तुम्हें देखते ही देशद्रोही भाग खड़े हों
नींव रखी विनाश की नहीं रहा कुछ ज्ञान।
कालचक्र को देखकर हंसते खुद भगवान।।
बाल्मीकि जी द्वारा किए गए इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट होता है कि शूर्पणखा इस समय बहुत अधिक भयभीत थी। उसे यह अपेक्षा नहीं थी कि उसके भाई के द्वारा भेजे गए 14 राक्षसों का वध श्री राम इतनी शीघ्रता से कर देंगे । उसे यह पूर्ण विश्वास था कि वे 14 राक्षस श्रीराम और लक्ष्मण का वध करने में सफल होंगे और वह उनका रक्तपान करने में सफल हो जाएगी। अब जब वह हताश और निराश होकर अपने भाई के पास लौटी तो इसके अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं था कि वह अपने भाई को फिर रामचंद्र जी लक्ष्मण के वध के लिए उकसाये।
संसार में राक्षसी शक्तियां वास्तव में सृजनात्मक ऊर्जा का विनाश करने के लिए इसी प्रकार के उत्पात रचा करती हैं। सात्विक संसार में रहने वाले लोग इन सारे षड़यंत्र और घात प्रतिघात की नीतियों से निश्चिंत हुए एक निष्काम योगी की भांति अपने कामों में लगे रहते हैं। उनके पास यह सोचने तक का समय नहीं होता कि राक्षसी शक्ति उनके विनाश के लिए कौन-कौन से षड्यंत्र रच रही हैं ? वास्तव में विनाश उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमा करता है जो विनाश की मानसिकता रखते हैं। जो लोग विनाश के स्थान पर विकास की संरचना अपने मानस में करते रहते हैं, वह सात्विक जीवन जीते हुए दीर्घायु को प्राप्त होते हैं।
सात्विक शक्तियों की निश्चिंतता को देखकर कई बार ऐसा लगता है कि जैसे वे अपने अस्तित्व की रक्षा के प्रति पूर्णतया असावधान हैं। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। उनकी अंतश्चेतना उन्हें जगाये रखती है और शत्रु के घात प्रतिघात के प्रति सचेत और सजग भी बनाए रखती है।
श्री राम शत्रुओं से खेल रहे थे और शत्रुओं से घिरे हुए भी थे। इसके उपरांत भी वह निश्चिंतता के साथ अपना जीवन यापन कर रहे थे। यद्यपि उनकी इस प्रकार की निश्चिंतता का अभिप्राय यह नहीं था कि वह शत्रु के हमलों के प्रति असावधान थे ।उनकी अंतश्चेतना उन्हें निरंतर शत्रु के प्रति सावधान रहने के लिए प्रेरित कर रही थी। ईश्वर भक्त लोग शांतिपूर्ण रहकर भी शत्रुओं के प्रति सावधान रहते हैं। क्योंकि उनकी अंतरात्मा में निवास करने वाली शक्ति उनकी चेतना को सदैव सजग बनाए रखती है। भक्त लोग भगवान का सानिध्य प्राप्त करके अपने अंतर्मन में व्याप्त काम क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जिनके भीतर के शत्रु शांत हो गए वे बाहर के शत्रुओं पर बड़े सहजता से विजय प्राप्त कर लेते हैं। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने हमारे अन्तर्जगत को पवित्र रखने की साधना पर विशेष बल दिया है।
यदि कुछ देर के लिए यह माना जाए कि श्री राम जब वन में रह रहे थे तो वह 14 वर्ष का ‘वनवास’ नहीं बल्कि जेल काट रहे थे तो हमें उनके उस समय के जीवन आचरण पर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में उन्होंने अपनी इस तथाकथित जेल या वनवास का सदुपयोग करते हुए अपने आत्म संयम और धैर्य को और भी अधिक बढ़ाया। आधुनिक काल में गांधी जी ने जेलों को सुधार-ग्रह का नाम दिया था। जबकि रामचंद्र जी ने अपने वनवास को अपने लिए साधना स्थली में परिवर्तित कर लिया। उनकी यह साधना भी इतनी ऊंची और पवित्र थी कि वह राष्ट्र साधना में परिवर्तित हो गई और राष्ट्र साधना से प्राणीमात्र की हित साधना में रत हो गई। यह उनका विश्व मानस था और यही उनका विराट स्वरूप था। व्यष्टि से समष्टि तक के इस विस्तार के कारण ही श्री राम ‘भगवान’ कहलाए ।
उनका यह वनवास काल :-
– धर्म साधना का काल था,
– संस्कृति की रक्षा का काल था,
– संसार की उन सभी दैवीय शक्तियों से आशीर्वाद प्राप्त कर उनकी रक्षा का काल था जो संसार की गति को धर्म के अनुकूल और वेद के अनुकूल बनाए रखने में सहायक होती हैं। उनके आत्म संयम और आत्म धैर्य को न तो शूर्पणखा हिला सकी और ना ही उसके भाइयों के द्वारा भेजे गए 14 राक्षसों का आक्रमण ही उनके मनोबल पर विपरीत प्रभाव डाल सका। वह जंगल में उस पेड़ की भांति खड़े थे जो यह जानता है कि तूफान आएंगे परंतु उनसे सीना तान कर टक्कर लेनी है, अन्यथा वे तेरा अस्तित्व मिटा देंगे।
भारत में स्वाधीनता के पश्चात ‘रामराज्य’ की कल्पना करने वाले गांधीजी सन 1931 तक भी अंग्रेजों के भारत आगमन को भारत का सौभाग्य मानते रहे और यह भी कहते रहे कि अंग्रेजों का राज भारत के लिए ‘वरदान’ है। अपने आपको राक्षस अंग्रेजों की प्रजा कहने में गांधी जी और उनके लोगों को बड़ा आनंद अनुभव होता था। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद तथ्य है कि गांधीजी अपने जीवन काल में राक्षस लोगों की पहचान नहीं कर पाए । वे यह नहीं समझ पाए कि अंग्रेज भारत में आकर भारत के लोगों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं और यहां की अकूत संपदा को लूट – लूटकर अपने देश ले जा रहे हैं। तनिक कल्पना करें कि यदि श्रीराम भी रावण के राक्षस साम्राज्य को अपने लिए वरदान मान लेते तो क्या होता ? तब निश्चय ही संसार से वैदिक संस्कृति का विनाश हो गया होता और संसार में जितनी भी सृजनात्मक शक्तियां हैं जो विनाश को प्राप्त हो गई होतीं ।
जबकि श्रीराम ने कभी भी शत्रु राक्षस लोगों का ना तो गुणगान किया और ना ही उनके सामने इस प्रकार की आत्महीनता की बातें प्रकट कीं। वे उन्हें अपना शासक मानने को भी तैयार नहीं थे। क्योंकि उनका एक ही लक्ष्य था कि मानवता के विरुद्ध काम करने वाली सभी शक्तियों का विनाश करना आवश्यक है। रामचंद्र जी ने शूर्पणखा और उसके भाइयों के इस प्रकार के आक्रमण को मात्र एक तूफान माना और उस तूफान का सामना करने का संकल्प लिया। इस संकल्प शक्ति से उन्होंने मानो रावण को पहली चुनौती दे दी कि या तो रास्ते पर आ जाओ, अन्यथा संहार के लिए तैयार रहो।
“संकल्प एक धारकर,
शत्रुओं को मारकर ,
निर्भीक हो आगे बढ़े,
तूफान को निवारकर।”
भाजपा नेता कलराज मिश्र की पुस्तक ‘हिंदुत्व एक जीवन शैली’ में गांधी जी से जुड़ी बात कही गई है। किताब के पृष्ठ संख्या 179 पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक सालिगराम दूबे ने हिंदुत्व मानव श्रेष्ठता का चरम बिंदु नाम से एक लेख लिखा है। इसमें उन्होंने कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है।
दूबे लिखते है, “आज हम जिस हिंदू संस्कृति की बात करते हैं वह एक उद्धिवासी व्यवस्था है, जिसके विचारों व दृष्टिकोण में विविधता पाई जाती है और जिसमें नदियों की गति की तरह निरंतरता है। हिंदुत्व एक जीवन-पद्धति या जीवन-दर्शन है, जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को परम लक्ष्य. मानकर व्यक्ति व समाज को नैतिक, भौतिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति के अवसर प्रदान करता है।”
श्री दुबे की इस मान्यता से पता चलता है कि भारत की संस्कृति निरंतर प्रवाहमान स्थिति को पसंद करती है। उसे रुकना पसंद नहीं है। क्योंकि रुकना मृत्यु का प्रतीक है । निरंतर प्रवाहमान जीवन से ही प्रवाहमान राष्ट्र का निर्माण होता है । राष्ट्र की इस प्रवाह मानता में कहीं पर भी किसी प्रकार का गतिरोध में आए इसके लिए देश के शासक वर्ग और नेताओं को सदा सावधान रहना चाहिए यह बिल्कुल वैसे ही होना चाहिए जैसे श्री राम ने किया था।
श्री दुबे के अनुसार, “राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वयं कहा था कि मैं हिंदू हूं और मैं राष्ट्रवादी हूं। अर्थात हिंदुत्व व राष्ट्रवाद एक-दूसरे के पर्याय हैं- तथाकथित धर्मनिरपेक्षताादियों को हिंदुत्व का सही अर्थ समझने की आवश्यकता है। राष्ट्र का संरक्षण व सशक्तीकरण प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है। भारत के राष्ट्रीय एकात्म को मजबूत करने का कार्य एकमात्र हिंदू धर्म ने किया है, क्योंकि भारत में राष्ट्रीयता हमारी संस्कृति की कोख से उत्पन्न हुई है। राष्ट्रीयता हमारी मातृत्व शक्ति है और हिंदुत्व हमारी परंपरा, भगवान राम हिंदू समाज के आदर्श पुरुष, इसी कारण उन्हें पुरुषोत्तम राम कहा गया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की राम के प्रति आस्था से पूरा विश्व परिचित है। उनका प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम…..’ किसे प्रिय नहीं है।”
इस पर हमारा कहना है कि गांधी जी ने राम के प्रति अपनी आस्था में भी दोगलापन रखा। उन्होंने किसी ऐसे राम को अपने लिए आदर्श माना जो वास्तव में कभी अस्तित्व में था ही नहीं। ‘रघुपति राघव राजा राम’ – के भजन को भी वह गाते रहे परंतु राम के उस आदर्श को कभी भी अपना नहीं सके जिसके अंतर्गत उन्होंने राक्षसों का संहार करना राज्य शक्ति का प्रथम कर्तव्य घोषित किया था।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत