हमारे देश में कई लोगों को ऐसी भ्रांति रहती है कि जैसे 25 जून 1975 को ही देश में पहली बार आपातकाल घोषित किया गया था । आज हम यहां यह बताना चाहेंगे कि देश में पहली बार आपातकाल जैसी स्थिति 13 सितंबर 1948 को उत्पन्न हुई थी। यद्यपि उस समय हमारे देश का संविधान भी लागू नहीं हुआ था। परंतु तत्कालीन सरकार में गृहमंत्री के पद पर कार्यरत सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तक को इस बात के लिए बाध्य कर दिया था कि वे आपातकाल में कोई भी ऐसी गतिविधि ना करें जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो। वे शांत होकर अपने घर में बैठ जाएं और कुछ देर के लिए देखें कि हैदराबाद किस तरह भारतीय संघ में सम्मिलित होता है? ऐसा कठोर निर्णय केवल सरदार वल्लभभाई पटेल ही ले सकते थे और उन्होंने ऐसा निर्णय लेकर भी दिखाया। सचमुच , अपने आपको ‘बेताज का बादशाह’ कहने वाला नेहरू भी सरदार वल्लभभाई पटेल की निर्णय क्षमता के सामने पानी भरता था। जब उन्होंने ‘ऑपरेशन पोलो’ के माध्यम से निजाम हैदराबाद को झुकाने के लिए सैनिक कार्यवाही की तैयारी की तो नेहरु सचमुच अपने घर अर्थात तीन मूर्ति भवन में चुप होकर बैठ गए थे।
13 सितंबर, 1948 को भारत में जब पहली बार आपातकाल घोषित किया गया तो उस आपातकाल और बाद में इंदिरा गांधी के द्वारा लगाए गए आपातकाल में बहुत भारी अंतर था। इंदिरा गांधी ने अपनी स्वयं की सत्ता को बचाने के लिए नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ खिलवाड़ करते हुए और संविधान को ताक पर रखकर आपातकाल की घोषणा की थी । जबकि सरदार वल्लभ भाई पटेल के द्वारा जिस आपातकाल की घोषणा अघोषित रूप से की गई थी वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए लागू किया गया था। उसमें सत्ता का स्वार्थ नहीं था, बल्कि उसमें सत्ता को जनोपयोगी बनाए रखने की शासक की मजबूत इच्छाशक्ति परिलक्षित होती थी। इसके विपरीत इंदिरा गांधी ने जब 1975 में न्यायालय के आदेश से भयभीत होकर आपातकाल की घोषणा की तो उसमें ‘सत्ता की भयभीत होने की कमजोर इच्छाशक्ति दिखाई देती थी।’
सरदार वल्लभभाई पटेल यदि ‘लौह पुरुष’ कहे जाते हैं तो वह वास्तव में लौह पुरुष थे। क्योंकि ‘लौह पुरुष’ किसी के अधिकारों का हनन नहीं करता है, बल्कि अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूत निर्णय लेता है । इसके विपरीत यदि इंदिरा गांधी को ‘आयरन लेडी’ कहा जाता है तो वह कम से कम इस अर्थ में तो’आयरन लेडी’ नहीं थीं, क्योंकि उन्होंने आपातकाल की घोषणा अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए की थी। वह उस दिन भयभीत थीं और भयभीत होकर उन्होंने लोगों के गले घोंट दिए थे । ऐसे शासक को आप कभी भी ‘आयरन लेडी’ या ‘आयरन पर्सन’ नहीं कह सकते।
13 सितंबर 1948 को जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने अघोषित आपातकाल लागू किया तो उस दिन भारत के 36 हज़ार सैनिकों ने हैदराबाद में जाकर डेरा डाला। निजाम हैदराबाद और उसकी मुस्लिम जनता के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति थी। क्योंकि वह सत्ता के नशे में यह भूल चुका था कि भारत को वह जैसे चाहे नचा सकता है। लेकिन सरदार पटेल ने अपने एक निर्णय से यह स्पष्ट कर दिया कि वह किसी के भी संकेतों पर नाचने के लिए मजबूर नहीं हैं। वह एक स्वतंत्र देश के गृहमंत्री हैं और अपने देश की रक्षा का दायित्व निर्वाह करना वह भली प्रकार जानते हैं । ‘वह प्यादों को नचा सकते हैं प्यादों के संकेतों पर नाच नहीं सकते।’ उनके समय के प्रधानमंत्री और उनके बाद के भी कई ‘कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने प्यादों के संकेतों पर नाचने के घटिया काम करके दिखाए।’ यदि प्यादों को प्यादे मान कर काम किया जाता तो देश का इतिहास आज दूसरा होता । यहां चाहे शेख अब्दुल्ला रहे और चाहे उसके बाद के दूसरे शेख अब्दुल्ला रहे, सत्ता में बैठे लोग उनके संकेतों पर नाचने का काम करते रहे। दुर्भाग्य से सरदार पटेल की परंपरा आगे नहीं बढ़ी, अन्यथा देश कब का विश्व गुरु बन गया होता।
13 से लेकर 17 सितम्बर तक हैदराबाद में वहां के नवाब के समर्थक लोगों की कमर तोड़ने के लिए किसी भी प्रकार का कोई संकोच नहीं किया गया । बड़ी संख्या में नरसंहार किया गया और जब नवाब हैदराबाद ने देख लिया कि भारत के शौर्य और वीरता के समक्ष वह कुछ भी नहीं कर पाएगा तो वह बहुत शीघ्र सरदार पटेल के पैरों में आ गया।
हमारे देश की सेना ने इसे ‘ऑपरेशन पोलो’ कहा था। कुछ हिस्से में ये ‘ऑपरेशन कैटरपिलर’ भी कहा गया। सरदार पटेल ने दुनिया को बताया कि ये ‘पुलिस एक्शन’ था। सारी दुनिया ने भारत के ‘सरदार’ के ‘असरदार’ होने का स्पष्ट प्रमाण देखा और जो उस समय का ‘सरदार’ ( नेहरू) था उसके ‘बेअसरदार’ होने को भी सब ने देख लिया ।
अभियान के दौरान व्यापक तौर पर जातिगत हिंसा हुई थी, अभियान समाप्ति के बाद नेहरू ने इसपे जाँच के लिए एक समिति बनाई थी जिसकी रिपोर्ट सन 2014 में सार्वजनिक हुई। अर्थात रिपोर्ट को जारी ही नहीं किया गया था, रिपोर्ट बनाने के लिए सुन्दरलाल कमिटी बनी थी, रिपोर्ट के अनुसार इस अभियान में 27 से 40 हजार जानें गई थीं यद्यपि जानकार ये आंकड़ा दो लाख से भी अधिक का बताते हैं।
मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना के प्रभाव में हैदराबाद के निजाम नवाब बहादुर जंग ने लोकतंत्र को नहीं माना था, नवाब ने कासिम रिजवी को जो कि एमआईएम ( मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन) का प्रमुख नेता था की अगुवाई में रजाकारों की सेना बनाई थी जो करीब दो लाख की संख्या में थी। इस प्रकार एआईएमआईएम नाम का यह संगठन मुसलमानों को हिंदुओं के विरुद्ध ‘एक’ करने के लिए तैयार किया गया था। जिसने उस समय देश तोड़ने का हर संभव प्रयास किया था । आज इस संगठन का मुखिया ओवैसी है।
मुस्लिम आबादी बढ़ने के लिए कासिम रिजवी और उसके संगठन ने हैदराबाद में लूटपाट मचा दी थी, जबरन इस्लाम हिन्दू औरतो के बलात्कार, सामूहिक हत्याकांड करने आरम्भ कर दिए थे। सरदार पटेल पर यह सब कुछ देखा नहीं जा रहा था।
घटना की वास्तविकता
अंग्रेजों ने भारत को आजादी देने के साथ-साथ भारत को अनेकों टुकड़ों में बांटने की योजना पर काम करना आरंभ कर दिया था। वह नहीं चाहते थे कि भारत को उन्हें छोड़ना पड़े, परंतु भारत के क्रांतिकारी आंदोलन से जनित परिस्थितियां उन्हें अब देश को छोड़ने के लिए बाध्य कर रही थीं। उन्होंने अपनी बाध्यता को देश को तोड़ने में प्रयोग करने की युक्तियां खोजनी आरंभ कर दी थीं। यही कारण था कि देश को आजाद करने से पहले 1947 में अंग्रेजों की ओर से यह प्रस्ताव रख दिया गया था कि कोई भी रियासत चाहे तो पाकिस्तान में जा सकती है चाहे भारत में जा सकती है और चाहे तो वह स्वतंत्र भी रह सकती है। अंग्रेजों के देश तोड़ने के इसी मनोभाव को समझकर देश की कई रियासतों ने गद्दारी का रास्ता पकड़ लिया था। उन्हीं में से एक रियासत हैदराबाद की भी थी।
जो लोग यह मानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत वर्ष में राष्ट्रवाद का बीजारोपण किया था और हम भारतीयों को सबसे पहले राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया था, उन्हें अंग्रेजों की इस चाल को भी गंभीरता से समझना चाहिए कि उन्होंने जाने से पहले देश को तोड़ने की सारी चालें चली थीं। यदि वह राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने वाली राष्ट्रीयता के पोषक होते तो ऐसा कदापि नहीं करते। जो लोग अंग्रेजों को एक सभ्य जाति मानकर उनका आज तक भी गुणगान करते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि यदि वह सभ्य होते तो जाते-जाते वह भारत और भारत के लोगों का इस बात के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते कि हमको भारतवर्ष ने बहुत कुछ दिया है। जिसके हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां युग युगों तक ऋणी रहेंगी। जितनी देर भी हम भारतवर्ष में रहे उतने काल में यदि हमने किसी भी प्रकार से भारत के लोगों का सम्मान नष्ट करते हुए उनको कहीं ना कहीं अपमानित किया या उन पर अपनी शासन सत्ता को स्थापित किये रखने के लिए अत्याचार किए तो हम जाते-जाते अपने पापों और अत्याचारों के लिए भी प्रायश्चित करते हैं और भारतवासियों से अपने किए की क्षमा याचना करते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उन्हें ऐसा करना भी नहीं था। उन्होंने वही किया जो असभ्य, बर्बर और एहसान फरामोश जातियों से करने की अपेक्षा की जाती है। यही कारण था कि उन्होंने देश को तोड़ने के लिए सभी रियासतों को स्वतंत्र छोड़ दिया।
हैदराबाद में समरकंद से आए आसफजाह की वंशावली चलती थी। ये लोग मुगलों की ओर से इस रियासत के राज्यपाल या सूबेदार थे। औरंगजेब के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी । इनको निज़ाम कहते थे। 1948 में निज़ाम उस्मान अली खान आसफजाह सातवां हैदराबाद की प्रजा पर शासन करता था। उसकी प्रजा में अधिकांश जनता हिंदू थी। निज़ाम उस समय संसार के सबसे अधिक धनी लोगों में गिना जाता था उसे अपने धन का बहुत भारी अभिमान था मैं यह मानता था कि वह धन के बल पर हिंदू जनता को कुचलने के अपने अभियान को स्वतंत्र भारत में भी चला सकता है बस इसी अभिमान के चलते उसने यह भ्रम भी पाल लिया था कि वह हिंदुस्तान के भीतर रहकर भी एक स्वतंत्र देश का शासक बना रह सकता है।
अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए निजाम हैदराबाद ने अमेरिका तक से संबंध स्थापित कर लिए थे । उसे पूरा भरोसा था कि जैसे ही वह अमेरिका की सहायता लेना चाहेगा तो उसे अमेरिका सहायता देगा और एक स्वतंत्र देश की मान्यता भी दे देगा ।इसके लिए उसने अपनी सेना का भी गठन कर लिया था।
जिसमें मुस्लिम समुदाय के लोग थे। इनको रजाकार कहते थे। इसके पहले निज़ाम ब्रिटिश सरकार के पास भी जा चुका था कि कॉमनवेल्थ के अधीन इनका अपना देश हो। पर माउंटबेटन ने मना कर दिया था। एजी नूरानी ने लिखा है कि नेहरू बातचीत से मामला सुलझाना चाहते थे, पर सरदार पटेल के पास बात करने के लिए धैर्य नहीं था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत