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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

क्षेत्रीय मुस्लिम शासकों से भी चला हिन्दू शक्ति का संघर्ष

hindu rajनोट: यह लेख हमसे किसी कारणवश प्रकसित नहीं हो पाया था और कुछ अन्य लेख जो इस श्रंखला में रह गए हैंहम उन्हे प्रकसित करते रहेंगे।

 

भारत का कण-कण वंदनीय है

भारत से शांति प्राप्त करने के लिए प्राचीन काल से लोग यहां आते रहे हैं। यहां के कण-कण में शंकर की प्रतिध्वनि को उन लोगों ने जितना सुना है, उतने ही वह भारत के प्रति श्रद्धा और सम्मान से झुकते चले गये। उन्हें लगा कि यदि पृथ्वी पर वास्तव में कहीं स्वर्ग है, शांति, संस्कृति, आत्मोत्थान और उच्च मानवीय सभ्यता की कहीं झलक है, तो वह भारत में है। इसलिए उन्हें भारत की नदियां, भारत के पर्वत, भारत के मंदिर, भारत के ऐतिहासिक स्थल और भवन, भारत का कण-कण, भारत की हवाएं और भारत के सूर्य और चंद्रमा (जिन देशों में कई-कई माह तक सूर्य और चंद्रमा के दर्शन नहीं होते, उनसे पूछो कि भारत में नित्य दिखने वाले सूर्य और चंद्रमा का महत्व क्या है?) नित्य संकेत कर करके बुलाते हैं कि आओ और हमसे बातें करो, आनंद लो और शांति  की सच्ची खोज कर जीवन सफल बनाओ।

आपका यह  देश बहुत महान है

डा. वा. मो. आठलेजी अपनी पुस्तक भारत की पहचान के पृष्ठ 110-111 पर लिखते हैं :-‘‘जब लेखक और उसके साथी एलोरा की प्रमुख गुफाओं को  देखकर वापस आ रहे थे तो मैदान में एक ओर अपने एक सर्व सुविधा पूर्ण वाहन में स्टोव पर खाना पकाते हुए एक विदेशी व्यक्ति पर हमारी नजर पड़ी। हम लोग कुतूहलवश उसके पास गये। वह एक जर्मन नागरिक था, किंतु अंग्रेजी अच्छी तरह बोल सकता था। परिचय होने के पश्चात उसने हमसे पूछा-‘‘आपने कितनी गुफायें देखी हैं?’’

-‘‘चौदह या पंद्रह’’

-‘‘कितनी देर लगे?’’

-‘‘लगभग दो घंटे।’’

वह मुस्कराकर बोला-‘‘मैं यहां चौबीस दिनों से डेरा डाले हूं, और कैलाश गुफा का केवल बाहरी कक्ष देख सका हूं।’’

हम लोग स्तम्भित रह गये। पूछा-‘आप कब तक यहां रहेंगे?’

लगता है कैलाश गुफा चार पांच माह में पूरी कर लूंगा, बाकी गुफायें फिर कुछ दिनों मेें पूरी हो जाएंगी। फिर वह बोला-आपका यह देश बहुत महान है। यहां तो इन पुरानी महती कलाकृतियों को देखने में ही सारा जीवन बिताया जा सकता है। पता नहीं, आपको इसका पता है या नहीं?

वास्तव में हममें से करोड़ों को पता नहीं है, कितना दुर्भाग्य है-यह हमारा?’’

हमारे लिये लज्जाजनक है यह स्थिति

लेखक की भारतीयों के प्रति यह स्वीकारोक्ति कि हममें से ‘करोड़ों को पता नहीं है’-हमारे लिए लज्जाजनक है, पर इसका मूलकारण है अपना इतिहास बोध न होना। जो जातियां अपने इतिहास बोध के प्रति हृदय शून्य हो जाती हंै, उनके लिए अजंता एलोरा जैसी गुफाएं या ऐतिहासिक दुर्ग आदि कुछ पत्थरों को सुव्यवस्थित ढंग से सजाकर खड़ा कर देने या उन्हें आकर्षक रूप दे देेने मात्र से बढक़र वे और कुछ नहीं होतीं। हमें अपने इतिहास से काटकर विदेशी इतिहास लेखकों को यही मिला है और यह कम नहीं है, पर इन्हीं विदेशियों में उक्त जर्मन नागरिक भी सम्मिलित है, जिस जैसे अनेकों लोग अपने व्यंग्य बाण मारकर इतिहास बोध के प्रति हमारी हृदय शून्यता को झकझोर कर चले जाते हैं।

