स्वाति सिंह
बंटवारा फिर वो चाहे घर में हो, रिश्तों में हो या फिर देशों में ये हमेशा दर्दनाक होता है। इस पीड़ा को सिर्फ वही अच्छे से समझ सकता है, जिन्होंने इस दर्द को खुद सहा,जिन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा हो,जिन्होंने अपनों को खोया हो,उन्हें ये दर्द आज भी सालता रहता है। हमारे देश का बंटवारा हुआ, दंगे हुए, क़त्ल हुए,इस बंटवारे पर तमाम लेखकों ने उपन्यास लिखे, कहानियां लिखीं।
साल 1947 के बंटवारे के दरमियान हमारे पूरे देश खासकर पंजाब के लोगों ने हैवानियत की एक विराट झांकी देखी थी। पंजाबियत इससे पहले कभी भी इतने बड़े पैमाने पर बर्बाद और शर्मसार नहीं हुई थी।लाखों मज़लूमों के कत्ल, रेप, अपहरण, लूटपाट, विश्वासघात और जबरदस्ती धर्मांतरण।उस वक्त आखिर हैवानियत का वो कौन सा ऐसा रूप था, जिसको पंजाब के लोगों ने नहीं सहा| पंजाब के अल्पसंख्यकों का दोष सिर्फ इतना था कि वो रेडक्लिफ लाइन की उस दिशा में मौजूद थे जहां पर उन्हें होना नहीं चाहिए था।इन सभी जगहों पर उनका नस्ली सफाया कर दिया गया और इसके नतीजे दहलाने वाले थे।पश्चिमी पंजाब में हिंदू-सिक्खों की गिनती 30 फीसद से कम होकर 1 फीसद हो गई।और पूर्वी पंजाब में मुसलमानों की तादाद 40 फीसद से कम होकर महज़ 2 फीसद रह गई।5 से 7 लाख लोग पंजाब के दोनों तरफ मारे गए।80 लाख लोगों को 90 दिन के अंदर अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा।
बंटवारे की हैवानियत का सबसे बड़ा शिकार पंजाब की अपनी महिलाओं को होना पड़ा।ऐसी हैवानियत कि लिखते हुए हाथ कांप जाए और बोलते हुए ज़बान लरज़ जाए।इस दौरान बिना कपड़ों की औरतों के जुलुस निकालने और कइयों के स्तन काट देने जैसी अमानवीय घटनाएं हुईं।यह सब कुछ पंजाब की सरज़मी पर हुआ, जहां पर सदियों से सिक्ख गुरुओं और सूफी संतों ने मज़हबी सहनशीलता, इंसानियत और दोस्ती की शिक्षा दी थी।
अब इसे किसी पितृसत्तामक समाज की विडंबना कहें या संयोग कि ऐसे समाज में एक ओर जहाँ महिलाओं का महिमामंडन किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ उनके इंसानी अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है।इतना ही नहीं, उन्हें इंसान की बजाय इज्जत नाम के लेप से ऐसा लिपापोता जाता है कि उनके लिए अपनी जान से ज्यादा प्यारी उनकी इज्जत होती है और इसी के चलते किसी भी हिंसा में महिलाओं की अस्मिता को पहला निशाना बनाया जाता है।
इसी विचार के साथ भारत के बंटवारे के दौरान भी महिलाओं को निशाना बनाया गया।औरतों पर ऐसी हैवानियत की शुरुआत मार्च 1947 के रावलपिंडी के दंगों से शुरू हो गई थी| थोहा खालसा के गांव में हिंदू सिक्ख औरतें दंगाइंयों से अपनी इज़्जत बचाने के लिए कुएं में छलांग लगाकर मर गई थीं।इसके बाद पंडित नेहरू ने खुद इस इलाके का दौरा किया और संत गुलाब सिंह की हवेली में लाशों से भरे इस कुएं को भी देखा।अगस्त, सितंबर और अक्टूबर में पंजाब के हर गांव, हर शहर में अल्पसंख्यक औरतों पर यह कहर बरपाया गया।औरतों के साथ यह सुलूक मध्यकालीन समय के विदेशी हमलावरों जैसा था, लेकिन इसबार ज़ुल्म करने वाले पंजाब की सरजमीं के अपने बाशिदें थे।
जितना जुल्म इन औरतों ने अपने जिस्म पर बर्दाश्त किया, उससे ज्यादा मानसिक तौर पर इन्होंने जुल्म सहा। उस वक़्त हैवानियत इतनी हुई कि उसे एक साधारण प्रवृत्ति मान लिया गया। इंसानियत की गुहार को तो एक समझ न आने वाली चीज़ मानकर दरकिनार कर दिया गया था। बंटवारे के दौरान यह अनुमान लगाया जाता है कि करीब 25,000 से 29,000 हिन्दू और सिख महिलाओं और 12,000 से 15,000 मुस्लिम महिलाएं अपहरण, बलात्कार, ज़बरदस्ती धर्मांतरण और हत्या का शिकार हुई।
