रवि शंकर
एन.सी.ई.आर.टी का नाम लेते ही हमारे मन में ऐसी पुस्तकों का चित्र उभरता है, जो पूरे देश में बच्चों को पढ़ाई जाती हैं। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि कोई भी यह समझेगा कि ये पुस्तकें राष्ट्रीय एकात्मता और राष्ट्रीय गौरव के लिए ही तैयार की गई होंगी। दुखद यह है कि बात इससे एकदम उलटी है। एन.सी.ई.आर.टी की पुस्तकें न केवल राष्ट्रीय विभेद उत्पन्न करती हैं, बल्कि यह भारतीय समाज को अमानवीय भेदभाव और उसके इतिहास को हीनता से परिपूर्ण बताती हैं और इससे किसी भी भारतीय के मन में राष्ट्रीय एकात्मता और गौरव का भाव तो नहीं पैदा हो सकता। भारतीयों में भी हिंदू ही इनके निशाने पर हैं। एन.सी.ई.आर.टी की पुस्तकों में जब भी भेदभाव की चर्चा होती है, केवल हिंदुओं की कुरीतियों के उदाहरण दिए जाते हैं। कभी भी मुस्लिम या अन्यान्य समुदायों के उदाहरण नहीं दिए जाते। इससे भी बच्चों के मन में बहुसंख्य तथा सनातन हिंदुओं के बारे में एक संभ्रम का निर्माण होता है। यह समझ पाना कठिन है कि यह सब जानबूझ कर किया गया है या फिर लेखक इतने मूर्ख रहे हैं कि उन्हें यही नहीं पता कि बच्चों को क्या पढ़ाना चाहिए।
यदि हम एन.सी.ई.आर.टी की इतिहास और नागरिक शास्त्र की पुस्तकें पढ़ेंगे चाहे वे कक्षा छह की पुस्तकें हों या फिर कक्षा नौ-दस की, वे पुस्तकें हमें राजनीतिक पर्चे जैसा प्रतीत होंगी, पाठ्यपुस्तकों जैसी नहीं। यह देखना काफी हैरान करने वाला है कि नागरिक शास्त्र की प्रारंभिक पुस्तकों में मेरठ दंगों और हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक भेदभावों की जानकारी दी जा रही है, जो कि 11-12 वर्ष के कोमल मन वाले बच्चों के ऊपर कहीं से भी अच्छा असर नहीं डाल सकती। इतना ही नहीं, प्रारंभ से ही उन्हें केवल उन राजनीतिक मुद्दों के ऊपर ध्यान केंद्रित करना सिखाया जाता है, जो यूरोप में प्रचलित हैं, भारतीय समाज जीवन से जिनका कोई लेना-देना नहीं है। इसप्रकार छोटे-छोटे बच्चों को अपने परिवार और समाज से विद्रोह करने की शिक्षा इन पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से बहुत ही सूक्ष्मता से दी जाती है। उदाहरण के लिए एन.सी.ई.आर.टी की कक्षा छठी की नागरिकशास्त्र की पुस्तक का शीर्षक है – सामाजिक और राजनैतिक जीवन। यानी इसमें देश के सामाजिक और राजनैतिक जीवन से बच्चों को परिचित कराया जाएगा। इसका पहला अध्याय है – अंडरस्टैंडिंग डाइवर्सिटी जिसे हिंदी में लिखा गया है – विभिन्नता। यह समझ पाना कठिन है कि विद्वान लेखकों ने भारत के सामाजिक जीवन के बारे में पढ़ान के लिए सबसे पहला अध्याय विभिन्नता ही क्यों लिखा। क्या भारत को देखते ही उन्हें केवल विभिन्नता ही दिखती है? या वे बच्चों के मन में सबसे पहले भारत की विभिन्नता के भाव को परिपक्व करना चाहते हैं? कारण चाहे जो भी हो, पहला ही अध्याय बच्चों को भारत के सामाजिक जीवन से नहीं, बल्कि उसकी एक विशेषता विभिन्नता से परिचय करवाता है। यह थोड़ी हैरान करने वाली बात है कि समाज का ज्ञान दिए बिना, उसकी विशेषताओं की चर्चा की जाए। पढ़ाने का यह तरीका भी काफी क्लिष्ट और कम से कम बच्चों के लिए पहेली जैसा ही है। यही कारण है कि बच्चे इन विषयों को पढ़ते तो हैं, पर समझते नहीं हैं।
