आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
भगवान् बुद्ध एक विख्यात महापुरुष थे। वे वेद, आर्य अथवा ब्राह्मण आदि के विरोधी नहीं बल्कि उनका अति सम्मान करने वाले थे। वे इनके नाम पर हो रहे पापों से घृणा अवश्य करते थे, परन्तु इनके यथार्थ स्वरूप का कुछ-कुछ भान उनके हृदय में भी था। इस कारण उनके विचार इनके प्रति यथार्थवादी एवं आत्मीयतापूर्ण थे। उनके चार सत्यों का नाम ही आर्य सत्य था। देखिये धम्मपद पृ. 70 पर लिखा है-
एतं विसेसतो ञत्वा अप्पमादम्हि पण्डिता। अप्पमादे पमोदन्ति अरियानं गोचरे रता।। (9.2) अर्थात् यह अच्छी तरह जानकर अप्रमाद के विशेषज्ञ आर्यों के आचार में रत रहते हुए अप्रमाद में ही प्रमोद पाते हैं।
सुतनिपात 292 में लिखा – ”विद्वा च वेदेहि समेच्च च धम्मं, न उच्चावचं गच्छति भूपरिपञ्ञे। ” इसका अर्थ पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड अपने ग्रन्थ वेदों का यथार्थ स्वरूप में करते हैं – ”जो विद्वान् वेदों द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। उसकी ऐसी डांवाडोल अवस्था नहीं होती।” वेदज्ञ ब्राह्मण की प्रशंसा में बुद्ध कहते हैं-
यं ब्राह्मण वेदगुं आभिजञ्ञा, अकिंचनं कामभवे असत्तं। अद्धा हि सो ओघमिमं अतारि, तिण्णो च पारं अखिलो अकंखो।।
इसका अर्थ ‘वेदों का यथार्थ स्वरूप’ ग्रन्थ में पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड करते हैं – ”जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया, जिसके पास कुछ धन नहीं और जो सांसारिक कामनाओं में आसक्त नहीं, वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर से तर जाता है।”
1. धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा। अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।। (धम्मपद पृ. 114-15)
अर्थात् धर्म में आनन्द मानने वाला पुरुष अत्यन्त प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। पण्डितजन सदा आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं।
2. न ब्राह्मणस्य पहरेय्य नास्स मुञ्चेथ ब्राह्मणो। धी ब्राह्मणस्स हन्तारं ततो धी यस्स मुञ्चति।। (धम्मपद पृ. 136-37)
अर्थात् ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिये और ब्राह्मण को उस (प्रहारकर्ता) पर कोप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण पर प्रहार करने वाले को धिक्कार है। जो ब्राह्मण उस (प्रहारकर्ता) पर कोप करे, उसे भी उससे भी अधिक धिक्कार है।
3. न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद पृ. 140-141)
अर्थात् न जन्म के कारण, न गोत्र के कारण, न जटा धारण के कारण ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जिसमें धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।
4. योध पुञ्ञं च पापं च उभो संग उपच्चगा। असोकं विरजं सुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।। (धम्मपद पृ. 144-145)
अर्थात् जो इस जन्म में ही पाप और पुण्य तथा उनकी आसक्ति को पार कर गया, उस विगतशोक, विगतरज और शुद्ध पुरुष को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
5. वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो। यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।। (धम्मपद पृ. 146-147)
अर्थात् कमलपत्र पर जल और सुई की नोंक पर सरसों की भाँति, जो भोगों में लिप्त नहीं होता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
इन सब पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि भगवान् बुद्ध वेद, आर्य, ब्राह्मण सभी के प्रति अति श्रद्धा का भाव रखते थे। वे जन्मना जातिव्यवस्था के विरोधी थे परन्तु कर्मणा वर्णव्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। तब प्रश्न उठता है कि बौद्ध-मत वेद व ब्राह्मण विरोधी कैसे बन गया? इस विषय में हमारा मत है कि यद्यपि वे वेदादि शास्त्र पढ़े थे परन्तु वे वेद के विशेष विद्वान् नहीं थे। उन दिनों वेेद के नाम पर कथित जन्मना ब्राह्मण, जो भगवान् मनु के अनुसार अनार्य व दस्यु बन चुके थे, मांसाहार, पशुबलि आदि पापों को विस्तार दे रहे थे। गौतम बुद्ध महर्षि दयानन्द जी सरस्वती की भाँति उन नकली ब्राह्मणों व कथित वेदज्ञों से शास्त्रार्थ नहीं कर सकते थे, इस कारण मौन हो जाते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने अपने गुरु की वेद के सम्बंध में विशेष रुचि न देखने से उन्हें वेदविरोधी तथा वेद के नाम पर दुष्टता करने वालों को ही वेदज्ञ ब्राह्मण समझकर वेद व ब्राह्मण आदि के विरुद्ध भारी अभियान चलाया। उन बौद्धों व जैनों ने क्यों बुद्ध के विचारों, जो सुपानिपात व धम्मपद में थे, को ध्यान से नहीं पढ़ा अथवा वे भी नकली ब्राह्मणों की करतूतों से ग्रस्त होकर सिर दर्द दूर करने हेतु सिर कटाने को ही अपना उद्देश्य समझ बैठे। फिर ईश्वर, वेद आदि से भी दूर होकर अनीश्वरवाद की छाया में पलता बढ़ता बौद्ध मत मद्यमांसादि को अपनाने की ओर पूर्ण प्रवृत्त हुआ है।
इस प्रकार संसार के बौद्ध ही अपने आराध्य भगवान् बुद्ध की हत्या कर रहे हैं तथा इस देश के कुछ विघटनकारी संगठन विदेशी षड्यन्त्रों में फंसकर भारत के कथित दलित ही नहीं अपितु कथित पिछड़ा वर्ग को भी आर्य, वेद, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि के विरुद्ध भड़काकर उन्हें बौद्ध मत अपनाने की प्रेरणा देेकर देश में गृहयुद्ध के बीज बो रहे हैं। ये लोग न बुद्ध को समझते हैं और न वेदादि शास्त्रों को बल्कि, विदेशी षडय़न्त्रकारियों के षडय़न्त्र में फंसे कठपुतली की भाँति नाचते हैं।
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