भारत का वास्तविक राष्ट्रपिता कौन ? श्रीराम या …….
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 9 क
ससदुपदेश पर करो अमल
खर और दूषण के अंत को दो राक्षसों का अंत तो कहा जा सकता है परंतु श्री राम की समस्याओं का अंत उनके अंत के साथ हो गया हो – यह नहीं कहा जा सकता । इन दोनों राक्षसों का अंत करके तो रामचंद्र जी ने अपने लिए और भी अनेकों समस्याओं को निमंत्रण दे दिया था। पर जो व्यक्ति समस्याओं और चुनौतियों से खेलने को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझता हो या जिसने यह संकल्प ले लिया हो कि मुझे समस्याओं और चुनौतियों से ही खेलना है, उसके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। श्रीराम की सोच थी कि चुनौतियों से खेलना जीवन का अटल लक्ष्य होना चाहिए । उन व्यक्तियों के कदम कभी पीछे नहीं हटते जो दृढ़ प्रतिज्ञ होकर आगे बढ़ते हैं। संसार में जो लोग पीछे हट जाते हैं वे दुर्भाग्य के अधीन हो जाते हैं और जो आगे बढ़ते हैं उनका सौभाग्य उदय हो जाता है।
चुनौतियों से खेलना जब लक्ष्य अटल हो गया,
पग पीछे हटते नहीं जब दृढ़ निश्चय हो गया ।
जो लोग पीछे हट चले वे दुर्भाग्य के आधीन हैं,
जो लोग आगे बढ़ चले- सौभाग्य उदय हो गया।।
भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ऐसे ही दृढ़ प्रतिज्ञ महापुरुषों की वंदना करने का आदेश देता है। क्योंकि ऐसे दृढ़ प्रतिज्ञ महापुरुषों की दृढ़ प्रतिज्ञा से ही राष्ट्र, समाज, धर्म और संस्कृति की रक्षा होना संभव है। कहने का अभिप्राय है कि श्री राम तो मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार थे कि अब उनके लिए और नई समस्याएं और चुनौतियां नए स्वरूपों में उनके सामने आने वाली हैं।
दंडकारण्य वन में क्या हो रहा था ? अभी तक रावण इस सब से अछूता था। उसे अपनी बहन और अपने भाइयों के साथ होने वाली किसी भी घटना की कोई सूचना अभी तक नहीं थी। इसका एक कारण यह भी था कि खर और दूषण दोनों को ही अपनी शक्ति पर घमंड था । वह नहीं चाहते थे कि दो वनवासी श्री राम और लक्ष्मण को मारने के लिए भी ज्येष्ठ भ्राता रावण को कोई सूचना दी जाए। उन्हें अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था कि वे श्री राम और लक्ष्मण का अंत कर देंगे और अपने भाई रावण को उनके अंत की सूचना देकर उसकी प्रशंसा के पात्र बनेंगे।
रावण इस बात को लेकर निश्चिंत था कि दंडकारण्य में उसके दोनों भाई आर्य संस्कृति के मानने वाले किसी भी ऋषि – महर्षि, तपस्वी या राजा या राजकुमार के लिए पर्याप्त हैं। रावण को अपने दोनों भाइयों पर पूर्ण विश्वास था। इसलिए उसका गुप्तचर विभाग भी खर और दूषण के राज्य क्षेत्र में सक्रिय नहीं रहता था। क्योंकि वह मानता था कि वे जो कुछ भी करेंगे, मेरे प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए करेंगे।
घटनाएं घटित होती जा रही थीं और निरंतर राक्षस शक्ति के लिए एक बड़ी चुनौती भी खड़ी होती जा रही थी। अब राक्षस जाति के लोगों के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वे दंडकारण्य वन में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना अपने राजा रावण को दें। तब अकंपन नाम का राक्षस खर और दूषण के वध की सूचना लेकर बड़े वेग से लंका के लिए दौड़ा। उसने वहां जाकर रावण को बताया कि अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्री राम के साथ हुए भयंकर युद्ध में खर और दूषण सहित हमारे हजारों सैनिक भी मारे गए हैं । मैं किसी प्रकार बचकर वहां से भागकर आने में सफल हुआ हूँ । दंडकारण्य में राक्षस जाति के अस्तित्व के लिए महा संकट खड़ा हो गया है। वहां पर राम और लक्ष्मण नाम के दो राजकुमार अयोध्या के राज्य से चलकर आए हैं। जिनके साथ एक सुंदर स्त्री भी है। यह दोनों ही राजकुमार शक्ति में अतुलित हैं। उनके बल की सीमा नहीं है।
अकंपन ने श्री राम और लक्ष्मण के बारे में चाहे जो कुछ भी अपने राजा रावण से कहा हो, पर उसे यह ज्ञात नहीं था कि भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले श्री राम की मान्यता थी कि :–
तुम संस्कृति और धर्म की रक्षार्थ जीवन व्रत धरो,
जितना भी संभव हो सके परमार्थ जीवन में करो।
जो लोग परमार्थ हित नित्य ही संकटों से हैं खेलते ,
उनके पुण्य कार्यों का निरंतर तुम अनुकरण करो।।
इस राक्षस ने रावण को बताया कि दशरथनंदन श्री राम अतुलित बलशाली हैं। उनके सामने हमारी हजारों की सेना और खर व दूषण की शक्ति भी कुछ पल में ही चूर-चूर हो गई। कहने का अभिप्राय है कि हम जिस व्यक्ति के घमंड में थे , वह शक्ति हमारी समाप्त हो गई। जिसके पश्चात असहाय होकर हम आप की शरण में आए हैं। अकंपन नाम के इस राक्षस के मुंह से ऐसे वचन सुनकर रावण अत्यंत क्रुद्ध होकर बोला कि -“ऐसा कौन व्यक्ति है जो मरने की इच्छा लेकर मेरे जनस्थान को नष्ट करने की शक्ति रखता है? ऐसा कौन अभागा है जो इस संसार में अब अधिक देर तक रहना नहीं चाहता ?
श्री राम और लक्ष्मण के विषय में सारा वृत्तांत सुनकर रावण अत्यधिक क्रुद्ध हुआ। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि दशरथनंदन श्री राम और लक्ष्मण उसके लिए इतने बड़े सिरदर्द बन सकते हैं ? उसने यह भी नहीं सोचा था कि उनके द्वारा इतनी बड़ी संख्या में राक्षसों का अंत हो सकता है ?
रावण ने कहा कि मैं इन दोनों का विनाश करने के लिए स्वयं ही जनस्थान में प्रवेश करूँगा। रावण ने भी अबसे पहले अनेकों बलशालियों का वध किया था । उसे अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था कि वह इन दोनों राजकुमारों का भी अंत कर देगा ।
स्वयं चलकर श्री राम और लक्ष्मण का अंत करने की रावण की बात सुनकर अकम्पन बोला “हे राजन ! श्रीराम जैसे चरित्रवान बलवान और पुरुषार्थी हैं वह मैं कहता हूं और आप सुनिए। महाराज श्रीराम जब क्रुद्ध होकर संग्राम करते हैं तब उनका सामुख्य करना असम्भव है। बाण विद्या में वे ऐसे निष्णात हैं कि जल से पूर्ण नदी के प्रवाह को अपने प्राणों से रोक सकते हैं। उनकी शक्ति का उस समय पार नहीं पाया जा सकता । अच्छे-अच्छे बलवान योद्धा भी उनके सामने टिक नहीं पाते। मैंने राम को युद्ध करते हुए देखा है, इसलिए मैं यह कह सकता हूं कि युद्ध में तुम राम को नहीं जीत सकते। वह युद्ध में इतने निपुण हैं कि संपूर्ण राक्षसों की सहायता से भी तुम राम पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते । युद्ध में उनका पराक्रम देखते ही बनता है । इतना ही नहीं वह युद्ध क्षेत्र में जिस बौद्धिक संतुलन के साथ कार्य करते हैं वह भी अपने आप में प्रशंसनीय है। श्री राम और लक्ष्मण के रूप सौंदर्य के साथ-साथ उनके अस्त्र-शस्त्र प्रेम और युद्ध कौशल के बारे में अकंपन ने रावण को बिल्कुल सच – सच बता दिया कि उन्हें पराजित करना तुम्हारे लिए भी असंभव है। उसने बता दिया कि श्रीराम जब युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर शत्रु पर वार करते हैं तो उनकी स्फूर्ति और युद्ध कौशल देखते ही बनता है वह जितने अपने शारीरिक सौंदर्य में आकर्षक हैं उतने ही युद्ध नीति में भी पारंगत हैं।
जिस राष्ट्र में हों श्री राम जैसे वीर- व्रतधारी सदा ,
जिनका युद्ध कौशल श्रेष्ठ, अकथ्य स्फूर्ति की अदा।
दे सके पराजय उन्हें ,कौन ऐसा शूरवीर है यहाँ,
सूर्यवंशी शूरमा का कोई दोष मुझको तू बता।।
अकम्पन ने कहा कि मेरे विचार में सब देव और असुर मिलकर भी श्रीराम को नहीं मार सकते । कंपनी रामचंद्र जी के युद्ध कौशल की भूरि – भूरि प्रशंसा करते हुए रावण को यह भी बताया कि उसके मारने का केवल एक ही उपाय है, जिसे मैं तुम्हें बताता हूं – श्रीराम की धर्मपत्नी का नाम सीता है । जो कि संसार की सभी स्त्रियों में सबसे अधिक सुंदर है । उसकी कमर पतली है। उसके शरीर का प्रत्येक अंग सुंदर और सुडौल है । यह युवती है और रतन जड़ित आभूषणों से सुभूषित है। तुम उस महावन में जा छल कपट से जैसे भी संभव हो उसकी स्त्री को हर लो। सीता के वियोग में वह कामी राम अपने प्राण त्याग देगा।
अकंपन के द्वारा इस प्रकार के वार्तालाप से पता चलता है कि रावण को शूर्पणखा से भी पहले दंडकारण्य वन में हुई घटना की सूचना अकंपन के द्वारा ही प्राप्त हुई थी। इतना ही नहीं, शूर्पणखा से भी पहले सीता के हरण करने की योजना भी अकम्पन ने ही रावण को बताई थी।
अकम्पन अपने स्वामी रावण के विषय में यह भली प्रकार जानता था कि वह कामी और विलासी है । उसे जैसे ही रामचंद्र जी की पत्नी सीता जी के विषय में बताया जाएगा तो उसकी कामवासना जाग जाएगी और वह इस नीच कर्म को करने को तैयार हो जाएगा। दूसरी बात यह भी है कि जैसा स्वामी होता है सेवक वैसे ही हो जाते हैं। यदि राजा कामी विलासी और भोगी है तो उसे ऐसा परामर्श देने वाले स्वाभाविक ही उसके साथी बन जाते हैं।
रावण अनीति, अन्याय और अधर्म का प्रतीक था। उसने अकम्पन द्वारा सुझाए गए परामर्श पर तनिक भी विचार नहीं किया। उस कामी रावण को तुरंत ही अपने संदेशवाहक अकंपन के द्वारा सुझाया गया प्रस्ताव पसंद आ गया। यही कारण था कि उसने बिना आगा पीछा सोचे तुरंत अकंपन से कह दिया कि वह सीता का हरण करके महानगरी लंकापुरी में लाएगा।
अपने इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिए रावण ताड़का पुत्र मारीच के आश्रम में पहुंचा । जहां उसने मारीच को अपने मन की सारी बातें बताते हुए कहा कि राम ने मेरे सभी सीमा रक्षकों को मार दिया है और मेरे अजेय जनस्थान को भी युद्ध में नष्ट भ्रष्ट कर दिया है। अब मैं राम की धर्मपत्नी सीता का अपहरण करके लाऊंगा। तुम्हें इस काम में मेरी सहायता करनी होगी। क्योंकि मैं अपमान और प्रतिशोध की अग्नि से जल रहा हूं । मैं नहीं चाहता कि राम और उसका भाई लक्ष्मण अब अधिक देर तक जीवित रहें। उन्होंने जो भी कुछ मेरे साथ किया है, मैं उसका प्रतिशोध लेना चाहता हूं।
जो नीच कामी लोग होते, अपनाते हैं वह अधर्म को,
रावण ने भी अपना लिया, अकंपन के परामर्श को ।
सीताहरण की योजना पर अब मुग्ध रावण हो गया ,
वह भूल गया श्रीराम के धर्म और न्याय के संघर्ष को।।
मारीच रावण की अपेक्षा बुद्धिमान तथा नीति और न्याय का पालन करने वाला व्यक्ति था। उसने जैसे ही रावण के मुंह से यह शब्द सुने कि वह सीता का अपहरण करके यहां लाना चाहता है तो इस पर उसने रावण से कहा कि तुम्हें यह विचार किसने दिया है ? तनिक उसके बारे में मुझे बताओ। मैं जानना चाहता हूं कि ऐसा कौन व्यक्ति है जो संपूर्ण राक्षस वंश की कीर्ति और गौरव को नष्ट करना चाहता है ? ऐसा कौन व्यक्ति है जिसका बिना बुलाए ही काल उसके सिर पर मंडरा रहा है। मैं यह भी जानना चाहता हूं कि किस व्यक्ति ने तुम्हें ऐसा परामर्श देकर राक्षस जाति के विनाश की आधारशिला रख दी है। इस निन्दित कर्म के लिए जिसने तुम्हें प्रोत्साहित किया है रावण ! वह तुम्हारा मित्र नहीं अपितु कोई शत्रु है। क्योंकि वह तुम्हारे हाथ से विषधर सर्प के मुख में से विषदन्त उखड़वाना चाहता है। मारीच ने रावण को यह भी समझाया कि रामचंद्र जी की युद्ध नीति और युद्ध कौशल के सामने कोई टिक नहीं सकता। वैसे भी श्री राम नीति व न्याय में पारंगत होने के साथ-साथ धर्म युद्ध करने में भी पारंगत हैं। उनका सात्विक क्रोध तुम्हारे वंश का नाश कर देगा। जब वह युद्ध कर रहे होंगे तो हे राक्षस राज ! याद रखना कि उन्हें कोई युद्ध करते हुए देख भी नहीं पाएगा , लड़ना तो दूर की बात है। इसलिए तुम्हें लंका पर कृपा करते हुए राम से शत्रुता मोल नहीं लेनी चाहिए। नीति और धर्म का तकाजा यही है कि तुम्हें श्री राम जैसे धनुर्धारी से शत्रुता मोल नहीं लेनी चाहिए। शत्रुता सदा उस व्यक्ति से लेनी चाहिए जो तुम से कमजोर हो। अपने से बलशाली से सफलता मोल लेने का अर्थ है अपने विनाश की योजना स्वयं ही बनाना।
आज तुम्हें अपना मनोरथ त्याग कर प्रसन्नता पूर्वक लंका लौट जाना चाहिए । तुम्हें सुमार्गगामी होकर अपनी पत्नियों के साथ रमण करना चाहिए और श्री राम को प्रसन्न होकर अपनी धर्म पत्नी के साथ विहार करने दें। इसी में देश और प्रजा का हित है। तुम्हें अपने इस नीच कर्म को त्यागना चाहिए ,अन्यथा अनर्थ हो जाएगा। इस प्रकार के उपदेश से मारीच ने रावण को बता दिया कि वह पर नारी के विषय में ना सोचे । कम से कम सीता जैसी सती साध्वी स्त्री के बारे में तो बिल्कुल ना सोचे, अन्यथा उसके दिए गए श्राप से वह स्वयं भस्म हो जाएगा। किसी भी राजा को अपने वंश की रक्षा करने का भी उतना ही ध्यान रखना चाहिए जितना वह अपनी प्रजा की रक्षा करने का ध्यान रखता है जो राजा किसी भी प्रकार के अहंकार में जीता है वह अपने वंश की रक्षा करने के प्रति असावधान होता है, वह निश्चय ही विनाश को प्राप्त हो जाता है।
मारीच ने उस समय रावण को जो भी उपदेश दिया वह लोक कल्याणकारी उपदेश था। वह जो कुछ भी बोल रहा था अपनी अंतरात्मा की आवाज से बोल रहा था । उसे साक्षात विनाश होता हुआ दिखाई दे रहा था। जिसे उसकी अंतश्चक्षु अनुभव कर रही थीं। उस विनाश को वह रावण को भी दिखा देना चाहता था। उसके उपदेश की शैली बड़ी निराली थी। वह निष्पाप और निष्पक्ष होकर रावण को सही सलाह दे रहा था। वह जो कुछ भी बोल रहा था, वह राष्ट्रहित में और प्राणी मात्र के हित में बोल रहा था। जिसने तात्कालिक आधार पर रावण को भी प्रभावित किया। यही कारण था कि रावण मारीच के उपदेशों से प्रभावित होकर अपने महलों की ओर लौट गया।
मारीच ने उपदेश देकर रावण को यह समझा दिया,
निष्पाप और निष्पक्ष होकर मार्ग सही बतला दिया।
पापवासना दूर कर और तू चित्त अपना शुद्ध कर,
यदि कहीं पर चूक की तो विनाश भी दिखला दिया।।
मारीच और रावण के उपरोक्त संवाद और मिलन के पश्चात शूर्पणखा लंका पहुंचती है। शूर्पणखा ने देखा कि रावण उस समय अपने मंत्रियों से घिरा हुआ राजा इंद्र के समान बैठा हुआ था। तब उसने रावण के सामने अपनी व्यथा कथा रखनी आरंभ की उसने रावण से कहा कि तू काम भोगों में लिप्त होकर मतवाला हो रहा है और राक्षस जाति इस समय घोर संकट से जूझ रही है। होना तो यह चाहिए था कि तू अपनी राक्षस जाति के दुखों के बारे में कुछ सोचता, पर लगता है कि तू पूर्णतया उसकी ओर से असावधान है । तेरे पास दूतों की भी उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। तेरा गुप्तचर तंत्र पूर्णतया निष्क्रिय है। तूझे यह पता होना चाहिए कि जिस राजा के पास उसका गुप्तचर तंत्र बढ़िया नहीं होता वह राजा राजा न होकर साधारण जनों की श्रेणी में आ जाता है। राजा लोग दूर देशों के समस्त वृतांत की गुप्तचरों के द्वारा जानकारी रखते हैं, पर तेरे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।
इस प्रकार के वचनों को सुनाकर शूर्पणखा रावण के शौर्य को जगाने का प्रयास करती है। वह कहती है कि यह अत्यंत दु:ख का विषय है कि तेरा गुप्तचर विभाग पूरी तरह निष्क्रिय और निष्फल हो चुका है। क्योंकि तुझे अभी तक अपने कुटुंबियों के वध का समाचार भी ज्ञात नहीं हुआ । तेरे दो भाई खर और दूषण और उनकी 14 सहस्र सेना राम ने मार दी और तू यहां बड़े आराम से बैठा है ? हे रावण ! तू कामलोलुप है और पराधीन होने के कारण अपने राज्य के ऊपर आए संकट को भी नहीं समझता।
इसके पश्चात शूर्पणखा ने श्रीराम की वीरता, शौर्य, साहस और पराक्रम का यथावत वर्णन रावण के समक्ष किया। इसके साथ ही उसने रामचंद्र जी के भाई लक्ष्मण के बारे में भी बताया कि वह किस प्रकार पराक्रमी और महा तेजस्वी है ? तत्पश्चात उसने सीता जी के विषय में बताया कि वह पूर्णमासी के चंद्रमा के समान मुख वाले विशाल नेत्रों वाली है।
यहां पर शूर्पणखा ने रावण को यह भी बताया कि वह नारी तुम्हारी भार्या होने के योग्य है और तुम उसके पति होने के योग्य हो। मैं उसे तुम्हारे लिए लाना चाहती थी और जब मैंने ऐसा प्रयास किया तो निर्दयी राम और लक्ष्मण ने मेरे दोनों कान और नाक काट डाली। इस प्रकार वह राक्षसी अपने वास्तविक चरित्र को छुपा गई और रावण को भड़काने के लिए उसने इन शब्दों का प्रयोग किया कि मैं सीता को तुम्हारे लिए लाना चाहती थी। बस, इसी बात पर लक्ष्मण ने मेरी नाक और कान काट दी है। अब मैं चाहती हूं कि तू स्वयं जाकर उस अबला सीता को हरण करके ले आ।
यदि शूर्पणखा अपने वास्तविक चरित्र का उल्लेख रावण के समक्ष करती तो मारीच के वचनों से शांत हुआ रावण संभवत: उसे ही डांट डपटकर शांत कर देता। परंतु शूर्पणखा ने अपने त्रिया चरित्र का परिचय देते हुए पानी में आग लगा दी । यदि यह घटना इस प्रकार ना हुई होती तो शायद लंका भविष्य की विभीषिकाओं से बच सकती थी । इस प्रकार सोने की लंका को आग की भेंट चढ़ाने के लिये शूर्पणखा का यह झूठ ही उत्तरदायी था।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत