स्वाति सिंह
भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लेकिन इसके विपरीत, भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तामक है।इस समाज ने अपने इतिहास लिखने के काम में भी अपनी पितृसत्ता की पूरी छाप छोड़ते हुए महिलाओं को दोयम दर्जे पर रखा है।शायद यही वजह है कि इतिहास में वीर, शौर्य और शासक का पर्यायवाची पुरुष को स्थापित करने का पूरा प्रयास किया है, जिसके चलते कई वीर महिला शख्सियत इतिहास के गलियारों में गुमनाम नज़र आती है। खासकर वे जिनका ताल्लुक किसी राजवंश या फिर ऊँची जाति से नहीं रहा। सरल शब्दों में कहूँ तो हमारा इतिहास भी समाज की पितृसत्ता और जाति-व्यवस्था की जटिल संरचना के चलते महिला शख्सियत को उजागर करने में असफल नज़र आता है। पर आज के बदलते समय के साथ ऐसी गुमनाम शख्सियतों को उजागर करने का प्रयास लगातार ज़ारी है, इसी तर्ज पर आज हम बात करने जा रहे है भारतीय इतिहास की एक ऐसी ही महिला शख्सियत के बारे में जिनका ताल्लुक न तो किसी राजवंश रहा और न ही ऊंची जाति से, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी वीरता और शौर्य से बल पर इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।वो हैं – झलकारी बाई।
मेघवंशी समाज में झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था, जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी और उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का इस्तेमाल करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ लड़की थी।
जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि ‘अगर भारत की एक फीसद महिलाएं भी उसके जैसी हो जाएँ तो ब्रिटिश सरकारी को ज़ल्द ही भारत छोड़ना होगा।’
एकबार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एकबार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देखकर अवाक रह गयी। क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। रानी ने झलकारी के बहादुरी के किस्सों से प्रभावित होकर, झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल होने का आदेश दिया।यहाँ झलकारी ने अन्य महिला साथियों के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी सीखा। ये वो समय था जब झाँसी की रानी अपनी सेना के साथ ब्रिटिश शासन से लोहा लेने के लिए तैयार किया जा रहा था।झलकारी बाई के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता को देखकर जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि ‘अगर भारत की एक फीसद महिलाएं भी उसके जैसी हो जाएँ तो ब्रिटिश सरकारी को ज़ल्द ही भारत छोड़ना होगा।’
झलकारी बाई ने अपनी वीरता और शौर्य से बल पर इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
इसके बाद, झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति बनाई गयी।चूँकि वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस वजह से दुश्मन को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था।
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झलकारी बाई की वीरता के बारे में हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्ता ने लिखा है कि
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी.
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी.
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर(राजस्थान) में बना है, उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है। आज भी झलकारी बाई की पुण्यतिथि को कोली समाज द्वारा शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।इसके अलावा पुरातत्व विभाग द्वारा झाँसी के पंचमहल म्यूजियम में झलकारी बाई से जुड़ी वस्तुएँ रखी गई हैं।झलकारी बाई की एक प्रतिमा समाधि-स्थल के रूप में भोपाल के गुरु तेगबहादुर कॉम्प्लेक्स में स्थापित की गयी हैं, जिसका अनावरण भारत के मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कौविंद द्वारा 10 नवम्बर 2017 को किया गया था।
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