हिंदी पुस्तक में इस अध्याय के प्रारंभ में बताया गया है – ‘यहाँ हमने सोच समझकर विशेषण और क्रिया के स्त्रीलिंग रूप का प्रयोग किया है, जो पूरे पाठ में चलता है। शिक्षा में लड़कियों को समान स्थान और अवसर मिलें — इसके लिए कई स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि हम लिखते समय लड़कियों को सीधे संबोधित करें। यदि हम अभी तक की पाठ्यपुस्तकों को देखें तो उनमें पढऩे वाले को हमेशा एक लड़का मानकर पुल्लिंग रूपों का ही प्रयोग किया जाता है। यह मान लिया जाता है कि स्त्रीलिंग रूप उसी में शामिल है। यहाँ हमने भाषा की इस परिपाटी को बदला है। इस पाठ के अलावा हमने कुछ अन्य पाठों में भी स्त्रीलिंग रूप का प्रयोग किया है।
इस उद्धरण से पता चलता है कि पुस्तक लिखने वाले बच्चों को समाजशास्त्र सिखाने से अधिक आज की राजनीति का मोहरा बनाने का काम कर रहे हैं। लड़के-लड़कियों में भेदभाव किए जाने की बात यूरोपीय राजनैतिक विमर्श का एक हिस्सा है। वर्तमान भारतीय राजनीति में यूरोपीय राजनैतिक विमर्शों की नकल की जाती है और इसलिए यहाँ भी बिना सोचे-समझे लिंगभेद की राजनीति की जाती है। दु:ख की बात यह है कि कक्षा छह से बच्चों को इस राजनीति का शिकार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। शिक्षा से राजनीति प्रभावित होनी चाहिए, परंतु इस पाठ में राजनीति ही शिक्षा को निर्देशित कर रही है। यह स्थिति पाठ में आगे भी जारी रहती है। सामान्यत: पाठ्यपुस्तकों विशेषकर बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में समाज की वह जानकारी दी जानी चाहिए, जिससे उनमें समाज की ठीक समझ विकसित हो और वे एक जिम्मेदार नागरिक बन सकें। यदि लेखकों को लिंगभेद न किए जाने और स्त्रियों को विशेष महत्त्व देने की बात करनी ही थी तो पाठ की भाषा को स्त्रीलिंग में प्रस्तुत करने की बजाय स्त्री पात्रों को प्रमुखता से दिखाया जा सकता था। परंतु इसकी बजाय बच्चों को यह आभास देना कि लड़कियां शिक्षा से वंचित रही हैं, एक मिथ्या संभ्रम का निर्माण करने का प्रयास ही है। साथ ही यह शिक्षा की संकल्पना से भी उन्हें वंचित करना है। क्या केवल पुस्तकें पढऩा ही शिक्षा है? क्या कौशल विकास शिक्षा नहीं माना जाना चाहिए? यह देखना रोचक हो सकता है कि कौशल विकास राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2019 का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, परंतु एन.सी.ई.आर.टी की पाठ्यपुस्तक कौशल विकास को शिक्षा से बाहर मान रही है। आखिर समाज में लड़कियों को हमेशा जीवनोपयोगी कौशलों की शिक्षा दी जाती रही है, जिससे कि आज की शिक्षा उन्हें पूरी तरह वंचित कर रही है। जीवनोपयोगी कौशलों को होमसाईंस कह कर उपेक्षित किया जाता है, जिसे कोई भी बच्चा (लड़का या लड़की) पढऩा नहीं चाहता।
इस अध्याय के प्रारंभ में बच्चों को विविधता की बजाय भिन्नता यानी डाइवर्सिटी की बजाय डिफरेंस की जानकारी दी जा रही है। भिन्नता और विविधता में सूक्ष्म अंतर है। विविधता एक प्रकार की विशेषता है, इसमें संघर्ष नहीं होता। भिन्नता भेद पर आधारित है और इसमें संघर्ष होने की संभावना काफी अधिक है। विविधता को बताने के लिए भिन्नता की बात करना समझ से परे है। भिन्नता को समझाते हुए दोस्ती की बात की गई है और उसके बाद एक कहानी दी गई है। नहीं, यह कहानी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खाँ की नहीं है। यह कहानी मेरठ दंगे की है। एन.सी.ई.आर.टी की सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि इसकी हिंदी की सभी पुस्तकें अंग्रेजी से अनुदित हैं। इसलिए इसमें जो कहानी दी गई है, वह भी एक अंग्रेजी कहानी का अनुवाद है। इस कहानी के पात्र भी चुनिंदा हैं। एक पात्र ट्रैफिक सिग्नलों पर अखबार बेचने वाला बच्चा है। दूसरा पात्र साइकिल से चलने वाला एक व्यक्ति है। आमतौर पर ऐसे पात्रों में अखबार लेने के अलावा और कोई संवाद नहीं होता, परंतु इस कहानी में संवाद होता है और वह कई दिनों तक जारी रहता है। कहानी में दोनों ही पात्रों का नाम एक ही है, समीर, जबकि दोनों में से एक मुसलमान है और दूसरा हिंदू। यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में मुसलमान आमतौर पर समीर जैसा हिंदू नाम नहीं रखते। परंतु केवल बच्चों को बरगलाने के लिए ऐसी एक काल्पनिक कहानी दी गई है। फिर बताया जाता है कि मुसलमान समीर के घरवाले मेरठ के रहने वाले हैं और दंगों के पीडि़त हैं। इस कहानी के बाद बच्चों को अमीरी और गरीबी के भेद की भी जानकारी दी जाती है। इसके साथ यह भी बताया जाता है कि अमीरी-गरीबी का अंतर विविधता नहीं है, यह गैर-बराबरी है। गैर-बराबरी की परिभाषा करते हुए माक्र्सवादी दृष्टिकोण बच्चों पर थोपा जाता है कि ‘गैर-बराबरी का मतलब है कि कुछ लोगों के पास न अवसर हैं और न ही ज़मीन या पैसे जैसे संसाधन, जो दूसरों के पास हैं। इसीलिए गरीबी और अमीरी विविधता का रूप नहीं हैं। यह लोगों के बीच मौजूद असमानता यानी गैर—बराबरी है। जाति व्यवस्था असमानता का एक और उदाहरण है। इस व्यवस्था में समाज को अलग—अलग समूहों में बाँटा गया। इस बँटवारे का आधार था कि लोग किस—किस तरह का काम करते हैं। लोग जिस जाति में पैदा होते थे, उसे बदल नहीं सकते थे।’
पुस्तक का राजनैतिक दृष्टिकोण यहाँ और अधिक स्पष्ट हो जाता है। विविधता की जानकारी अभी ठीक से दी नहीं गई है और गैर-बराबरी या असमानता की चर्चा प्रारंभ कर दी गई है। असमानता का स्वरूप और कारण भी एकपक्षीय तरीके से बताए जा रहे हैं। उसके सभी आयामों को ठीक से नहीं बता कर केवल एक माक्र्सवादी दृष्टिकोण बच्चों पर थोपा जा रहा है। अध्याय का अंत एक कम्युनिस्ट संगठन इप्टा के एक गीत से किया गया है, जिसमें केवल हिंदू-मुस्लिम संघर्ष और सद्भाव की चर्चा की गई है। इस गीत में इतने अधिक उर्दु शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिसे समझ पाना सामान्य बच्चों के लिए काफी कठिन है। यह देखना महत्त्वपूर्ण है जलियाँवाला बाग की घटना को एकात्मता प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तुत किया गया है, परंतु गीत एक बार फिर केवल हिंदू-मुसलमान पर केंद्रित है। वह गीत भी केवल एक कम्युनिस्ट संगठन द्वारा गाया जाता था, जनसामान्य द्वारा नहीं। जनसामान्य तो जलियाँवाला बाग की घटना के बाद ‘पगड़ी संभाल जट्टां, पगड़ी संभाल ओए’गाता था। पूरे पंजाब में वह गीत लोकप्रिय हो गया था। इस गीत में गुलामी की जंजीरों को तोडऩे की बात की गई थी।
कक्षा सात की नागरिक शास्त्र की पुस्तक तो इससे एक कदम आगे बढ़ कर पूरी तरह एक राजनीतिक निबंध ही प्रतीत होती है। उसका पहला ही अध्याय केवल हिंदुओं के कुछेक वर्ग के प्रति विद्यार्थियों में हीन भाव पैदा करने के लिए बनाया गया प्रतीत होता है। कड़वाहट और केवल नकारात्मक भावों से भरे लोगों को उद्धृत करते हुए पुस्तक केवल यह स्थापित करने का प्रयास करती है कि हमारे समाज में कथित दलितों और मुसलमानों के प्रति काफी भेदभाव किया जाता है। इतना ही नहीं, कक्षा सात के प्रश्नपत्र में ऐसे प्रश्न भी पूछे जाते हैं। एक प्रश्न इस प्रकार था – ओमप्रकाश बाल्मिकी और श्रीमान अंसारी के अनुभवों में क्या समानता है, बताएं। निश्चित रूप से ऐसा बताने से बच्चों के मन में कोई सामाजिक गौरव का भाव नहीं आ सकता। बच्चों को समाज रचना के मूलभूत सूत्रों को बताने की बजाय पुस्तक केवल जटिल और क्लिश्ट सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों को बच्चों के अबोध मन में घूसेडऩे का प्रयास करती है। पुस्तक की भाषा इतनी आपत्तिजनक है कि यदि चुनावों के दौरान ऐसी भाषा का प्रयोग राजनैतिक दल भी करें तो उन पर चुनाव आयोग आपत्ति कर सकता है। ऐसी भाषा का प्रयोग पाठ्यपुस्तकों में क्यों किया गया है, यह समझ से परे है।
कुल मिला कर देखें तो एन.सी.ई.आर.टी की पुस्तकों का निर्माण पूरे देश में राष्ट्रीय एकात्मता का निर्माण करने के लिए किया गया था। इसी सोच को सामने रख कर पिछले दिनों यह बात भी उछाली गई थी कि निजी विद्यालयों में भी एन.सी.ई.आर.टी की पुस्तकें अनिवार्य की जाएंगी। परंतु हम ऊपर दिए गए उदाहरणों से यह देख सकते हैं कि ये पुस्तकें एकात्मता की नहीं, वरन् विभेद की शिक्षा देती हैं। ये पुस्तकें बच्चों के मन में न केवल नागरिक शास्त्र की सही जानकारी नहीं देतीं, बल्कि ये गर्हित राजनैतिक उद्देश्य से उनके बालमन में एक आत्महीनता का भाव भी पैदा करती हैं।
बहुत से लेख हमको ऐसे प्राप्त होते हैं जिनके लेखक का नाम परिचय लेख के साथ नहीं होता है, ऐसे लेखों को ब्यूरो के नाम से प्रकाशित किया जाता है। यदि आपका लेख हमारी वैबसाइट पर आपने नाम के बिना प्रकाशित किया गया है तो आप हमे लेख पर कमेंट के माध्यम से सूचित कर लेख में अपना नाम लिखवा सकते हैं।