राक्षस को जीने का अधिकार नहीं
शत्रु जब अपनी दुष्टता की पराकाष्ठा पर हो तब उसके प्रति किसी भी प्रकार का दयाभाव प्रकट करना उचित नहीं होता। यदि उन परिस्थितियों में उस पर दयाभाव प्रकट करते हुए उसे छोड़ दिया गया तो वह चोटिल सांप की भांति आप पर फिर हमला करेगा और बहुत संभव है कि इस बार के हमला में आपका नाश ही कर दे।
दुष्टता की पराकाष्ठा पर शत्रु जब हो खड़ा,
दलन दमन और दुष्टता के भाव पर हो अड़ा।
ऐसे शत्रु और दुष्ट का विनाश करना चाहिए
जो अनीति और अधर्म के पक्ष में हो लड़ा।।
ऐसी परिस्थितियों में दूषण का वध करने के बाद रामचंद्र जी के लिए खर का नाश करना भी आवश्यक हो गया था । क्योंकि यह स्वभाविक था कि यदि खर जीवित रह जाता तो वह भी उन्हें कष्ट पहुंचाने का कार्य करता रहता। उधर स्वयं खर भी रामचंद्र जी से युद्ध करने का इच्छुक था। उसकी इस इच्छा को क्रियान्वित होने से पहले उसके सेनापति त्रिशिरा ने उसे रामचंद्र जी से युद्ध करने से रोक दिया और कहा कि आप से पहले रामचंद्र जी से युद्ध मैं करूंगा। मेरा प्रयास रहेगा कि उसे आज कुछ ही क्षणों में समाप्त कर दूं।
इसके पश्चात खर ने अपने सेनापति को रामचंद्र जी से जाकर लड़ने की आज्ञा प्रदान कर दी । रामचंद्र जी ने त्रिशिरा को अपनी ओर आते देख धनुष की टंकार कर उस पर तीखे बाण छोड़ते हुए उसे रोका। रामचंद्र जी और खर के सेनापति के बीच बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।
त्रिशिरा ने रामचंद्र जी के माथे पर तीन बाण मारे । तब रामचंद्र जी ने कहा कि उसके मारे हुए बाण मेरे मस्तक में फूलों के समान स्पर्श कर रहे हैं । इतना कहकर उत्साहित श्रीराम ने कुपित होकर विषधर सर्प के समान 14 बाण त्रिशिरा की छाती में मारे। फिर तेजस्वी श्रीराम ने सन्नतपर्व नामक 4 बाणों से त्रिशिरा के चारों घोडों को मार गिराया। इसके बाद 8 बाण त्रिशिरा के सारथि को मारकर रथ से नीचे गिरा दिया और एक बाण मारकर उसके रथ की ऊंची ध्वजा को ही काट दिया। घोड़ा और सारथि के मारे जाने पर जब त्रिशिरा रथ से कूदने लगा तब श्रीराम ने बाणों से उसके हृदय को विदीर्ण कर डाला और वह निश्चेष्ट हो गया। रामचंद्र जी ने आज विचार कर लिया था कि –
“नीति कहती है यही उस नीच का संहार कर।
जो अपने पातकी स्वभाव से बोझ है संसार पर।।
निश्चय तेरी जीत होगी तू ध्यान से संकल्प कर ।
जब सत्य तेरे साथ है मत सोच अब विकल्प पर।।”
संग्राम में त्रिशिरा और दूषण को मरा हुआ देखकर खर श्रीराम के पराक्रम से भयभीत हो गया। फिर भी उसने रामचंद्र जी पर अपनी ओर से हमला कर दिया ।उसने श्रीराम के समीप पहुंचकर अपना हस्तलाघव दिखाते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के धनुष को उस स्थान से काट डाला, जहां से वे उसे पकड़े हुए थे। तब श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य द्वारा प्रदत्त वैष्णव नामक धनुष को उठाकर खर पर हमला बोला।
स्वर्णपुंख और सन्नतपर्व बाणों से क्रुद्ध श्री राम ने संग्राम में खर के रथ की ध्वजा काट डाली । तब मर्म स्थलों को जानने वाले खर ने क्रुद्ध होकर 4 बाणों से श्रीराम के हृदय और अन्य मर्म स्थलों को वैसे ही बेध डाला जैसे भालों से हाथी बेधा जाता है
। इससे श्री राम बहुत आहत हुए। उनके अंग रक्त से सराबोर हो गए। उन्होंने क्रोध में आते हुए सूर्य के समान देदीप्यमान 13 बाण लेकर खर को मारने की इच्छा से उस पर छोड़ दिए। एक बाण से रथ के जुए को, चार बाणों से चारों घोडों को और छठे बाण से खर के सारथि के सिर को , 3 बाणों से रथ के तीन बांसों को, दो से रथ की धुरी को और 12 वें बाण से खर के बाण सहित धनुष को काटकर इंद्र के समान तेजस्वी श्रीराम ने हंसते हुए युद्ध स्थल में वज्र के समान 13 वां बाण खर को मारा। धनुष के टूट जाने , रथ के भग्न हो जाने, घोड़े और सारथि के मारे जाने पर खर हाथ में गदा ले रथ से कूद पड़ा और रणभूमि में खड़ा हो गया।
तब श्री राम ने उस पापी को अंतिम उपदेश देते हुए कहा कि प्राणियों को दु:ख देने वाला निर्दयी और पाप कर्म करने वाला मनुष्य भले ही त्रिलोकी का स्वामी हो तो भी अधिक दिन नहीं जी सकता। लोक विरुद्ध मानवीय शांति का उन्मूलन करने वाले अत्याचारी को ऐसे ही मार देना चाहिए जैसे अपने घर में आते हुए विषधर सर्प को सब लोग मार डालते हैं। जो मनुष्य लोभ या काम के वशीभूत होकर पाप कर्म करके पश्चाताप नहीं करता उसे उस कर्म के फल से ऐसे ही भृष्ट होना पड़ता है जैसे चार पैर वाला ब्राह्मणी कीट वृष्टि के ओलों को खाकर अपना अन्त कर लेता है।
इस दंडक वन में रहने वाले धर्माचरण में रत निरपराध तपस्वियों को मारने का फल तुझे भोगना ही पड़ेगा। क्या तू यह नहीं जानता था। पापी क्रूर और लोकनिन्दित मनुष्य ऐश्वर्य पाकर भी चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकते। जैसे गली सड़ी जड़ वाले वृक्ष बहुत अधिक देर तक नहीं ठहरते।
जैसे ऋतु के आने पर वृक्ष स्वयं पुष्पित हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार समय आने पर जीवों को उनके किए पाप कर्मों का घोर फल अवश्य प्राप्त होता है । जैसे विष मिश्रित अन्न खाने से मनुष्य शीघ्र ही मर जाता है, उसी प्रकार पापी को किए हुए पापों का फल प्राप्त होने में विलंब नहीं होता। घोर पाप करने वाले और लोक का अमंगल करने वाले हे निशाचर ! पापियों के वध के लिए ही मुझे महाराज दशरथ ने वन में भेजा है। मेरे द्वारा छोड़े गए यह स्वर्णभूषित बाण तेरे शरीर को छिन्न-भिन्न कर पृथ्वी में ऐसे ही घुसेंगे जैसे सर्प अपनी बाम्बी में घुसता है। हे कुलाधम ! मुझे मारने के लिए तुझे जो उपाय करना हो, वह कर ले और यथेष्ट प्रहार भी कर ले। अंत में तो मैं तेरे सिर को ताड़ के वृक्ष के समान काटकर गिरा दूंगा। रामचंद्र जी ने उस राक्षस को यह स्पष्ट कर दिया कि:–
जो स्वामी तीन लोक का पर पाप बुद्धि ग्रस्त है ।
वह बुद्धि भ्रष्ट हो चुका विवेक उसका अस्त है ।।
क्षत्रिय ऐसे नीच का संहार करते सहर्ष ही ।
चाहे उसे संसार में मिला महान उत्कर्ष भी।।
रामचन्द्र जी ने आगे कहा कि तूने अपनी गदा फेंककर यह देख लिया है कि तेरा बल कितना है ? तू शक्ति में मुझसे हीन है और तेरा डींग मारना व्यर्थ ही है। उस राक्षस से श्रीराम ने यह भी कहा कि जब तू महानिद्रा में सो जाएगा, तब दंडक वन में ऋषियों के लिए सुख से निवास करने योग्य स्थान बन जाएगा। दूसरों को भयभीत करने वाली राक्षसियां अपने बंधु बंधुओं के मारे जाने पर दीन भाव से रोती हुई और भयभीत होकर आज यहां से भाग जाएंगी।
तुम जैसे नीच पापियों के कारण मुनि लोग निशंक होकर यहां यज्ञ भी नहीं कर पाते। पर तेरे जैसे नीच के मारे जाने के बाद अब उनके लिए ऐसा परिवेश बन पाएगा कि वह भी यहां निशंक होकर यज्ञ कर पाएंगे। अपनी रक्षा के लिए तुझे जो कुछ भी उपाय करना है उसे करने के लिए तू स्वतंत्र है। क्योंकि अंत में तो तेरा वध आज मेरे हाथों हो ही जाना है।
श्री राम के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर खर ने कहा कि मैं अपने हाथ में गदा लेकर पाशधारी यमराज की भांति युद्ध में केवल तेरा ही नहीं अपितु तीनों लोकों का संहार कर सकता हूं। मैं तुम्हारी आत्म प्रशंसा के उत्तर में बहुत कुछ कह भी सकता हूं, परंतु मेरी इच्छा है कि यहां पर कहने सुनने में समय नष्ट नहीं किया जाए, क्योंकि यदि अब सूर्यास्त हो गया तो युद्ध में विघ्न होगा। जिससे युद्ध युद्ध बंद हो जाएगा और मैं जो कुछ आज करना चाहता हूं उसे नहीं कर पाऊंगा। तुमने 14 सहस्र राक्षसों को मारा है तो मैं तुझे मार कर उनकी विधवा स्त्रियों और अनाथ बच्चों के आंसू पोंछने का काम करूंगा । इतना कहकर खर ने अत्यंत क्रुद्ध होकर वज्र के समान जाज्ज्वलयमान अपनी भीषण गदा से श्रीराम के ऊपर प्रहार किया। अपने ऊपर आती हुई उस चमचमाती गदा को श्रीराम ने अनेक बाणों से आकाश में ही छिन्न-भिन्न कर दिया।
युद्ध भयंकर स्वरूप में आरंभ हो चुका था। श्रीराम के लिए खर को उसके अन्य साथियों के पास पहुंचाना अब कुछ पलों का ही खेल रह गया था। परंतु खर भी श्रीराम का वीरता के साथ सामना कर रहा था। युद्ध देखने योग्य था। रामचंद्र जी ने एक बार शेखर को समझाते हुए कहा कि जैसे गरुत्मान ने अमृत का हरण किया था वैसे ही आज मैं भी तेरे जैसे नीचे मिथ्याचरण करने वाले राक्षस के प्राण हरण करूंगा। तू महा निद्रा में सो जाएगा। तब दंडकवन ऋषियों के लिए सुख से निवास करने योग्य स्थान बन जाएगा। दंडक वन को ऋषियों के लिए सुख से निवास करने योग्य स्थान बना देना ही श्रीराम के जीवन का उद्देश्य था। वह युद्ध भी इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए कर रहे थे कि इन राक्षसों का जितनी शीघ्रता से संहार कर दिया जाए, उतना ही उचित होगा। उन्होंने उस नीच पापी राक्षस से यह भी कहा कि तुम्हारे भय के कारण मुनि लोग निशंक होकर यज्ञ नहीं कर पाते हैं। रामचंद्र जी ने उस नीच – पापी से कहा कि :-
मृत्यु की आगोश में जब दुष्ट सीता नींद में।
ऋषि निशंक यज्ञ करते धर्म चलता सीध में।।
रसना नहीं बस में जहां वासना करती हो दु:खी।
तुम ही बताओ वहां कैसे नर कोई रहता सुखी ?
रामचंद्र जी के मुख से ऐसी बातें सुनकर खर ने उन्हें कहा कि तू बड़ा अभिमानी है। जो भय के उपस्थित होने पर भी निर्भय सा बना हुआ है। तेरी मृत्यु निकट है इसीलिए तुझे बोलते हुए यह भी समझ नहीं आता कि क्या कहना चाहिए और क्या नहीं ? तब उसने भौंहें तानकर निकट ही साल का एक बहुत बड़ा वृक्ष देखा। उस वृक्ष को उखाड़ और घोर गर्जना कर राक्षस खर ने उस वृक्ष को दोनों भुजाओं से उठाकर श्रीराम के ऊपर यह कहकर फेंका कि बस ,अब तू अब मारा गया । रामचंद्र जी ने उस साल वृक्ष को अपनी ओर आते देख उसे बाणों से छिन्न-भिन्न कर डाला और संग्राम में खर का वध करने के लिए भयंकर क्रोध किया। श्रीराम उस समय पसीने से तर हो गए थे । क्रोध के कारण उनकी आंखें लाल हो रही थीं। इसलिए उन्होंने एक साथ अनेक बाणों से खर को युद्ध में पूरी तरह छेद डाला । तब अपने शरीर से निकलते रक्त की गंध से मतवाला होकर वह राक्षस बड़े वेग से श्रीराम की ओर झपटा।
रामचंद्र जी ने समय और परिस्थिति को देखते हुए अपनी ओर झपट्टा मारते खर से अपना बचाव किया और जहां वह खड़े थे वहां से दो तीन पग पीछे हट गए । जिससे उन्हें अस्त्र चलाने में सुविधा हो सकती थी। इसके पश्चात श्रीराम ने दूसरे ब्रह्म दंड और अग्नि के समान तेजस्वी एक बाण को धनुष पर रखकर उस राक्षस के ऊपर छोड़ दिया ,जो उसकी छाती में जाकर लगा। उस बाण की अग्नि से वह राक्षस दग्ध होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और मर गया।
उस नीच पापी के धरती पर गिरते ही दिशाएं मगन हो गयीं। देव पुरुषों ने श्रीराम पर पुष्प वर्षा की और अपने हर्ष की अभिव्यक्ति करते हुए उन्हें शुभ आशीर्वाद प्रदान किया। सारी वसुधा समझो श्री रामचंद्र जी के प्रति कृतज्ञ भाव से भर उठी। वास्तव में किसी भी व्यक्ति के उत्कर्ष का इससे अच्छा कोई पैमाना नहीं हो सकता कि दिशाएं कवियों की सुरीली भाषा में उसके मंगल गीत गाएं और देव पुरुष उसके लिए पुष्प वर्षा करें। पर ऐसा हर उस व्यक्ति के साथ होता है जो संसार से अनीति, अधर्म और अन्याय के विरुद्ध लड़ता है और जन सामान्य को जीने का सुरक्षित अधिकार प्रदान करता है। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी प्रकार के भावों और विचारों से निर्मित हुआ है। इस राष्ट्रवाद की अनूठी विशेषता है कि यह धरती की दिव्य शक्तियों को अभिभूत करने के लिए प्रयासरत रहता है। धरती के देव पुरुषों और जनसाधारण को आनंदित और हर्षित करना यह अपना पवित्र उद्देश्य मानता है।
दिशाएं होती मग्न जब पापी धरती पर गिरे ।
पुष्प वर्षा देव करते जो शुद्ध चैतन्य हों निरे ।।
कवि जन मंगल गीत गाते वसुधा को होता हर्ष है।
“राकेश” इस विश्व में बस यही श्रेष्ठतम उत्कर्ष है।।
इस प्रकार श्रीराम ने राक्षसों के सफाई अभियान का जो क्रम चलाया था उसके एक अध्याय का अंत हो गया। उस समय वन के सभी ऋषियों व तपस्वियों के लिए खर के वध की सूचना बहुत आनंददायक रही । क्योंकि वह सभी उन राक्षसों के आतंक से अत्यंत कुपित थे। यही कारण था कि ऋषि, ब्रह्मर्षि और तपस्वियों को जैसे ही उस राक्षस के वध की सूचना मिली तो वे सब एकत्र होकर श्री राम के पास आए और उनका सम्मान कर प्रसन्न होते हुए कहने लगे कि आपने राक्षस वध रूपी हमारा यह कार्य संपन्न कर हम पर बहुत भारी उपकार किया है। इन राक्षसों के अंत हो जाने के उपरांत हम लोग सुख से धर्मानुष्ठान किया करेंगे। उन सभी ऋषियों ने अत्यंत आनंदित होते हुए श्री राम के ऊपर पुष्प वर्षा की। उन्हें सब कुछ देखकर भी इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि श्री राम जी ने अकेले ही खर और दूषण जैसे राक्षसों के साथ-साथ उनकी 14 सहस्र की सेना भी समाप्त कर दी थी। जब ऋषि लोग इस प्रकार खड़े होकर अपनी आनंद की अभिव्यक्ति कर रहे थे तभी लक्ष्मण जी सीता जी को साथ लेकर वहां पर आ पहुंचे। अपने पति श्री राम को सकुशल देख सीता जी अत्यंत प्रसन्न हुई और उन्होंने अपने पति का आलिंगन किया।
रामचंद्र जी ने जो कुछ भी उस समय किया उसके लिए साहिर लुधियानवी जी के यह शब्द बड़े सार्थक हैं :-
“ऐ अज़्मे-फना देने वालो
पैगामे-वफ़ा देने वालो
अब आग से क्यूँ कतराते हो
मौजों को हवा देने वालो
तूफ़ान से अब क्यूँ डरते हो
शोलों को हवा देने वालो
क्या भूल गए अपना नारा
ये किसका लहू है कौन मरा
हम ठान चुके हैं अब जी में
हर जालिम से टकरायेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जायेंगे
हम मंजिले-आज़ादी की कसम
हर मंजिल पे दोहराएँगे
ये किसका लहू है कौन मरा…”
मुख्य संपादक, उगता भारत