गतांक से आगे….
उपनिषद और गीता के समस्त वर्णन से, कम से कम इतना तो निर्णय हो गया कि,उपनिषदों का बहुत सा भाग वैदिक नहीं है और न उनका बहुत सा भाग ब्राह्मणों द्वारा अनुमोदित ही है। इतना ही नहीं, प्रत्युत यह भी निर्णय हो गया कि, वह एक गुप्त मण्डली के द्वारा असुर प्रवृत्ति वाले, राजनीतिक पुरुषों में वंश परंपरा से आ रहा है। पर हमारा दृढ़ विश्वास है कि, इसका आर्य क्षत्रियों से कुछ भी संबंध नहीं है। क्योंकि इन उपनिषदों में असुरों की आसुरी लीला काफी परिमाण में पाई जाती है और इन उपनिषदों में असुरचार्यों की जो वंशावली दी है, उन में आए हुए भालुकी,क्रौंचकी,आसुरायण और वैयाघ्रपदी आदि नामों से ही पाया जाता है कि, वे असुर हैं, क्षत्रिय नहीं। इसके अतिरिक्त ब्रह्मविद्या का स्वांग करने वाले इन अवेदिकों की रहन-सहन से भी प्रतीत होता है कि, वे वैदिक नहीं है।इन्हीं उपनिषदों में वैदिक ब्रह्यपरायणता और लौकिक ऐश्वर्या में क्या भेद है, पारलौकिक साधन के योग्य कौन है और ब्रह्यप्राप्ति किसे होती है,आदि बातों का स्पष्ट वर्णन है। कठोपनिषद में लिखा है कि,श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं। श्रेय को विद्या और प्रेय को अविद्या कहते हैं।दोनों परस्पर विरुद्ध हैं।श्रेय से निवृत्ति और निवृत्ति से मोक्ष होता है, तथा प्रेय से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से जन्म-मरण होता है। धन ऐश्वर्या आदि अलौकिक सुखों का समावेश प्रेय में है और इन सब का त्याग तथा परलोकचिन्ता आदि का समावेश श्रेय में है। इस भेद से प्रतीत होता है कि ब्रह्म प्राप्ति वाले वैदिक ब्रह्म ज्ञानी श्रेय मार्गी थे। पर आसुर उपनिषद के आचार्य प्रेय मार्गी थे। उनके पास बड़े-बड़े मकान, वस्त्रालंकारा, रथ दियान, दास दासी, खूबसूरत औरतें और मांस शराब की पूरी भरमार थी। वे महा व्यभिचारी थे और उनके कृत्य आसुरी और राक्षसी थे। यहां हम क्रम से उनकी उपर्युक्त समस्त बातें उपनिषदों से ही उद्धृत करते हैं। सबसे पहले हम यह दिखलाते हैं कि, उनके बड़े-बड़े महल थे। छांदोग्य 2/11/ 1 में उनको ‘प्राचीनशाल: औपमन्यव:। महाशाला महाश्रोत्रिय:’ लिखा है। इसी तरह मुण्डक 1/13 में ‘शौनको ह वै महाशालो’ लिखा हुआ है। इन वाक्यों में इन को बड़े-बड़े महलवाले कहा गया है। इसके सिवा कठोपनिषद 1/25 में नचिकेता का अचार्य कहता है कि, हे नचिकेता! तू मुझसे बड़े बड़े मकान, जमीदारी, जेवर, हाथी, घोड़े, पुत्र, पौत्र और सुंदर- सुंदर स्त्रियां मांग ले, पर यह प्रशन न कर। इन बातों से स्पष्ट हो जाता है कि, आसुर उपनिषद के आचार्य बड़े ऐश्वर्यावान थे और उनको चेलों से खूब धन मिलता था। क्योंकि छांदोग्य उपनिषद 4/2/5 में एक असुर आचार्य की आमदनी और चरित्र का हाल इस प्रकार वर्णित है कि, रैक्वनामी एक ऋषि के पास राजा जानश्रुति छैसौ गाय, स्वर्ण मुद्रा, मणि, रथ और बहुत सा धन लेकर गए। पर ऋषि ने कहा कि हे शूद्र ! यह हमेंको नहीं चाहिए। राजा दोबारा 1000 गाय, बहुतसा धन, अपनी कन्या और उस गांव का पट्टा जिसमें ऋषि रहते थे, लेकर गया और प्रणाम किया।कन्या को देखते ही ऋषि पिघल गए और –
तस्या ह मुखमुपोदगृह्वन्नुवाचाऽऽजहारेमा:।शूद्रानेनैव मुखेनाऽऽलापपयिष्यथा इति॥
अर्थात राजा की उस कन्या के मुख्य को प्यार से देख कर ऋषि बोले कि, हे शूद्र! यह जो भेंट लाए हो सो ठीक है, अब इस कन्या के मुख से ही Fइसके मुख कमल के ही बदौलत) आप मेरा भाषण सुन सकेंगे।इस घटना से सहज ही विचार है कि, यह किस प्रकार का ऋषि था, इसका क्या व्यवसाय था और उस समय के धर्मांन्ध चेले कैसे थे! हमारी समझ में तो वे आजकल के धर्मान्धों से कम नहीं थे।उस समय बड़ा ही अत्याचार हो रहा था। इन असुराचार्यों के पास सिवा इस कामकला के और कोई काम ही न था।
क्रमशः