ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने और बदले में तेहरान को प्रतिबंधों से छूट देने के लक्ष्य से दुनिया के छह शक्तिशाली देशों और ईरान के बीच आखिरकार समझौता हो ही गया। ईरान पिछले 13 साल से परमाणु बम बनाने की जिद पर अड़ा था। हालांकि ईरान के राष्ट्रपति अहमदी ने तो एक समय ऐलान ही कर दिया था कि उसने परमाणु हथियार बना लिए हैं। इसके बाद से ईरान पर संयुक्त राष्ट्र ने कारोबारी प्रतिबंध लगा दिए थे। इस कारण ईरान की हालत बिगड़ती चली गई। नतीजतन अमेरिका से 35 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर उसे अनुबंध को बाध्य होना पड़ा। इस करार के बाद ऐसा माना जा रहा है कि अब पश्चिम एशिया में शांति स्थापित हो जाएगी,क्योंकि ईरान की पूर्व अयातुल्ला खुमैनी सरकार पर आतंकियों को हथियार देने के आरोप लगते रहे हैं। ईरान पर लगे प्रतिबंधों के हटने का फायदा भारत और जापान की अर्थव्यवस्थाओं को भी होने की उम्मीद है। इस समझौते का श्रेय बराक ओबामा और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी को जाता है।
बीते दो साल से इस समझौते को संपन्न कराने में परमाणु-शक्ति रखने वाले देश अमेरिका,ब्रिटेन,फ्रांस,जर्मनी और रूस प्रत्यनशील थे। इन देशों और ईरान के राजनयिकों के बीच कई स्तरों पर बतचीत हुई। पिछले चुनाव में ईरान में प्रगतिशील सुधारवादी नेता रूहानी के विजय होने के बाद इस वर्ता को वास्तविक धरातल मिला। नतीजतन तीन माह पहले समझौते से जुड़ी षर्तों का एक प्रारूप बना,जिसे ओबामा और रूहानी ने अंतिम अंजाम तक पहुंचाया।
इस समझौते की प्रमुख शर्त है कि अब ईरान 300 किलोग्राम से ज्यादा यूरेनियम अपने पास नहीं रख सकेगा। ईरान को अपनी परमाणु सेन्ट्रीफ्यूजन प्रयोगशालाओं में दो तिहाई यूरेनियम का 3.67 फीसदी भाग ही रख सकेगा। यह शर्त इसलिए लगाई गई है,जिससे ईरान परमाणु बम नहीं बनाने पाए। दरअसल यूरेनियम की प्राकृतिक अवस्था में 20 से 27 प्रतिषत ऐसे बदलाव करने होते हैं,जो यूरेनियम को खतरनाक परमाणु हथियार में तब्दील कर देते हैं। ईरान ने यूरेनियम में परिवर्तन की यह तकनीक बहुत पहले हासिल कर ली है। इसी षंका के चलते वह अब उस मात्रा में यूरेनियम रख ही नहीं पाएगा,जिससे आसानी से परमाणु बम बना ले। सबसे अहम् षर्तों में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को के निरीक्षकों को परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज के भंडार,यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी का भी अधिकार है। यह शर्त तोडऩे पर ईरान पर 65 दिनों के भीतर फिर से प्रतिबंध लगाने की शर्त भी प्रारूप में दर्ज है। उसे मिसाइल खरीदने की भी छूट नहीं दी गई है। ईरान के सैन्य ठिकाने भी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में होंगे।
इन प्रतिबंधात्मक शर्तों से मुक्त होने के बाद ईरान को अब तेल और गैस बेचने की छूट मिल गई है। साथ ही ईरान सौ अरब डॉलर की जब्त की गई संपत्ति का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होगा। पश्चिम एशिया की बदल रही राजनीति ने भी ईरान और अमेरिका को निकट लाने का रास्ता खोला है। इराक में ये दोनों देश सुन्नी मुस्लिम आतंकी संगठन आईएस के विरूद्ध जारी लड़ाई में मददगार हैं। अब नए करार से यह प्रगाढ़ता और बढऩे की उम्मीद है। इसलिए इस करार के पालन में अनेक चुनौतियां संभावित हैं। करार से सबसे ज्यादा खफा साऊदी अरब है। आतंकियों और कटट्रपंथियों को हथियार व आर्थिक मदद सऊदी अरब ही करता है। इस करार से अमेरिका की रिपब्लिक पार्टी और ईरान के कटट्रपंथी भी प्रसन्न नहीं हैं। इसराइल इस समझौते को न केवल विरोध कर रहा था,बल्कि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने करार को ऐतिहासिक भूल बताया है। इस समझौते पर सहमति की मोहर अभी अमेरिकी सीनेट और ईरान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को भी लगानी है। इसलिए इस ऐतिहासिक माने जाने वाले परमाणु समझौते के मद्देनजर जिस तरह से ईरान और पश्चिम के बीच नए युग की शुरूआत होने की बात को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है,कहीं वह भारत और अमेरिका के बीच हुए परमाणु समझौते की तरह टांय-टांय फिस्स न हो जाए ?
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच परमाणु समझौता वांष्गिटन में 18 जुलाई 2005 को हुआ था। इसे परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में ऐतिहासिक करार माना गया था। लेकिन हम जानते हैं कि इस दिशा में भारत एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है। इसके उलट भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु कार्यक्रम की मुख्यधारा में लाने के बहाने भारत पर ऐसी शर्तें थोप दी गई कि हमने अपना असैन्य परमाणु कार्यक्रम भी अंतरराष्ट्रीय निगरानी के हवाले कर दिया है। अब हमारे साइरस प्लूटोनियम निर्माण रिऐक्टर अंतरिक्ष कार्यक्रम और यूरेनियम से संबंधित आयात नीतियां भी अमेरिका की सरपरस्ती में हैं। बावजूद भारत के लिए ईरान परमाणु करार इसलिए लाभदायी है,क्योंकि अमेरिकी संसद इस समझौते को स्वीकार नहीं भी करती है, तब भी ईरान व्यावसायिक प्रतिबंधों से मुक्त रहेगा। इसलिए भारत और ईरान के बीच सहज रूप से ऊर्जा संबंध आगे बढ़ेगे।
भारत और ईरान के बीच लंबे समय से राजनीतिक और व्यापारिक संबंध बने चले आ रहे थे। इन संबंधों में दूरी तब शुरू हुई,जब भारत को परमाणु शक्ति के रूप में उभरने के लिए अमेरिका के समर्थन की जरूरत पड़ी। यही वह दौर था,जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने राजस्थान के रेगिस्तान में परमाणु परीक्षण किया था। यह भारत द्वारा परमाणु बम बनाए जाने की पुष्टि थी। भारत के इस परीक्षण के बाद पकिस्तान और उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बना लिए। यही वह समय था जब भारत परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयास में लगा था। इसलिए वह नहीं चाहता था कि ईरान भी परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाए। लिहाजा भारत को परमाणु निरिस्त्रण के मुद्दे पर अमेरिका के दबाव में ईरान के खिलाफ दो मर्तबा वोट देना पड़ा। इस मतदान के समय केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार थी।
किंतु अब बदले हालात में भारत बिना किसी बाधा के ईरान से कच्चा तेल खरीद सकता है। भारत को अपनी खपत का लगभग 80 फीसदी तेल खरीदना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत इस वित्त वर्ष में करीब 90 लाख टन तेल खरीदेगा। ईरान से तेल खरीदा जाना सस्ता पड़ता है,इसलिए भारत को करीब 6300 करोड़ रूपए की बचत होने की उम्मीद है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत के तेल शोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिशोघित करने के लिहाज से ही तैयार की गई हैं। गोया,ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेष्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए लाभदायी है। भारत और ईरान के बीच गैस सौदा भी लंबित है। इसके पूरे होने की उम्मीद कम ही है।