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राजनीति ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाया

आलोक कुमार

सेवा नहीं, खुद के लिए मेवा का जुगाड़ ही आज की राजनीति है। मेवा खाने की तड़प ही राजनीति की ओर खींच लाती है। आज राजनीति का मूल-मंत्र क्या है मेवा नहीं तो सेवा नहीं  पिछले अड़सठ सालों में हमारी किसी भी सरकार ,हमारे किसी भी राजनीतिक दल ने एक भी ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया जिससे राजनीति से भ्रष्टाचार की  कुप्रथा खत्म होनी  तो दूर, जरा सी कमजोर भी हुई हो। कहा तो खूब जाता रहा कि भ्रष्ट तौर-तरीकों को राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन हमारे देश में परिस्थितियाँ ऐसी बनाई गयीं कि बिना  भ्रष्टाचार के राजनीति की कल्पना भी न की जा सके।

हमारे देश में भ्रष्टाचार को पनपने देने में बहुत ही बड़ा योगदान हमारे देश की चुनाव – प्रणाली का भी है। नेताओं के लिए चुनाव सिर्फ सत्ता हासिल करने का माध्यम ही नहीं अपितु अपनी जेब भरने का प्रयोजन भी है। चुनावों में भ्रष्टाचार ही सबसे अहम भूमिका निभाता है ,  यहाँ तक कि टिकट भी थैली के वजन को देखकर पर बांटे जाते हैं , ऐसे में राजनीति लोकनीति के हितार्थ हो सकती है क्या ? चुनाव चाहे पार्षद व ग्राम प्रधान का हो , पंचायत प्रतिनिधि व मुखिया का हो, जिला परिषद अध्यक्ष व सदस्य का हो, सरपंच व प्रखण्ड-प्रमुख का हो, या फिर विधायक या सांसद का, किसी भी उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए  अपने पूरे कार्यकाल के दौरान मिलने वाले वेतन व भत्ते की राशि से कई गुना अधिक खर्च करना पड़ता है। ऐसे में स्वाभाविक व व्यावहारिक है कि बेशुमार राशि का खर्च तो कोई समाज सेवा के लिए करेगा नहीं। आज के दौर का चुनावी – खर्च एक आम व्यक्ति को चुनाव लडऩे से वंञ्चित कर देता है और समाज व देश सेवा की नियत रखने वाला एक ईमानदार व योग्य व्यक्ति जिसके पास विपुल धनराशी नहीं है चुनाव लडऩे की हिम्मत भी नहीं कर सकता। जब धनकुबेर , बेईमान , घोटालेबाज , दबंग , अपराधी ही चुनाव जीत कर आएंगे , तो उनकी कार्यप्रणाली कितनी ईमानदार , पारदर्शी व समाज व देश के हित में हो सकती है ? आज की चुनावी – राजनीति का सर्वप्रथम लक्ष्य ही है भ्रष्ट तरीकों को अपना कर चुनाव जीतना और फिर उन्हीं भ्रष्ट तरीकों के विस्तृत व व्यापक आयामों का इस्तेमाल कर अपनी लागत वसूल करना चुनावों में होनेवाला खर्च भ्रष्टाचार के मूल में है। इसीलिए सारी व्यवस्था इस प्रकार से बना दी गई है कि राजनीतिक दलों और नेताओं को चुनाव लडऩे के लिए धन (कालेधन) की प्राप्ति सहज व सुलभ तरीके से होती रहे और जनता का इस्तेमाल महज मोहरे की तरह होता रहे चुनाव आते ही सारे’सेवादार’ भ्रष्टाचार के टॉनिक के दम पर दंगल करने लग जाते हैं और ये कहते दिखते हैं कि सेवा तो हम ही करेंगे और एकमुश्त मेवा भी हम ही खाएँगे और जो कोई ऐसी सेवा  करने की राह में रोड़े अटकाएगा उसकी तो मूर्धन्य लेखक श्री रविन्द्र नाथ त्यागी ने ठीक ही कहा है प्रजातन्त्र का लक्ष्ण शायद चीखना – चिलाना ही होता है , मंच पर नेता चिल्लाता है और नीचे व पीठ पीछे जनता किसी ने ठीक ही कहा है अगर जनता सही रास्ते पर जाए भी तो उसे गलत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है।भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाना तो कोई हमारे नेताओं से सीखे सतही तौर से देखने पर भी पता चल जाता है कि राजनीति और भ्रष्टाचार हमारे देश में साथ-साथ कदम मिला कर चलते हैं , दोनों में अन्योन्याय संबंध है , दोनों एक दूसरे के पूरक। भ्रष्टाचार के बढ़ते सूचकांक के साथ-साथ नेताओं का ‘हाजमा’ भी बढ़ता है।

आजादी के तुरंत बाद से ही नेताओं ने सिर्फ अपने निहित स्वार्थ के लिए न केवल सरकारी विभागों व उसमें कार्यरत बाबुओं को भ्रष्टाचार में धकेला अपितु एक आम व्यक्ति का नैतिक पतन करने में भी अपना भरपूर योगदान दिया। राजनेताओं को इस बात का बखूबी भान था कि उनकी राजनैतिक व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धन-संग्रह का सबसे उपयुक्त माध्यम सरकारी कर्मी ही हो सकते थे, अत: एक षड्यंत्र के तहत काफी सोच-समझ कर उन्हें भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर किया गया। इसी कड़ी में सरकारी कर्मियों के वेतनमान को तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुपात में इतना कम रखा गया कि वो अपने वेतनमान से अपनी जरूरतें पूरी ना कर सकें और अवैध कमाई के लिए मजबूर हों। मेरे विचार में वेतनमान कम रखने का मात्र एक ही उद्देश्य था सरकारी कर्मी मजबूरन काली – कमाई की ओर आकर्षित हों, रिश्वत लेना उनकी बाध्यता हो और नेताओं के लिए कालेधन का बंदोबस्त सुचारू रूप से करते रहना उनकी पात्रता हो। वक्त के साथ- साथ अपनी जड़ें मजबूत करता ये योजनाबद्ध षड्यंत्र कालांतर में  एक ऐसे दुष्परिणाम के रूप में उभर का सामने आया कि आज वेतनमान पर्याप्त होने के बावजूद भ्रष्टाचार घटने की बजाए और बढ़ ही गया। वक्त के साथ – साथ परिस्थितिवश आम आदमी ने भी मजबूर हो कर भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानकर समझौता कर लिया। ऐसा नहीं है कि किसी ने भ्रष्ट आचरण व चलन के खिलाफ आवाज नहीं उठाई या संघर्ष नहीं किया, ऐसा भी नहीं है कि सारे सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो गए। अनेकों लोगों ने आवाज भी उठाई, संघर्ष भी किया, अनेकों सरकारी कर्मचारियों और अफसरों ने ईमानदारी की मिसाल कायम करते हुए भ्रष्ट व्यवस्था से लड़ाई लड़ी, आज भी लड़ रहे हैं। अनेकों संगठनों एवं व्यक्तियों ने भ्रष्टाचार एवं घोटालों का समय-समय पर पर्दाफाश किया, भ्रष्टाचार का विरोध किया, परन्तु जिस किसी ने भी अपनी आवाज उठाई , घोटालों व भ्रष्ट-व्यवस्था के संगठित तंत्र की पोल खोलने की कोशिश की उसके खिलाफ तंत्र (सिस्टम) खड़ा हो गया। उसे अनेक प्रकार की प्रताडऩाएँ व यातनाएँ दी गयीं , अनेकों जानें ली गयीं। हाल फिलहाल में युवा पत्रकार अक्षय प्रताप सिंह, डी.के. रवि, इससे पूर्व ई. सत्येंद्र दुबे, एस. मंजूनाथ, पंडिलापल्ली श्रीनिवास, सतीश शेट्टी, नरेंद्र कुमार सिंह जैसे अनेकों जांबाजों के उदाहरण मौजूद हैं, इन लोगों को ईमानदारी का साथ देने और भ्रष्टाचार के प्रति संघर्ष करने के एवज में अपनी जानें गंवानी पड़ीं। इन लोगों का गुनाह क्या था? क्या इनकी जान सिर्फ इस लिए नहीं ली गयी कि ये सारे लोग ईमानदार थे, जनहित के लिए भ्रष्ट – तंत्र पर कारवाई कर रहे थे ,नेताओं के घोटालों को जनता के सामने उजागर कर रहे थे , नेताओं तक काली – कमाई पहुँचाने वाले गिरोह का हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं थे ? हाल ही में ऐसी ही लड़ाई जब उत्तरप्रदेश के वरीय आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने शुरू की तो उल्टे उन्हें ही झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया। इस हालिया प्रकरण में किसी भी राजनीतिक दल या नेता ने अपनी कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी क्यूँकि सवाल ‘भाईचारे’ का जो था।

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