राष्ट्र-चिंतन
*विष्णुगुप्त*
कंगना रनौत पर चारों तरफ से हमले जारी हैं, उन्हें कोई पागल कह रहा है, उन्हें कोई सांप्रदायिक कह रहा है, उन्हें कोई देशद्रोही कह रहा है, उन्हें कोई बेवकूफ कह रहा है, उन्हें कोई जेलों में डालने के लिए कह रहा है, उनसे कोई पदमश्री का पुरस्कार वापस लेने की मांग कर रहा है , कोई उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करा रहा है। राजनीति इस प्रश्न पर कुछ दिन ऐसे ही गर्म होती रहेगी।कंगना रनौत की विशेषताएं भी यही है कि वह ऐसे प्रश्न पर बिंदास बोल बोलती है जिससे बिना माचीश आग लग जाती है और फिर वाद-विवाद की प्रक्रिया चलती है, शोसल मीडिया से उठकर विवाद राजनीति को भी झुलसा देता है। कंगना रनौत पहले निशाना फिल्मी दुनिया को बनाती थी, फिल्मी दुनिया में कथित तौर पर देशद्रोही करतूत को उजागर करती थी और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का चोला पहने हुए फिल्मकारों की इज्जत मिनटों-मिनट में उतार देती थी। फिल्मीकार अपने आप को बड़े विशेष समझते हैं, उनकी इज्जत में कोई गुस्ताखी करें, उनके कोई निकर उतार कर रख दे, उन्हें कोई सरेआम बाजार में पोल खोल कर रख दें, यह सब उन्हें कैसे बर्दाश्त हो सकता था? वे चाहे माफिया डॉन दाउद इब्राहिम की सभा मंें नाचे, उनके गीत गाये, चाहें वे महिलाओं की इज्जत सरेआम नीलाम करें, चाहे वे इतिहास को तरोड़-मरोड़ कर रख दें, या फिर देशभक्ति की कब्र खोद दें, इसके खिलाफ किसी को बोलने की जरूरत नहीं है, बोला तो फिर फिल्मी दुनिया से अघोषित प्रतिबंध लगा दिया जायेगा, अछूत घोषित कर दिया जायेगा, अहसानफरमोस कह दिया जायेगा, विश्वासघाती घोषित कर दिया जायेगा, जावेद अख्तर जैसा कोई गीतकार कोर्ट में घसीट लेगा, जया बच्चन जैसी कोई फिल्मी हिरोइन राज्य सभा में उस पर लानत बरसायेगी।
कंगना रनौत अब फिल्मी दुनिया के साथ ही साथ राजनीति की भी बारीकियां सीख ली हैं, राजनीति की आंच को कैसे गर्म करना है, राजनीति की आंच में कैसे किसी विचारधारा को गर्माना है, राजनीति की आंच में किसी विचारधारा को जलाना है, राजनीति की आग में किस विचारधारा को बेमर्दा करना है, उन्हें मालूम है और इस क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता हासिल हो गयी है। सुशांत आत्महत्या के केश में जिस प्रकार से कंगना रनौत को प्रताडि़त किया गया, उपहास उड़ाया गया ,जिससे उनके अंदर में दृढंता आयी, उन्हें प्रतिकार करने और दोहरी चरित्र वालों को बेपर्दा करने का साहस मिला। सुशांत आत्महत्या प्रकरण में कंगना रानौत की सक्रियताओं और प्रश्नों पर फिल्मी दुनिया, राजनीति और कम्युनिस्ट-मुस्लिम जमात किस प्रकार से बिलबिला उठी थी और अपने हाथों में विभत्सता, वैचारिक हिंसा और निजी जिंदगी में जहर घोलने जैसे तलवार, बम, बारूद लेकर हमलावर थी, यह भी उल्लेखनीय और स्पष्ट है। कंगना रानौत के ऑफिस को ध्वस्त कर दिया गया जबकि मुंबई में लाखों लोगों के अवैध कार्यालय और मकान बनें हुए हैं। उन्हें हाईकोर्ट के फैसलों के बाद भी पूरा न्याय नहीं मिला।
रनौत पर आरोप यही है कि उसने महात्मा गांधी की इज्जत में गुस्ताखी की है, महात्मा गांधी को बेचरा कहा है, महात्मा गांधी को भिखारी कहा है, महात्मा गांधी के चरखे से मिली आजादी को झूठी कही हैं। महात्मा गांधी का कद बहुत बड़ा है, महात्मा गांधी के खिलाफ बोलने वाले और लिखने वाले लोगों की हैसियत और विश्वास को धक्का मिलता है। इसलिए कंगना रानौत को भी इस स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। महात्मा गांधी कोई भगवान तो थे नहीं। वे भी एक मनुष्य थे। जब आलोचना-समालोचना भगवान की भी होती है तो फिर महात्मा गांधी तो मानव थे। जिस प्रकार से महात्मा गांधी को प्रतिबंधित और लोकलाज को दरकिनार करने वाले और परम्परा के विरूद्ध प्रयोग करने का अधिकार था और उस आधार को समाज व राजनीति ने आत्मसात कर लिया था, स्वीकार कर लिया था तो फिर महात्मा गांधी की जिंदगी को लेकर और महात्मा गांधी की आजादी में निर्णायक भूमिका पर विचार व्यक्त करने से किसी को कैसे और क्यों रोका जाना चाहिए? सबसे पहले तो इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या महात्मा गांधी के सत्य-अहिंसा के आधार पर ही हमें आजादी मिली है? क्या इस आजादी में सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद जैसे हजारों-लाखों देशभक्तों का योगदान नहीं था।
फिर इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिए कि जो लोग महात्मा गांधी को अपनी विरासत मानते हैं उनका महात्मा गांधी की कसौटी पर चरित्र कितनी साफ-सूथरी है, महात्मा गांधी के विचारों को लेकर उनकी सत्यनिष्ठा कितनी है, क्या उन सब ने महात्मा गांधी को भाषणों और सेमिनारों का शोभा बना कर नहीं रख दिया, महात्मा गांधी को राजघाट की घेराबंदी में कैद कर नहीं रख दिया। महात्मा गांधी की विरासत को अपनी कहने वाली कांग्रेस क्या सही में महात्मा गांधी के प्रति सत्य निष्ठा रखती है। क्या कांग्रेस एक घराने की विरासत नहीं बन गयी है? महात्मा गांधी की जगह इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और जवाहरलाल नेहरू के नाम पर भारत में कुकुदमुत्ते की तरह संस्थानों और सड़कों सहित अन्य जगहों के नाम क्यों रख दिये गये? क्या महात्मा गांधी ने यह कहा था कि कांग्रेस को एक घराने मात्र का रखैल बना कर रख देना? कंगना रानौत की बात पर दहाड़ मार-मार कर वैचारिक हिंसा फैलाने वाली कांग्रेस दो सालों से अपना नियमित अध्यक्ष तक नहीं खोज पायी। महात्मा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस की स्थापना आजादी के लिए हुई थी और अब आजादी मिल गयी है, कांग्रेस का काम समाप्त हो गया है, इसलिए कांग्रेस का विघटन कर दिया जाना चाहिए। क्या महात्मा गांधी के कांग्रेस का विघटन करने वाले विचार का सम्मान किया गया? कम्युनिस्टों ने जिंदगी भर महात्मा गांधी को अ्रंग्रेजों का दलाल, पूंजीपतियों का मोहरा कहा। कम्युनिस्टों ने महात्मा गांधी की ही नहीं बल्कि सुभाषचन्द्र बोस को भी हिटलर का दलाल कहा था। कम्युनिस्टों को अपने आका स्तालिन द्वारा हिटलर से की गयी अनाक्रमण संधि याद नहीं आती है पर वे सुभाषचन्द्र बोस को हिटलर का दलाल कहना भूलते नहीं है।
आजादी को झूठलाने की गुस्ताखी करने वाली रंगना रानौत अकेली नहीं है। कंगना रानौत से पहले हजारों लोगों ने ये गुस्ताखियां की हैं, राजनीतिक पार्टियां और बड़े-बड़े महापुरूषों की करतूत लंबी-चौडी हैं। आजादी को झूठलाने और आजादी को फर्जी बताने की करतूत का इतिहास देख लीजिये। पर कोई इतिहास में जाना नहीं चाहता है, कोई इतिहास को पढ़ना नहीं चाहता है। आखिर क्यों? इसलिए कि इतिहास पढ़ लेगें तो फिर वे खुद ही बेनकाब हो जायेंगे, बेपर्दा हो जायेंगे। उनकी चोरी और सीनाजोरी वाली करतूत नहीं चलेगी। जनता उन्हें विश्वास से नहीं बल्कि विश्वासघाती से देखेगी।
पेरियार, भीमराव अंबेडकर और दलित-कम्युनिस्ट चिंतकों की राय क्या थी, उनकी इस प्रश्न पर राजनीतिक सक्रियता कैसी थी? यह भी देख लीजिये। परेयिार ने सबसे पहले आजादी को फर्जी और गैरजरूरी बताया था। पेरियार दक्षिण भारत में ब्राम्हणों के खिलाफ राजनीति करते थे और गैर ब्राम्हणों के लिए एक देश मांगते थे। परियार का कहना था कि पाकिस्तान की तरह ही गैर ब्राम्हणों के लिए एक अलग देश बनाना चाहिए। यानी भारत को तीन देशों में बांटा जाना चाहिए। पेरियार ने 15 अगस्त 1947 को काला दिवस मनाया था और आजादी को भीख में मिली हुई बताया था। जिन्ना की राह पर पेरियार चले थे और द्रविड़नाडु देश की मांग करते थे। पेरियार हमेशा अग्रेजों की मददगर थे।
भीमराव अंबेडकर की सोच भी देख लीजिये। भीमराव अंबेडकर ने स्वतंत्रता को खारिज करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी सामाजिक लोकतंत्र है। अ्रंबेडकर भी अंग्रेजों के सहयोगी थे और आजादी के आंदोलन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। अंग्रेजों का साथ होकर वे कुछ वर्गो के लिए सुविधाएं हासिल करना चाहते थे। कम्युनिस्टों का आजादी और आजादी के प्रतीक चिन्हों के प्रति कोई समर्पण या लगाव नहीं था। इन्होंने महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। लबे समय तक पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार और अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने तिरंगा का सम्मान नही किया। चीनी हमले के समय चीन का साथ दिया। कम्युनिस्ट यह कहकर नाचते थे कि ये आजादी झूठी है। कंगना रनौत ने 2014 में असली आजादी मिलने की बात कहने पर यही वामपंथी हल्ला मचा रहे हैं। वंदे मातरम और तिरंगा के सामने सर नहीं झुकाने की बात करने वाले खास लोग भी हल्ला मचा रहे हैं।
कंगना रनौत के कहने का अर्थ था कि मोदी के राज्य में सर्वागीन विकास हो रहा है, घर-घर में शौचालय बन रहे हैं, गरीबों को मकान मिल रहे हैं,जन सुविधाओं का विकास हो रहा है। आम आदमी के लिए अच्छी आजादी यही है। जब पेरियार, अंबेडकर और कम्युनिस्टों तथा राष्टगान को नहीं गाने वाले लोगों को देशद्रोही नहीं कहा जाता है तब फिर कंगना रनौत को देशद्रोही क्यों कहा जाना चाहिए? कंगना रनौत पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों चलना चाहिए?
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