अमरीका और ईरान के बीच हुए समझौेते के अर्थ
एस. निहाल सिंह
अमेरिका के नेतृत्व में विश्व की छह बड़ी ताकतों और ईरान के बीच हुआ ऐतिहासिक परमाणु समझौता एक युगांतर घटना है, जिसकी वजह से मध्य-पूर्व एशिया की बड़ी शक्तियों के आपसी रिश्तों के समीकरण में बदलाव आने के अलावा ईरान एवं अमेरिका के बीच ीरे-ीरे फिर से दोस्ती कायम होने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। यह सच है कि इस समझौते को अभी कई रुकावटों से पार पाना होगा।
अभी इस्राइली प्रानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू व अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और अन्य अमेरिकी सांसद इसके विरो में हैं, जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह उपलब् िएक जीत की तरह है, जिसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की। यह समझौता एक ऐसी थाती है, जिसे वह अपने पीछे छोडक़र जाएंगे।
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी का निष्कर्ष है कि रचनात्मक वार्ता कारगर होती है। यह समझौता मुख्यत: ईरानी परमाणु कार्यक्रम के सैन्य उद्देश्यों पर दीर्घकालीन रोक लगाने के लिए बनाया गया है। इसके लागू होने से ईरान के यूरेनियम उच्च संर्वन कार्यक्रम पर तो रोक लगेगी ही बल्कि निम्न कोटि के यूरेनियम का संचयन भी इतना कम हो जाएगा कि परमाणु बम बनाने लायक माल इक_ा होने में कई दशक और लग जाएंगे। बदले में अमेरिका और पश्चिमी जगत द्वारा ईरान के लिए सांसत बने कड़े आर्थिक प्रतिबंों को उठा लिया जाएगा। उसके परमाणु संयंत्रों की बृहद जांच नियुक्त किए गए विशेषज्ञों द्वारा लगातार की जाती रहेगी। हालांकि ईरान पर लगा हथियार प्रतिबं अगले पांच साल तक भी जारी रहेगा और इस समझौते में यह प्रावान है कि यदि ईरान किसी शर्त का उल्लंघन करता है तो तमाम प्रतिबंों को फिर से लागू कर दिया जाएगा।
लेकिन जहां एक ओर ईरान के कट्टरपंथी इस समझौते को पलीता लगाने का पूरा-पूरा यत्न करेंगे। वहीं दूसरी ओर इसे सबसे बड़ा खतरा अमेरिका के रिपब्लिकनों और कुछ डेमोक्रेट सांसदों से दरपेश है। अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट के पास इस समझौते को पारित करने या निरस्त करने के वास्ते 60 दिन का समय है। इसे वीटो करने के लिए सदन के दोनों सदनों के दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी है, जो कि मौजूदा हालात में संभव नहीं लगता। लेकिन जिस तरह से अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बनने के चाहवानों की कतार लंबी होती जा रही है, उससे डर है कि कहीं यह मुद्दा प्रचार पाने के लिए एक आसान निशाना न बन जाए।
इस समझौते को जिस तरह से सिरे चढ़ाया गया है, उससे न सिर्फ ईरान का क्रांति के दिनों से चला रहा अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार खत्म हो जाएगा बल्कि अमेरिका-ईरान के बीच दुबारा दोस्ती होने से एक नए आयाम का सूत्रपात होगा। इस्लामिक स्टेट के उद्भव ने इस इलाके के परिदृश्य को जटिल बना दिया है। यह गुट शिया-सुन्नी के बीच फूट और इराक में अमेरिका के नाकाम आक्रमण से उपजी परिस्थितियों का लाभ उठा कर मजबूत हुआ है। इससे यहां के मुल्कों के बीच जो रिवायती क्षेत्रीय गुटबंदी थी, उसमें भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जहां ईरान के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर सऊदी अरब और इस्राइल एक साथ खड़े नजर आते हैं वहीं सीरिया के मामले में एक-दूसरे के खिलाफ रहे अमेरिका और ईरान आईएस के खिलाफ जंग में साथ मिलकर भले ही न लड़ रहे हों लेकिन समांतर रूप से उनकी सेनाएं एक ही ध्येय के लिए युद्धरत हैं। ईरान के पास इस इलाके में पहले से ही अपरोक्ष या परोक्ष समर्थकों का जमावड़ा है। इराक में ताकतवर हुई नई शिया-बहुल सरकार इसकी पक्की सहयोगी है।
यमन में ईरान की मदद से उग्र हुए हूती लड़ाके सऊदी अरब के नेतृत्व में होने वाले हवाई हमलों का सामना कर रहे हैं और बहरीन, जो अमेरिका के पांचवें नौसैनिक बेड़े का अड्डा भी है, वहां के शिया बहुसंख्या में होने के बावजूद सुन्नी सरकार के नीचे दबकर रहने से कुंठित हैं, इसलिए वे भी ईरान के पक्ष में हैं। इसके अलावा लेबनान का शिया अतिवादी गुट हिजबुल्लाह भी ईरान के प्रति स्नेह रखता है।
अमेरिका के निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के मन में भी ईरान के प्रति संदेह है क्योंकि उन्हें अच्छी तरह याद है कि कैसे अमेरिका से घनिष्ठ मित्रता रखने वाले ईरान के पूर्व शाह मुहम्मद रजा पहलवी के खिलाफ जब क्रांति हुई थी तो अमेरिका द्वारा शाह की मदद करने से चिढ़े क्रांतिकारियों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास में सैकड़़ों अमेरिकी नागरिकों और राजनयिकों को सालों तक बंक बना कर रखा था और अमेरिकी कमांडो कार्रवाई से छुड़वाने की नाकाम कोशिश ने उनका जीवन खतरे में डाल दिया था। अमेरिका के अगले शीर्ष सेनाध्यक्ष बनने जा रहे जनरल जोसेफ डनफोर्ड जूनियर का कहना है कि मध्य-पूर्व के इलाके में ईरान का बुरा प्रभाव आगे भी बना रहेगा।
एक दफा यह परमाणु समझौता जब सारी अड़चनों को पार कर लेगा तो अंत में वैश्विक स्तर पर इससे ऐसा संवेग बन जाएगा जो अमेरिका की यहूदी लॉबी के इरादों को परास्त करके रख देगा और इसके सिरे चढऩे से इलाके के बड़े देशों और अग्रणी शक्तियों को माहौल में बदलाव लाने और राजनीतिक समीकरण बनाने का ज्यादा मौका मिल सकेगा।