हमारा प्रमाद और इतिहास बोध

जैसे एलोरा की गुफाओं इत्यादि को देखने में हम प्रमाद का प्रदर्शन करते हैं, वैसे ही हमें कभी ये सोचने का या चिंतन करने का समय नहीं मिलता कि जिस दिल्ली सल्तनत ने एक बार अधिकतम हिंदुस्थान को अपने झण्डे नीचे लाने में सफलता प्राप्त कर ली थी, एक दिन वही सल्तनत सिमटते-सिमटते अपने आप ही  इतनी सीमित क्यों हो गयी कि मुस्लिम इतिहासकार को ही लिखना पड़ा गया कि दिल्ली सल्तनत दिल्ली से पालम तक ही रह गयी?

अपने पूर्वजों के पौरूष-पुरूषार्थ और शौर्य को खोजेंगे तो इस सुलगते प्रश्न का उत्तर पूर्वजों की फडक़ती भुजाओं और महान वीरांगनाओं की चिता के धधकते अंगारों से अवश्य मिल जाएगा।

क्षेत्रीय मुस्लिम शासकों से भी चला संघर्ष

ऐसा नहीं था कि हमारे महान पूर्वजों ने भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष केवल दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता (दिल्ली सल्तनत) के विरूद्ध ही चलाया, किंतु यह हर उस क्षेत्रीय शासक के विरूद्ध भी चला जो मुस्लिम था और किसी भी प्रकार से भारत के धर्म और संस्कृति को मिटा देना अपना पवित्र धार्मिक कत्र्तव्य मानता था। हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत के जौनपुर, कालपी, मालवा और गुजरात में कई मुस्लिम राजवंश अपने शासन स्थापित कर चुके थे।

मुंशी विनायक प्रसाद अपनी पुस्तक ‘तारीखे उज्जैनिया’ और बोधराज मुगल अपनी पुस्तक ‘उज्जैनिया की ख्यात’ में बहुत ही गौरवपूर्ण बात कहते हैं कि जौनपुर के शकी सुल्तान और बिहार प्रांत के आधुनिक भोजपुर क्षेत्र में बसे उज्जैनिया राजपूतों के मध्य लगभग एक शताब्दी तक संघर्षों का उल्लेख मिलता है। उज्जैनिया राजपूत अपनी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाकर छापामार रणप्रणाली अपनाकर लगभग एक शताब्दी तक सफलता पूर्वक शर्कियों का प्रतिरोध करते रहे।

केन्द्रीय सत्ता के तीन दावेदार

प्रांतीय मुस्लिम शासकों के उभरने से एक लाभ भी हुआ कि ये नये शासक अपने साम्राज्य विस्तार के लिए कितनी ही बार दिल्ली की सल्तनत से भी भिड़े, जिससे शत्रु-शत्रु की शक्ति कम करने में लग गया। इस स्थिति का लाभ हिंदुओं को मिला। अब भारत की सत्ता के तीन दावेदार थे-एक दिल्ली के सुल्तान दूसरे हिंदू और तीसरे ये मुस्लिम प्रांतीय राजवंश। ये तीनों ही एक दूसरे के प्राणों के शत्रु थे। इस स्थिति से देश के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में कलह और घृणा का बीजारोपण हुआ।

