रावण फिर चला मारीच की ओर
अपनी बहन शूर्पणखा के इन रोमांचकारी वचनों को सुनकर रावण ने अपने मंत्रियों के साथ विचार विनिमय किया और उनसे विदा लेकर वह फिर मारीच के आश्रम की ओर चला। रावण के वहां पहुंचने पर मारीच ने फिर उससे कुशल क्षेम पूछा और वार्ता आरंभ की। तब रावण ने कहा कि राम ने मेरी 14 सहस्र की सेना मार डाली है । इतना ही नहीं उसने मेरे भाई खर और दूषण को भी मार दिया है। इसके साथ ही राम ने दंडकवन में रहने वाले सभी तपस्वियों को निर्भय कर दिया है। जिस राम को उसके पिता ने अपनी राजधानी से बाहर निकाल दिया उस क्षत्रियकुलकलंक राम ने मेरी इतनी बड़ी सेना का इस प्रकार विनाश कर दिया है जो मेरे लिए बहुत ही अपमानजनक और दु:ख का विषय है। मैं चाहता हूं कि राम और लक्ष्मण को उनके किए का दण्ड दिया जाए, क्योंकि उन्होंने मेरी बहन की नाक और कान भी काट दी है। जिससे वह कुरूपा हो गई है। मैं अपनी बहन की इस प्रकार की सूरत को देख नहीं सकता। उसके साथ जो कुछ भी किया गया है वह मुझे अपमान की अग्नि में जला रहा है।
राम सजा का पात्र है किया घोर अपराध।
जीवित रह सकता नहीं मारूं करके घात।।
मैं चाहता हूं कि उस घमंडी राम की पत्नी सीता को मैं उठाकर लाऊं और आप मुझे इस कार्य में सहायता प्रदान करें । क्योंकि तुम्हारे समान कोई पराक्रमी मुझे दिखाई नहीं देता। तुम मायाविशारद अर्थात रूप और बोली बदलने में पंडित हो। (कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि मारीच उस समय वर्तमान मुंबई के क्षेत्र में निवास करता था। जिसे उस समय ‘मोहमयी’ कहा जाता था। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र को ‘मोहमयी’ कहे जाने का कारण यही था की मारीच मायाविशारद था। ) इसी उद्देश्य से मैं तुम्हारे पास आया हूं । अब तुम्हें मेरे मेरे इस काम में मेरी सहायता करनी ही होगी। तुम चांदी के बिंदुओं से चित्रित सोने का मृग बनकर राम के आश्रम में जाकर सीता के समक्ष विचरने की तैयारी करो। जब तुम वहां विचर रहे होगे तो सीता तुम्हें देखकर निश्चय ही तुम पर मुग्ध हो जाएगी और वह अपने पति और देवर को तुम्हें पकड़ कर लाने के लिए आग्रह करेगी। जब राम लक्ष्मण तुझे पकड़ने के लिए आश्रम से दूर चले जाएंगे तब मैं उस आश्रम में जाकर बिना किसी बाधा के सीता को बड़े आराम से उठाकर ले आऊंगा।
रावण के ऐसे वचन सुनकर मारीच का गला सूख गया। उसे अब यह आभास हो गया था कि उसका काल आ चुका है । अपना आगा – पीछा सोचते हुए मारीच ने रावण को फिर एक बार समझाने का प्रयास किया। उसने रावण को कहा कि संसार में निरंतर प्रिय बोलने वाले लोग सदा मिल जाते हैं, परंतु कहने में कठोर लेकिन वास्तव में हितकारी वचनों के कहने और सुनने वाले लोग संसार में दुर्लभ हैं। रावण ! तुम महापराक्रमी श्रेष्ठ गुण संपन्न राम के बारे में कुछ नहीं जानते। उन्हें उनके पिता ने निकाला नहीं है और न ही वे लोभी हैं। वह आचारहीन भी नहीं है और क्षत्रियकुलकलंक भी नहीं है। श्रीराम के विषय में तुम्हारी ऐसी अवधारणा वास्तव में निर्मूल है । शूर्पणखा ने जो कुछ भी तुम्हारे समक्ष प्रलाप किया है वह तुम्हें बरगलाने के लिए किया है।
श्रीराम जितेंद्रिय हैं और धर्म की साक्षात मूर्ति हैं । सत्य पराक्रमी रामजी के विषय में तुम्हें बहुत कुछ जानने की आवश्यकता है। अपने पतिव्रत धर्म में एकनिष्ठ सीता को तुम हरण करने के बारे में सोच रहे हो, यह तुम्हारा कल्याण करने वाला विचार नहीं है । तुम यह व्यर्थ का उद्योग क्यों करना चाहते हो ? यदि तुम संग्राम में श्री राम के सामने पड़ गए तो फिर जीते नहीं बच सकोगे। यदि तुम अपने राज्य को दीर्घकाल तक चाहते हो तो श्रीराम से विरोध मत करो।
रावण ! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि परस्त्री गमन से बढ़कर और कोई पाप नहीं है। अतः आप अपनी स्त्रियों से ही प्रीति करें और अपने कुल की रक्षा करें।
जब रावण ने फिर मारीच के ऐसे कल्याणकारी वचन सुने तो उसने उन वचनों को ग्रहण करने से इनकार करते हुए कहा कि हे मारीच ! तूने मेरी इच्छा के विरुद्ध जो कुछ मुझसे कहा है वह ऊसर भूमि में बीज बोने के समान है और मेरे लिए नितांत निष्फल है। जिस सीता के पति राम ने मेरे भाई खर का वध किया है उसी सीता का मैं तेरे सामने हरण करूंगा। अब मेरे इस विचार को कोई बदल नहीं सकता। मेरा फिर तुमसे यह कहना है कि बिना कुछ सोचे विचारे मेरे इस कार्य मेरी सहायता करो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं तुम्हारा वध इसी क्षण कर डालूंगा। तुम्हें हर परिस्थिति में मेरे इस प्रयोजन में मेरा साथ देना होगा।
मेरा मनोरथ श्रेष्ठ है -तुम यही कहो मारीच।
अपमान सह घर में रहे कहलाता महानीच ।।
मारीच रावण की बुद्धि के भृष्ट हो जाने से दु:खी था। उसने एक बार फिर रावण को समझाने का असफल प्रयास किया। उससे कहा कि तुझे ऐसा नीच विचार किसने दे दिया ? तुझे यह पता होना चाहिए कि यदि राम से शत्रुता मोल ली तो अवश्य ही राक्षस धरती से नष्ट हो जाएंगे। मुझे इस बात का शोक है कि तुम सेना सहित राम के साथ होने वाले युद्ध में मारे जाओगे। मुझे मारकर राम तुझे भी मार डालेगा । राम के सामने जाते ही मैं मर जाऊंगा, यह निश्चित है। उसके बाद जब तू सीताहरण करने में सफल हो जाएगा तो अपने आप को और अपने परिजनों को भी मरा हुआ ही समझ। इसके बाद सारी लंका और ये राक्षस लोग नष्ट हो जाएंगे । मारीच का स्पष्ट मानना था कि अधर्म, अनीति अन्याय और पाप कर्म व्यक्ति को गलाते हैं । उनके पापबोध से वह कभी उभर नहीं पाता । एक अच्छे व्यक्ति के लिए उचित यही है कि वह नीति और धर्म का पालन करता रहे, जैसे श्री राम करते हैं। रावण की हठधर्मिता के सामने अब मारीच निरुत्तर हो चुका था। उसे अपना काल तो स्पष्ट दिखाई दे ही रहा था साथ ही उसे रावण के वंश का विनाश भी साक्षात दिखाई दे रहा था। अतः इतना कहकर मारीच रावण के साथ चल पड़ता है।
रावण और मारीच शीघ्र ही श्रीराम के आश्रम के पास पहुंच गए। वहां जाकर रावण ने कहा कि मारीच अब तुम्हें अपना काम आरंभ कर देना चाहिए। रावण की बात सुनकर मारीच अदभुत मृग का रूप धारण कर सश्रीराम के आश्रम के द्वार पर घूमने लगा। उस समय सीता जी पुष्प तोड़ने के लिए इधर-उधर घूम रही थीं। तभी उन्हें वह अद्भुत मृग दिखाई दिया। जिसे प्राप्त करने की इच्छा उनके मन में हुई।
इसके बाद की उस घटना से हम सभी परिचित हैं जिसने सीता जी का अपहरण कराया। उस पर यहां प्रकाश डालना अधिक उचित नहीं होगा। यहां हम इतना ही कहना चाहेंगे कि राक्षस रावण अपने राक्षस कृत्य को करने में सफल हो गया। यद्यपि उसे यह ज्ञात नहीं था कि उसका यह कार्य ही उसके वंश का नाश कराने में सहायक होगा। यहां से रावण अपने विनाश की डगर पर चल पड़ा और श्रीराम के लिए वह रास्ता खुल गया जो रावण का वध कराने के लिए बन रहा था।
हम राम रावण युद्ध पर भी यहाँ प्रकाश नहीं डाल रहे हैं। इसका कारण केवल एक ही है कि उस युद्ध के बारे में हम सबने बहुत कुछ सुना है। हमारा उद्देश्य केवल उन बिंदुओं को स्पष्ट करना था जिन पर अधिक ना तो लिखा गया है और ना ही सुना गया है। हम यह भी स्पष्ट करना चाहते थे कि रामचंद्र जी ने दंडकारण्य वन में जाते ही राक्षस संहार की अपनी योजना पर काम करना आरंभ कर दिया था। उसकी अंतिम परिणति रावण के विनाश के रूप में जाकर हुई। हमारा उद्देश्य केवल एक ही है कि श्री राम भारतवर्ष के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा हैं। जिन्होंने कदम कदम पर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए महान कार्यों का संपादन किया।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत