना पक्षपात के देता आ रहा है, किंतु तेरे धन की समाप्ति का कोई चिन्ह ही नही दीखता।….दयालो! तुझे ही हम अन्नों का सच्चा दाता मानते हैं और तुझे धनों का दाता जानते हैं।’’
कहने का अभिप्राय है कि वैदिक संस्कृति व्यक्ति की मौलिकस्वतंत्रता की उद्घोषक है। कहीं पर भी वेद ने या वैदिक ग्रंथों ने यह घोषणा नही की कि ईश्वर प्रदत्त धन के स्रोतों पर राजा का या राजा के परिजनों का या किसी विशेष मत के मानने वालों का एकाधिकार है। शोषण से मुक्त समाज की स्थापना करना वेद का आदर्श है। अत: वेद यह सुस्पष्ट व्यवस्था करता है कि ईश्वर प्रदत्त धन पर सभी का स्वतंत्र और समान अधिकार है। वेद पुरूषार्थी उद्यमी और परिश्रमी मानव समाज की संरचना करना चाहता है। वह कामचोर, आलसी, प्रमादी और दूसरों का धन हरण खाने वालों को अपराधी मानता है। जबकि मुस्लिम सुल्तानों ने दूसरों का धन हरण करके खाने को अपना परम कत्र्तव्य माना।
पापाचारियों के विरूद्घ था स्वतंत्रता संघर्ष
इस स्थिति में ये लोग उनके अपने धर्म ग्रंथ की दृष्टि में चाहे कितने ही पुण्यात्मा क्यों ना हों, परंतु भारत के धर्मग्रंथों, सामाजिक व्यवस्था और न्याय प्रणाली के अनुसार वे केवल चोर थे, अन्यायी थे, अत्याचारी थे, पापाचारी थे। इसलिए समाज में उन चोरों के विरूद्घ और पापाचारियों के विरूद्घ विद्रोह (स्वतंत्रता की) की भावना एक ज्वाला के रूप में धधक रही थी।
‘जजिया’ की वास्तविकता को जानकर हमारे देश के लोगों ने उसके विरूद्घ भी जन जागरण किया, विद्रोह किया और सुल्तान को अपनी व्यथा-कथा सुनाकर इस अन्याय परक व्यवस्था को समाप्त करने की प्रार्थना की। अफीफ के अनुसार फीरोज तुगलक अपना शासन शरीयत के प्राविधानों के अनुसार चलाता था। इसलिए उसने ब्राह्मणों से भी जजिया लेना आरंभ कर दिया था।
ब्राह्मणों ने किया धरना-प्रदर्शन
जब इस राजाज्ञा की जानकारी ब्राह्मणों को हुई तो वे एकत्रित होकर सुल्तान के पास पहुंचे और उससे अपना आदेश वापस लेने की आग्रहपूर्ण याचना करने लगे, उन्होंने सुल्तान को स्पष्ट कर दिया कि यदि सुल्तान ने उनकी बात नही मानी तो वह स्वयं को जीवित ही जला लेंगे। सुल्तान पर ब्राह्मणों की इस धमकी का कोई प्रभाव नही हुआ। तब ब्राह्मणों ने सुल्तान के निवास ‘कूश्के शिकार’ के बाहर अनशन और प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया।
राजधानी के अन्य हिंदुओं को जब ब्राह्मणों के धरना-प्रदर्शन अनशन की जानकारी हुई तो उन्होंने ब्राह्मणों को समझाया कि जजिया के कारण आत्महत्या करना उचित नही होगा। यदि सुल्तान जजिया समाप्त नही करता है, और ब्राह्मणों के विरूद्घ जजिया संबंधी राजाज्ञा पूर्ववत रहती है, तो वह स्वयं ब्राह्मणों की ओर से जजिया भुगतान कर देंगे।
राजधानी के हिंदुओं ने दूरदर्शिता से काम लिया, उन्हें ज्ञात था कि सुल्तान अपनी राजाज्ञा तो वापस लेने से रहा, इसके विपरीत यह हो सकता है किया तो ब्राह्मण जीवित जलकर आत्महत्या कर लेंगे या सुल्तान उन्हें किसी दिन स्वयं मरवा देगा, दोनों ही स्थिति में राजधानी के हिन्दू स्वयं को लज्जित अनुभव करते। अत: उन्होंने प्रदर्शन कर रहे ब्राह्मणों के प्राण बचाना ही उचित मानते हुए उनकी ओर से जजिया भुगतान करना श्रेयस्कर माना।
अभूतपूर्व था यह प्रदर्शन
यह घटना दब गयी या दबा दी गयी और इसमें कोई हताहत भी नही हुआ, यह अलग बातें हैं। इन सबके कारण ब्राह़मणों के इस धरना प्रदर्शन और अनशन का अपना महत्व है। हमें इससे पूर्व किसी निर्मम और निर्दयी राजशाही के विरूद्घ जनता के धरना प्रदर्शन और अनशन का कहीं प्रमाण नही मिलता। यह प्रथम बार हुआ कि एक अप्राकृतिक और अवैध कर के विरूद्घ देश की जनता ने शांति पूर्ण प्रदर्शन का मार्ग भी अपनाया। इसे इसी दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। इससे पूर्व दोआब में कर वृद्घि हुई थी तो मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में किसानों ने उसके विरूद्घ भी विद्रोह किया था। ये आंदोलन भी हमारी उस सनातन राष्ट्रीय चेतना के ही एक अंग थे जो हमें अन्याय, अत्याचार और अनाचार आधारित शासन-व्यवस्था के विरूद्घ संघर्षशील बने रहने की प्रेरणा देते थे।
प्रदर्शन का प्रभाव
सुल्तान की अन्याय परक कर व्यवस्था के विरूद्घ ब्राह्मणों के धरना प्रदर्शन और अनशन का प्रभाव ये हुआ कि सुल्तान को अपनी राजाज्ञा वापस लेकर संशोधित राजाज्ञा जारी कर ब्राह्मणों से जजिया का निम्नतम मूल्य ही वसूले जाने की व्यवस्था की गयी।
फीरोज कालीन हकीकत राय
यूं तो जब से इस्लाम ने भारत की धरती पर पहला पग रखा था, तभी से यहां अनेकों ‘वीर हकीकत रायों’ ने अपने धर्म की रक्षार्थ अपना प्राणदान किया। परंतु फीरोज तुगलक के काल में जो घटना घटी उसे देखकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और हमें पता चलता है कि इस देश में ‘वीर हकीकत राय’ की परंपरा भी कितनी पुरानी है।
अफीफ ने फीरोज तुगलक के शासन काल में घटी इस घटना की जानकारी देते हुए बताया है कि सुल्तान को सूचना मिली कि प्राचीन दिल्ली में एक ब्राह़्मण निर्भय होकर मूर्ति पूजा कर रहा है, हिंदू लोग एक विशेष दिन उसके यहां एकत्र होकर मूत्र्ति पूजा करते हैं। इतना ही नही उस ब्राह्मण ने एक मुस्लिम स्त्री को हिन्दू भी बना लिया है। सुल्तान को यह भी सूचना मिली कि इस ब्राह्मण के पास एक लकड़ी की मुहर है, जिस पर हिंदू देवी देवताओं के चित्र बने हैं।
सुल्तान के लिए हिन्दू ब्राह़मण की यह निर्भयता असहनीय थी। मुस्लिम बादशाह के शासनकाल में कोई अमुस्लिम मूत्र्तिपूजा करे-भला यह कैसे संभव था? इसलिए सुल्तान ने क्रोधावेश में आकर अपने मजहब के आलिमों और सूफियों से परामर्श करके उस ब्राह़्मण को तुरंत मूर्तिपूजा बंद करने और या तो मुसलमान बन जाने या जीवित जलाये जाने के विकल्पों में से कोई एक विकल्प अपने लिए चुनने का आदेश दे दिया।
ब्राह्मण ने कह दिया-नही करूंगा धर्मपरिवर्तन
ब्राह्मण के रोम-रोम में शक्तिदायक ओ३म्-ओ३म् की ध्वनि गुंजरित होने लगी। इसका धर्म उसमें प्राण ऊर्जा भर रहा था और उसने पूर्ण साहस के साथ कहला दिया कि परिणाम चाहे जो हो पर वह धर्म परिवर्तन नही करेगा। इस उत्तर का परिणाम तो स्पष्ट था ही कि इस्लाम नही तो जलकर मरने को तैयार रहो।
ब्राह्मण ने अंतिम परिणाम को सहर्ष स्वीकार कर लिया। अफीफ बताता है-‘‘संध्या की नमाज के समय उस ब्राह्मण को उसकी लकड़ी की मुहर के साथ जीवित ही जला दिया गया। ब्राह्मण ने बड़ी सहजता से मृत्यु का वरण कर लिया।’’
दिल्ली सल्तनत (खण्ड 1 पृष्ठ 508) का लेखक कहता है कि शरा का कठोर पालक अफीफ का नायक एवं उसके सलाहकार धर्म के नशे में इस तथ्य को भूल गये कि किसी भी स्थिति में इस्लाम में जलाकर मृत्युदंड देने का निषेध है। इस रूप में फीरोज वास्तव में एक क्रूर और अक्षम्य हत्या का अपराधी था।
ये लोग थे देश धर्म के दीवाने। इन्हीं देश धर्म के दीवानों से प्रेरणा पाकर ही देश में बलिदानी परंपरा चलती रही। 15 अगस्त 1947 को जो ‘हिंदू भारत’ हमें मिला था उसमें इस बलिदानी ब्राह्मण की दिव्य आत्मा का भी योगदान था। इनका लक्ष्य था-धर्म के लिए मरना ही चाहिए।
सावरकर की श्रद्घांजलि
स्वातंत्रय वीर सावरकर की क्रांतिकारी लेखनी को इन लोगों के बलिदानों से ऊर्जा मिली, शक्ति मिली और उसने भी जो शब्द मोती इतिहास की पुस्तक पर उकेरे उन्हें इस हुतात्मा ब्राह्मण के लिए और उस जैसे अन्य अनेकों देशभक्त धर्मवीरों के लिए श्रद्घांजलि के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है-‘‘विश्व का इतिहास छान-छान कर हम थक गये। देवासुरों, इंद्र वृत्तासुर रावण आदि की वैदिक कथाओं से लेकर प्राचीन ईरान, ग्रीस, रोम, अरब, अमेरिका, इंगलैंड, चीन, जापान, स्पेनिश, मूर, तुर्क, ग्रीस, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्टे्रलिया, इटली आदि के ताजे से ताजे इतिहास तक सारी राज्य क्रांतियों के और राष्ट्र स्वतंत्रता के इतिहास तक मानवी राजनीति के अधिकतम इतिहास ग्रंथों के पारायण मैंने स्वयं किये हैं और उस पर सैकड़ों व्याख्यान भी दिये हैं। हिन्दुस्तान के कुछ प्राचीन और राजपूत, बुंदेल, सिख, मराठा आदि अर्वाचीन इतिहास का पन्ना मैंने छान मारा है और उन सबसे एक ही संदेश निकलता देखा है किधर्म के लिए मरना चाहिए किंतु इतना ही कहने से कार्य पूरा नही होता, अपितु गुरू रामदास की जो उक्ति है-‘मरते-मरते’ भी आततायी को मारो और मारते-मारते अपना राज्य प्राप्त करो-उसे स्वीकार करना ही स्वतंत्रता की प्राप्ति का अपरिहार्य साधन है। यशस्वी राजनीति का अनन्य साधन है।’’
(संदर्भ : सावरकर समग्र खण्ड 1 पृष्ठ 298)
व्यर्थ नही जाते बलिदान
भारत का इतिहास बलिदानियों का रहा है। बलिदानों की एक विशेषता होती है कि ये कभी भी व्यर्थ नही जाते हैं। जैसे घृतादि यज्ञकुण्ड में पडक़र यज्ञाग्नि के साथ सैकड़ो-हजारों गुणा शक्ति विस्तार कर सृष्टि के लिए लाभकारी सिद्घ होते हैं, वैसे ही हुतात्मायें अपना जीवन होम कर संसार में अपने पीछे आने वाली पीढिय़ों के लिए बलिदानी परंपरा का मार्ग प्रशस्त करती हैं। भारत के आगामी इतिहास ने यह सिद्घ भी कर दिया कि बलिदानियों के बलिदानों ने यहां के युवक में कितनी गहराई से क्रांति भावों का बीजारोपण किया। इसलिए हमारा मानना है कि बलिदान कभी व्यर्थ नही जाया करते हैं।
सचमुच भारत महान है
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जो अंग्रेज हमें यह बताते हुए चले गये कि लोकतंत्र में धरना प्रदर्शन करना लोगों को हमने सिखाया, उनके लिए जजिया कर के विरूद्घ ब्राह्मणों का धरना-प्रदर्शन, अनशन एक उदाहरण है कि यहां अपने अधिकारों के लिए लडऩे के उपायों के रूप में धरना प्रदर्शन को भी कितने समय पूर्व अपना लिया गया था और ब्राह्मण का जलकर जीवन होम करना बताता है कि देश-धर्म के लिए मरने में यातना कुछ भी नही। इसे ही हमने यशदायिनी मृत्यु माना है, और इसी मृत्यु की भारत ने सदा इच्छा की है। सचमुच भारत महान है।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत