भारत में दहेज जैसी कुप्रथा का कैसा रहा है इतिहास ?
वंशिका पाल
सुंदर, सुशील, संस्कारी, आज्ञाकारी और घर संभालने वाली लड़की की तलाश बरसों से यह पितृसत्तात्मक समाज करता आया है। इन सब ‘गुणों’ के साथ उन्हें चाहिए होती है एक ऐसी लड़की जो अपने साथ कई बैगों में समान भरकर ससुराल ला सके। यह सामान कहने को तो लड़की की पसंद के बताए जाते हैं पर असल में होते हैं उसके ससुराल वालों की ज़रूरत और पसंद के हिसाब से होगा। जैसे कि उन्हें घर में अगर एसी की जरूरत है तो दहेज में एसी आएगा। लड़के के पास कहीं आने- जाने के लिए चार- पहिया गाड़ी नहीं है तो उसकी शादी में पहली मांग यही होगी कि उसे गाड़ी उसकी पसंद की दी जाए। अगर कोई उनकी इन ‘ज़रूरतों’ को पूरा करने में सक्षम नहीं होता है तो फिर शुरू होता है दहेज उत्पीड़न। लड़की को ताने देते हैं, मारते हैं और कई मामलों में लड़कियों की हत्या तक कर दी जाती है। दहेज के कारण होनेवाले उत्पीड़न के उदाहरण आप आसानी से अपने आस-पास देख सकते हैं। बात अगर भारत की करें तो यहां दहेज प्रथा ने अपने पैर सालों से जमा रखे हैं।
भारत में स्वतंत्रता से पहले शुरू हुए नारीवादी आंदोलन ने एक लंबा सफर तय किया है। इस दौरान महिलाओं द्वारा कई मुद्दे उठाए गए और जिनमें से एक मांग थी, दहेज प्रथा को समाप्त करने की। इसके तहत दहेज के लिए महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कार्रवाई की मांग की गई थी। 1977 के दौर में दहेज उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी। शुरुआती तौर पर दिल्ली में मांगें उठाई गई, जिसमें न केवल दहेज को समाप्त करना शामिल था, बल्कि दहेज के लिए किए गए अपराधों, विशेष रूप से हत्या और आत्महत्या के लिए उकसाने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की गई थी। इस आंदोलन का सबसे व्यापक रूप दिल्ली में देखा गया, शायद इसलिए कि दिल्ली में देश में दहेज हत्याओं की संख्या सबसे ज्यादा थी। वहीं, दिल्ली में दहेज और उससे जुड़े अपराधों के मुद्दे को उठाने वाली पहली संस्था ‘महिला दक्षता समिति’ थी।
हालांकि, एक नारीवादी समूह ‘स्त्री संघर्ष’ की वह पहल थी जिसने दहेज उत्पीड़न के मुद्दे को घरों में एक आम विषय बना दिया था। 1 जून 1979 को, उन्होंने तरविंदर कौर की मौत के खिलाफ एक विरोध मार्च का आयोजन किया। तरविंदर कौर की सास और भाभी ने दहेज के लिए उन्हें आग के हवाले कर दिया था। इस आंदोलन की पहल इंद्रप्रस्थ कॉलेज महिला समिति द्वारा की गई थी जिन्होंने इस घटना के ख़िलाफ़ मार्च आयोजित करने के लिए ‘स्त्री संघर्ष’ से संपर्क किया था। यह आंदोलन एक राष्ट्रीय सफलता बन गया और प्रेस द्वारा इसे कवर किया गया। इस आंदोलन की सफलता के बाद पूरी दिल्ली में कई और विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए। उसके बाद, कंचन चोपड़ा की हत्या के खिलाफ दिल्ली में एक और बड़ा प्रदर्शन हुआ। इस मामले में 29 जून को पीड़िता के भाई द्वारा दहेज उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई गई थी। पुलिस ने इस मामले को दर्ज करने से इनकार कर दिया था क्योंकि उनके हिसाब से यह ‘पारिवारिक मामला’ था। अगले दिन चोपड़ा की मौत हो गई। कंचन के परिवार ने दिल्ली के मालवीय नगर के निवासियों के साथ ससुराल वालों पर हत्या का आरोप लगाने की मांग को लेकर थाने तक मार्च निकाला।
दहेज से जुड़ा मामला कभी भी पारिवारिक मामला नहीं हो सकता है क्योंकि आप जब दहेज लेते हैं या देते हैं तो आप उसमें कहीं न कहीं दिखावे की बात को भी आगे रखते हैं।
एक अन्य उदाहरण में, एक महिला प्रेमलता ने अत्यधिक दहेज की मांग के कारण शादी से दो दिन पहले अपनी सगाई तोड़ दी। उन्होंने महिला संगठन ‘नारी रक्षा समिति’ से भी दूल्हे के परिवार के खिलाफ़ विरोध-प्रदर्शन करने को कहा था। संगठन ने उस व्यक्ति के घर के सामने प्रदर्शन किया। वैसे देखा जाए तो इतने सालों बाद आज भी लोग दहेज उत्पीड़न के मामले को ‘पारिवारिक मामला’ बताकर उसके खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाते हैं। अगर करवाते भी हैं तो उसके खिलाफ़ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जाती है। आखिर में, बहुत से उदाहरण ऐसे भी होते हैं जो ससुराल वालों की मांग को यह सोचकर पूरा करते हैं कि आखिर लड़की को जाना उसके ससुराल ही है। ऐसी सोच के चलते बहुत से दहेज उत्पीड़न के मामले हमारे सामने ही नहीं आते हैं।
दहेज प्रथा के ख़िलाफ़ इन आंदोलनों ने सार्वजनिक रूप से देशभर में दहेज उत्पीड़न के मुद्दे को उठाने में समाज पर महिला समूहों और नारीवादियों के प्रभाव को दिखाया है। हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं है कि आंदोलन में शामिल लोगों को भी आम लोगों तक पहुंचने में कई बाधाओं का भी सामना करना पड़ा। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण था शादी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण। जो महिलाएं अपने पति या ससुराल वालों के हाथों पीड़ित होती थीं, वे अक्सर विकल्प के अभाव में अपने शोषणकर्ताओं के साथ रहने को मजबूत होती थीं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अपने माता-पिता के घर वापस जाना या पति से अलग रहना ठीक नहीं माना जाता, क्योंकि महिलाओं और उनके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता था। यह 1970 के दशक की बात ही नहीं यह आज की भी बात है कि महिलाओं की एक बार शादी होने के बाद उन्हें पराये घर की माना जाता है और दोबारा अपने मां-बाप के घर वापस जाना ठीक नहीं माना जाता है। इसके अलावा, महिलाओं को पहले और अभी भी सामाजिक रूप से आज्ञाकारी, अपने पतियों के अधीन रहने और उनकी हर बात मानने के लिए बाध्य किया जाता है। शारीरिक, यौन और मानसिक शोषण के बाद भी, महिलाएं अपने पतियों की सेवा में हमेशा हाज़िर रहती हैं।
दहेज उत्पीड़न के ख़िलाफ चलाए गए अपने आंदोलन में स्त्री संघर्ष ने अपने घोषणापत्र में दहेज प्रथा के खिलाफ और महिलाओं के अधिकारों को लेकर बात की। उन्होंने कहा कि दहेज एक तरह से दुल्हन को दूल्हे के घर में रखने के लिए हर दिन दी जानेवाली एक कीमत है। इसके अलावा इस आंदोलन से पहले, आग में जलकर मरनेवाली औरतों को आत्महत्या और एक पारिवारिक मामला माना जाता था और आज भी माना जा रहा है। यहां तक कि जब पीड़ित अपने पति या ससुराल वालों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त समय तक जीवित रहती है, तो कार्रवाई में इतनी देरी होती और अंत में ये मामले आत्महत्या के रूप में दर्ज किए गए। यह शायद इसलिए भी था क्योंकि दहेज की मांग से संबंधित अपराधों के लिए विशेष रूप से कानून तब तक लागू नहीं थे। कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आम लोगों के प्रयासों के बाद ही सकारात्मक बदलाव आए। लोग इस मुद्दे के खिलाफ आवाज़ उठाने को तैयार थे। उनकी भागीदारी ने आंदोलन की सीमा को और बड़ा कर दिया और दिखाया कि दहेज की मांग के लिए किए गए अपराधों का विरोध व्यक्तिगत स्तर पर भी किया जा रहा था। अपराधियों या पुलिस को डराने-धमकाने के लिए लोगों ने तरह-तरह के हथकंडे अपनाए, जैसे पब्लिक शेमिंग, एक साथ इकट्ठा होना या पति का चेहरा काला करना। यहां तक कि जिन महिलाओं को उनके ससुराल वालों ने प्रताड़ित किया था वे भी अपने अपराधियों के खिलाफ सामने आने से नहीं डरीं। महिला संगठन भी इस कारण के लिए उनके इस योगदान में साथ थी। उन्होंने सार्वजनिक सभाएं की जहां लोगों ने दहेज न लेने या न देने का संकल्प लिया।
नारीवादियों ने यह भी मांग की कि दहेज के लिए उत्पीड़न के कारण एक महिला जिसकी मौत आत्महत्या से हुई, इस सबूत को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप के लिए पर्याप्त माना जाए। इसके अलावा, इस तरह के उत्साह और लोगों की भागीदारी ने महिला कार्यकर्ताओं और नारीवादियों को दहेज से जुड़े दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के बारे में लोगों को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इन सब में पहला था ‘स्त्री संघर्ष’ जिसने कार्यकर्ताओं और लोगों के प्रयासों को आगे लाने की कोशिश की। दहेज के लिए उत्पीड़न और हत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर लाया गया और यह एक सार्वजनिक चिंता का विषय बन गया। दहेज की मांग और उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन ने लोगों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक धारणाओं में बदलाव के साथ-साथ कानूनों में संशोधन की मांग को बढ़ावा दिया। ये आंदोलन, भारत में बड़े नारीवादी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना।
इन आंदोलनों के कारण कानून में बदलाव भी हुई। दिसंबर 1983 में शुरुआत करते हुए आपराधिक कानून (दूसरा संशोधन) अधिनियम पारित किया गया था जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498A जोड़ी गई। वहीं, भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी धारा 113 A को शामिल करके संशोधित किया गया। अंत में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 में भी संशोधन किया गया। सितंबर 1980 में हरियाणा सरकार ने एक पहल की विवाहित महिलाओं की अप्राकृतिक मौतों को हत्या (धारा 302, आईपीसी) के रूप में दर्ज करना अनिवार्य करके, जबकि आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले आईपीसी की धारा 306 के तहत दर्ज किए जाएं।
देखा जाए तो 1979 के आंदोलन के बाद लोगों में दहेज उत्पीड़न के खिलाफ जागरूकता बढ़ी और लोगों ने इस विषय को लेकर आगे आना शुरू किया। महिला कार्यकर्ताओं की हिम्मत की भी हमें दाद देनी होगी कि कैसे उन्होंने लोगों के बीच जागरूकता लाने का काम किया लेकिन इन सब प्रयासों के बाद आज भी लोग अपने आस-पास दहेज उत्पीड़न के मामलों को नजरअंदाज कर देते हैं। दहेज से जुड़ा मामला कभी भी पारिवारिक मामला नहीं हो सकता है क्योंकि आप जब दहेज लेते हैं या देते हैं तो आप उसमें कहीं न कहीं दिखावे की बात को भी आगे रखते हैं। शादी होने के बाद आज भी लोग यह पूछने से कतराते नहीं हैं कि बहु के घर से क्या सामान आया या आपने अपनी बेटी को दहेज में क्या दिया। वहीं, कुछ लोगों का कहना यह भी होता है की वे दहेज अपनी बेटी की खुशी के लिए दे रहे होते हैं और फिर लड़के के घरवाले आज भी यही उम्मीद लगाकर बैठे होते है कि बहु के दहेज में जो आएगा उनसे उनका घर चलेगा। इस सोच के चलते शुरू होता है उत्पीड़न का सिलसिला, शुरुआत होती है तानों से, फिर मार- पीट और आगे जाकर हत्या। आंदोलन से हमारे कानूनों में फ़र्क आ सकता है, हम कुछ लोगों की सोच में बदलाव भी ला सकते हैं। लेकिन दहेज को लेकर समाज की सोच का परिवर्तन तभी होगा, जब हम दहेज लेने या देने की मांग को सिरे से खारिज कर देंगे।