गांव और शहरों में बहुत सारे बहुसंख्यक लोगों, बुर्जुगों और औरतों ने अपने हमसायों की मदद की। इसमें उस वक्त के कम्यूनिस्टों का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्होंने न सिर्फ अपने प्रभाव वाले गांव में दंगों को रोका बल्कि अपने संसाधन इस्तेमाल करके मजलूम परिवारों की हिफाजत करके इलाके से निकलवाया।ऐसे ही एक सिलसिले में गांव शज्जलवड्डी के कॉमरेड गहल सिंह को अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी।इस तरह की इंसानियत और दोस्ती की पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में बहुत सारी मिसालें हैं।
लेखन में जब उकेरा गया ‘देश का बंटवारा’
साहित्य किसी भी देश-समाज का आईना होता है, जिससे हम किसी भी देश के किसी निश्चित काल में उसके वातावरण का अनुमान लगा सकते है| इसी तर्ज पर, देश के बंटवारे के समय मौजूदा लेखकों ने बंटवारे के दर्द को अपने लेखन में उजागर किया। उल्लेखनीय है कि ये इतना आसान नहीं था, क्योंकि समाज को हर बार अपना चेहरा पसंद आये, ये ज़रूरी नहीं है। इसके चलते कई बार लेखकों को कई लंबे विवाद-फसाद का भी सामना करना पड़ा।लेकिन उन्होंने अपने लेखन को पूरी ईमानदारी से निभाया और वो लिखा जो उन्होंने देखा।
जितना जुल्म इन औरतों ने अपने जिस्म पर बर्दाश्त किया, उससे ज्यादा मानसिक तौर पर इन्होंने जुल्म सहा ।
ऐसे लेखकों में सबसे पहला नाम आता है उर्दू के मशहूर लेखक सहादत हसन मंटो का, जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से बंटवारे के दौरान महिलाओं के ऊपर हुई ज्यादितियों को बेबाकी से उकेरा।मंटो की कहानी ‘खोल दो’ की पात्र सकीना महीनों तक बलात्कार की शिकार होती हुई अधमरी हो जाती है और बेहोशी के आलम में उसको एक ही आवाज़ सुनाई देती है,- खोल दो! उसका बेहोशी में अपना अज़ारबंद खोल देना और उसके बूढ़े बाप का खुशी से चिल्लाना, ‘जिंदा है, मेरी बच्ची जिंदा है|’ हैवानियत की मार और जिंदा रहने की कामना और बूढ़े बाप के अपनी बच्ची के लिए वात्सल्य की प्रबलता, ऐसे दिल पसीज देने वाले वृत्तांत विश्व साहित्य में कितने मिलेंगे?
कुलवंत सिंह विर्क की कहानी ‘खब्बल’ की वह अपहरण हुई सिक्ख औरत जो मिन्नत करती है, कि उसकी 11 साल की ननद को तलाश करके उसके सुपुर्द किया जए। वह उसकी शादी करेगी और दोबारा से उसकी रिश्तेदारियां बनेगी। सब कुछ गवांकर छप्पर में बुखार से कराहती औरत के मुंह से रिश्तों को फिर जिंदा करने की यह कामना विर्क को खब्बल घास की याद दिलाती है। पर विभाजन का यह संताप झेल गई औरतों को पचास साल बाद इस तकलीफ से गुज़रना पड़ता है जब उनके बच्चों को यह पता चलता है कि उनकी मां, मां नहीं कोई हिंदू, सिक्ख या मुसलमान है।ऐसी सूरत में खुदकशी कर जाने वाली एक सिक्ख मां की कहानी ‘खामोश पानी’ फिल्म में दर्ज है।
विभाजन की पंजाबी कहानियों का पहला बड़ा संग्रह अन्ना शेकलुतसका ने ‘संतालीनामा’ के नाम से छपा।संताली की कविता का संग्रह छप रहा है, जिसका संपादन अमरजीत चंदन ने किया है।
फै़ज़ अहमद फ़ैज़, अमृता प्रीतम, उस्ताद दामन, साहिर लुधियानवी, इब्ने इंशा जैसे कवियों का बंटवारे पर कविता में एक बड़ा नाम है। गर्म हवा, और इंसान मर गया, करतार सिंह, पिंजर, शहीदे मोहब्बत, खामोश पानी, ट्रेन टू पाकिस्तान, बेगम जान, और गुरिंदर चढ्ढा की ‘वायसराय हाउस’ ये वो रचनाएं हैं जो बंटवारे की बार-बार याद दिलाती हैं। ‘तमस’ इसका सबसे चर्चित टी.वी.सीरियल रहा है। जहां प्राणनाथ मागो और सतीश गुजराल विभाजन के चितेरे हैं। वहीं सुनील जाना बंटवारे का सबसे नजदीक चश्मदीद फोटोग्राफर है।