उज्जैनी राजपूतों का पराक्रम

अब तक बहुत से धर्मांतरित मुस्लिम इस देश में हिंदू के दरवाजे से दरवाजा मिलाकर रहने लगे थे, हिंदू उन्हें जाति बहिष्कृत कर  देते थे और वे धर्मांतरित मुसलमान इस दण्ड से होने वाले कष्ट का प्रतिरोध इन हिंदुओं का शासकीय स्तर पर उत्पीड़न कराके या उनकी हत्याओं में सम्मिलित होकर लेते थे। हिंदू मुस्लिम के मध्य दूरियां उत्पन्न करने में इस स्थिति ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उज्जैनी राजपूतों ने स्थानीय मुस्लिम राजवंशों का प्रतिरोध करके यह स्पष्ट कर दिया कि उन्हें मुस्लिम सत्ता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि इस सत्ता की सोच, इसका धर्म, इसकी संस्कृति, इसकी सभ्यता और इसके सामाजिक और राजनीतिक मूल्य सभी विदेशी हैं। जिनसे सामंजस्य स्थापित किया जाना असंभव है।

निजामी कहते हैं पते की बात

ए.एच. निजामी ‘कालिदास डायनेस्टी ऑफ कालपी’ (बुंदेलखण्ड) में हमें बताते हैं कि कालपी के मुस्लिम सुल्तान अपने पड़ोस के हिंदू जमींदारों, रायों तथा बघेल शासकों तथा ग्वालियर के तोमर शासकों से निरंतर संघर्ष करते रहे। इन दोनों शक्तियों के मध्य के संघर्षों का परिणाम कभी हिंदुओं के पक्ष में जाता था तो कभी मुस्लिमों के पक्ष में। परंतु हिंदुओं से निरंतर चुनौती मिलते रहने से मुस्लिम शासकों की शक्ति क्षीण अवश्य हुई। मुस्लिम शासकों के लिए हर हिंदू एक सैनिक बन गया था। ऐसी  परिस्थितियों में मुस्लिम सत्ता का दुर्बल हो जाना स्वाभाविक ही था। परिणामस्वरूप जब इन मुस्लिमों को अपने ही जातीय जौनपुर और मालवा के सुल्तानों से संघर्ष करना पड़ा तो उसमें उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। अत: 15वीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते उनकी सत्ताएं समाप्त हो गयीं।’’

इन सत्ताओं के इस प्रकार समाप्त हो जाने में निश्चित रूप से हिंदू प्रतिरोध और स्वंत्रता संघर्ष का महत्वपूर्ण योगदान था। जिसे इतिहास का हर जिज्ञासु विद्यार्थी जितने मनोयोग से समझेगा उतना ही वह हिंदू प्रतिरोध की गरिमा और महत्व को समझने में सफलता प्राप्त करेगा।

ग्वालियर के राय डूंगरेन्द्र सिंह ने की भाण्डेर विजय

ग्वालियर को उस समय राय डूंगर (डूंगरेन्द्र सिंह) ने संभाला हुआ था। यह तोमर नरेश बहुत ही वीर और क्षत्रीय शक्ति संपन्न शासक था। स्वतंत्रता के इस पर-मोपासक ने अपने शासन काल में 1435 ई. में कालपी के सुल्तान के अधीन भाण्डेर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। राय ने भाण्डेर के आसपास के क्षेत्रों को स्वतंत्र कराने के दृष्टिकोण से वहां भी विदेशी शासकों के विरूद्ध उपद्रव मचाना आरंभ कर दिया। कालपी का शासक उस समय सुल्तान जलाल खां था। ‘तारीखे मुहम्मदी’ से हमें ज्ञात होता है कि जलाल खां ने राय डूंगरेन्द्र सिंह को भगाने के लिए उसका सामना करने का मन बनाया।

जलाल खान का कर दिया साहस भंग

एक अच्छी सेना के साथ उसने राय डूंगरेन्द्र सिंह का सामना करने के लिए प्रस्थान किया। परंतु राय डूंगरेन्द्र सिंह के विशाल सैन्य दल को देखकर जलाल खां का साहस भंग हो गया और वह बिना सामना किये ही लौट गया। जलाल खां के मंत्री मुबारक खां ने राय डूंगरेन्द्र सिंह के लिए मलिकविहामद के हाथों जड़ाऊं खिलअत एवं टोपी भेजी और स्वयं ही एक महंगी और अपमानजनक संधि करके अपने भाण्डेर दुर्ग की रक्षा की।

डूगरेन्द्र सिंह को मिली पूर्ण सफलता

हरिहर निवास द्विवेदी का मानना है कि भाण्डेर दुर्ग की विजय में डूगरेन्द्र सिंह को पूर्ण सफलता मिली और उससे एक महंगी संधि करना जलालखां की विवशता हो गयी थी। डूंगरेन्द्र सिंह निश्चित रूप से जलाल खां की शक्ति को कुचलने में सफल रहा। 

नरवर के मुस्लिम शासक पर तन गयी भृकुटि

ग्वालियर का निकटवर्ती नरवर भी मुस्लिम आधिपत्य में था। अत: उस पर ग्वालियर के शासक डूंगरेन्द्र सिंह की भृकृटि तन गयी और 1438 ई. में उसे अपने हिंदू राज्य में सम्मिलित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर डूंगरेन्द्र सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया। नरवर पहुंचकर राय डूंगरेन्द्र सिंह ने किले का घेरा डाल दिया।

महमूद खिलजी का षडय़ंत्र

‘मउसिरे महमूद शाही’ के अनुसार 1438 ई. में महमूद खिलजी चंदैरी विजय कर अपनी राजधानी के लिए लौट रहा था, तो उसे मार्ग में ही नरवर के मुस्लिम अधिकारी बहार खां की सहायता का आमंत्रण मिला। महमूद की सेना यद्यपि हारी थकी हुई थी परंतु इसके उपरांत भी उसने मालवा को अपने अधीन लाने का सुअवसर त्यागना उचित नहीं समझा। वह नरवर न जाकर राय डूंगरेन्द्र सिंह की राजधानी ग्वालियर पर जा चढ़ा। उसकी योजना थी कि यदि हम ग्वालियर का घेराव करेंगे तो डूंगरेन्द्र सिंह नरवर को छोडक़र स्वयं ही चल देंगे, और जब वह यहां आएगा तो हम नरवर की ओर चल देंगे। इस प्रकार बिना युद्ध किये ही एक बड़ी सफलता मिल जाएगी।

महमूद खिलजी जब ग्वालियर पहुंचा तो यहां के दुर्ग रक्षकों ने बड़ी वीरता से दुर्ग की रक्षा की और खिलजी को दुर्ग के भीतर प्रवेश न करने दिया। यह इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है कि अपने स्वामी की अनुपस्थिति में केवल दुर्गरक्षक की शत्रु की एक बड़ी सेना को दुर्ग के भीतर प्रवेश न करने दिया। इस घटना की सूचना जब राय डूंगरेन्द्र को मिली तो उन्होंने नरवर का घेरा उठा लिया और ग्वालियर की ओर चल दिये। पर तब तक शत्रु अपनी योजना के अनुसार ग्वालियर छोड़ चुका था। खिलजी नरवर पहुंच गया और उसे अपना सामंत बनाने में भी सफल हो गया, परंतु उसकी योजना की रूपरेखा इतना तो स्पष्ट कर ही देती है कि वह उस समय राय डूंगरेन्द्र सिंह का सामना करने के साहस से शून्य था।

चंदेरी थी कभी शिशुपाल की राजधानी

चंदेरी मध्य प्रदेश के गुना जनपद के अंतर्गत है। बेतवा और उर्वशी नदियों की घाटी में चंद्रगिरि पहाड़ी से रक्षित इस नगरी को कभी चंद्रगिरि के नाम से ही जाना जाता था।

इसी चंद्रगिरि से चंदगिरि और चेदि या चंदेरी नाम रूढ़ हो गये। महाभारत काल में उसे चेदि देश के नाम ये जाना जाता था। शिशुपाल इसी चेदि देश का राजा था। चंदेरी के उत्तर में 12 किमी. की दूरी पर एक स्थान है, जिसे बूढ़ी चंदेरी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि शिशुपाल की राजधानी यही थी। यहां पर कीर्तिपाल नामक राजा का किला होने का शिलालेख मिला है।

1526 ई. में यहां का शासक मेदिनी राय था जिसने महाराणा संग्राम सिंह की ओर से खानवा के युद्ध में सम्मिलित होकर बाबर का प्रतिरोध किया था। बाबर ने 1528 ई. में इसे जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। कीर्तिपाल 1021 ई. में मुहम्मद गजनवी से युद्ध करते हुए मारा गया था। अलबरूनी (1021) इब्नबतूता (1342 ई.) फरिश्ता (1361 ई.) बादशाह बाबर (1528 ई.) तथा अबुलफजल (1565 ई.) ने चंदेरी के पुरातन वैभव पर प्रकाश डाला है।

जूनागढ़ बना रहा एक चुनौती

जूनागढ़ (गिरनार) एक ऐसा राज्य था जो अभी तक अपनी स्वंत्रता की ज्योति को विभिन्न झंझावातों के मध्य भी बचाये रखने में सफल रहा था। इस समय यहां राव मण्डलिक शासन कर रहा था। जिसने 1414-15 ई. में गुजरात के मुस्लिम राज्य के कुछ विद्रोहियों को अपने यहां शरण देकर गुजरात के शासक अहमद को मानो एक चुनौती ही दे डाली। फलस्वरूप सुल्तान ने गिरनार पर आक्रमण कर दिया। राव मण्डलिक ने उसका सामना करने का निर्णय लिया। परंतु अपने कितने ही योद्धाओं से हाथ धोने पर उसने दुर्ग में शरण लेना ही उचित समझा। सुल्तान ने जब उसके राज्य में विनाश लीला मचानी आरंभ की तो राव मण्डलिक ने समय को देखकर सुल्तान को कर देना स्वीकार कर संधि कर ली।

परंतु इतिहासकारों का मानना है कि यद्यपि जूनागढ़ पर गुजरात के शासकों ने कई बार आक्रमण किये परंतु उन आक्रमणों का कोई विशेष प्रभाव जूनागढ़ पर नहीं पड़ा। यहां का शासक कर देना स्वीकार करने के उपरांत भी विद्रोही बना रहा।

हिंदू राज्य चंपानेर की स्वतंत्रता भी बनी रही

चंपानेर का संस्थापक चावड़ावंश के वनराज का मंत्री चंपा था, जिसनेे 697 ई. में इस दुर्ग की नींव रखी थी। कालांतर में यह दुर्ग उसी चंपा के नाम से चंपानेर में परिवर्तित हो गया।

जब मुस्लिम सल्तनत से मुक्त होकर या उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर देश में कई नये राजवंशों की और राज्यों की स्थापना हो रही थी, तब चंपानेर के कुछ स्वतंत्रता प्रेमी हिंदुओं ने यहां एक हिंदू राज्य की स्थापना की। गुजरात और मालवा के तत्कालीन शासकों की परस्पर घोर शत्रुता थी। इस शत्रुता को चंपानेर के हिंदू शासक और भी बढ़ा रहे थे। ये लोग मालवा के मुस्लिम शासक को अपना सहयोग, समर्थन और सहायता आदि सब कुछ देते थे और गुजरात के मुस्लिम राज्य को उखाडऩे के षडयंत्रों में सदा लगे रहते थे। निश्चित रूप से चंपानेर के हिंदुओं की इस योजना में स्वतंत्रता प्रेम की झलक थी। परंतु उनका यह कार्य स्वाभाविक रूप से गुजरात के मुस्लिम शासकों को अच्छा नहीं लगता था। इसलिए गुजरात के शासकों के लिए चंपानेर किसी शत्रु राज्य से कम नहीं था।

राजा त्रयम्बक दास की विवेकशीलता

1418-19 ई. के विषय में ‘तबकाते अकबरी’ से हमें ज्ञात होता है चंपानेर के शासक त्रयम्बक दास ने मालवा के सुल्तान होशंग शाह को गुजरात पर हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस हमला को गुजरात का शासक अपनी विवेकशीलता से असफल करने में सफल हो गया। गुजरात का शासक उस समय अहमदशाह था। उसने चंपानेर के हिंदू शासक को दंडित करने के लिए 1428 ई. में गुजरात से प्रस्थान किया।

अहमदशाह ने किया भारी विनाश

अहमदशाह और उसकी  सेना ने चंपानेर के दुर्ग को जाकर घेर लिया। चंपानेर के हिंदू शासक ने वस्तुस्थिति को समझकर अहमदशाह से क्षमायाचना की और उसे कर देना स्वीकार कर लिया। फरीदी से हमें पता चलता है कि चंपानेर के शासक ने अहमदशाह के लौटते ही पुन: विद्रोह कर दिया। त्रयम्बकदास की इस प्रकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना और उसे कठोर दण्ड से दंडित करना अब अहमदशाह के लिए अनिवार्य हो गया था, इसलिए उसने  चंपानेर पर 1420-21 ई. में पुन: आक्रमण कर वहां भारी विनाश किया। परंतु इसके उपरांत भी इतिहासकारों का मत है कि इस अभियान में अहमदशाह असफल होकर लौटा था। इसलिए उसे पुन: 1421-22 ई. में चंपानेर पर हमला करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। उसने चंपानेर के दुर्ग का घेरा डाला और हिंदू राजा से कर लेकर चला गया।

त्रयम्बकदास बन गया था स्वतंत्रता की ज्योति

त्रयम्बकदास या तो चंपानेर में स्वतंत्र शासन करता रहा या अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ता रहा। उसका जीवन हिंदुओं के लिए उस समय अत्यंत मूल्यवान था, क्योंकि धर्म रक्षा और स्वतंत्रता की रक्षा की वह एक ज्योति बन गया था। जिससे अनेकों लोगों को ज्योतित होने की प्रेरणा और प्रोत्साहन मिल रहा था।

पुत्र ने भी पिता का अनुकरण किया

त्रयम्बक दास की मृत्यु के उपरांत चंपानेर का शासक उसका लडक़ा राय गंगादास सिंहासन रूढ़ हुआ। मुस्लिम शक्ति के समक्ष यह नया शासक कुछ समय तक मौन रहा। परंतु 1449-50 ई. में उसने गुजरात के शासक के विरूद्ध स्वतंत्रता का बिगुल फूंक दिया। फलस्वरूप गुजरात का शासक अहमद शाह पुन: चंपानेर पर हमलावर होकर युद्ध के लिए मैदान में आ डटा।

चंपानेर के शासक गंगादास ने अहमदशाह की सेना का सामना युद्ध के मैदान में किया, परंतु जब उसने देखा कि युद्ध में सफलता संदिग्ध है, तो उसने अपने आपको अपनी सेना सहित किले में समाविष्ट कर लिया। जिससे अहमदशाह ने किले का घेरा डाल दिया। ऐसी परिस्थितियों में गंगादास ने मालवा के शासक महमूद खिलजी से सहायता की अपील की और उसे आश्वस्त किया कि वह उसकी सेना के लिए प्रत्येक पड़ाव पर एक लाख टका व्यय करेगा। मालवा का शासक इस प्रकार के आश्वासन को सुनकर गंगादास की सहायता करने के लिए चंपानेर की ओर चल दिया।

कोधरा में  हुआ संघर्ष

हमें फरीद से ज्ञात होता है कि जब मालवा का शासक धोड़ कस्बे में आया तो गुजरात के शासक ने चंपानेर का घेरा उठाकर उससे युद्ध करना उचित समझा और कोधरा नामक स्थान पर दोनों में संघर्ष हुआ। हाजी उद्बीर का कहना है कि संघर्ष नहीं, अपितु मालवा का शासक अपने देश लौट गया। निजामुद्दीन अहमद का कहना है कि गुजरात के सुल्तान ने जब मालवा के सुल्तान को (एक हिंदू का साथ देने के लिए) व्यंग्य किया तो वह जहां था, वही रूक गया।

कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि मालवा के सुल्तान ने गुजरात के सुल्तान के विरूद्ध चंपानेर की सहायता नहीं की। साथ ही यह भी सत्य है कि यदि गुजरात के शासक के विरूद्ध चंपानेर का शासक गंगादास मालवा सुल्तान को आमंत्रण देकर नहीं बुलाता, तो गुजरात का सुल्तान गंगादास के राज्य को जीत सकता था। परंतु गंगादास की विवेकशीलता से उस समय चंपानेर की रक्षा हो गयी। इसके लिए चंपानेर के शासक गंगादास ने मालवा का कृतज्ञता ज्ञापन किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रांतीय स्तर पर मुस्लिम सुल्तानों से भी हिंदू शासकों का स्वतंत्रता आंदोलन चलता रहा।

क्रमश:

 

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