गुर्जर शासकों द्वारा बनाए गए बटेश्वर के मंदिर अर्थात शिव मंदिरों का खजाना
लोकेन्द्र सिंह
एक नहीं, दो नहीं, लगभग आधा सैकड़ा शिव मंदिर। एक ही जगह पर, एक ही परिसर में। आठवीं शताब्दी की कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना। आसपास बिखरे पड़े तमाम अवशेष। पुरातत्व विभाग और सरकार ईमानदारी से प्रयास करते रहेंगे तो निश्चित ही चारों तरफ बिखरे पड़े इन्हीं अवशेषों में से और मंदिर जी उठेंगे। जैसे फीनिक्स पक्षी के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी ही राख से फिर जी उठता है। मुरैना जिले के बटेश्वर में अवशेषों के बीच खड़े मंदिरों को देखकर तो यही उम्मीद मजबूत होती कि भविष्य में यहां विशालतम मंदिर समूह होगा। पुरातत्वविद् मानते हैं कि कभी यहां 300 से 400 मंदिर हुआ करते थे। इनमें ज्यादातर शिव मंदिर हैं। कुछेक विष्णु मंदिर भी हैं। श्रृंखलाबद्ध खड़े करीब आधा सैकड़ा मंदिरों का समूह ही जब प्रखरता के साथ अपनी विरासत की कहानी बयान करता है तो सोचिए 300-400 मंदिरों का समूह कैसे भारतीय संस्कृति, सभ्यता और विरासत का परचम लहराएगा।
बरसों पहले भूमिसात् हुए बटेश्वर के मंदिरों के पुनर्जन्म की कहानी कुछ यूं शुरू होती है। भारतीय पुरातत्व विभाग के अधिकारी के के मोहम्मद जब पहली बार बटेश्वर पहुंचे तो उनका सामना डाकुओं से होता है। कुख्यात डाकू निर्भय गुर्जर से। बटेश्वर डाकुओं के छिपने की जगह था। डाकुओं ने श्री मोहम्मद को साफ कह दिया कि ये मंदिर उनके हैं। लेकिन, पत्थरों के संवाद को समझने में माहिर के के मोहम्मद जान गए कि यहां मंदिरों का खजाना है। करने के लिए बहुत काम है। भारत की विरासत को सबके सामने लाने का एक मौका है। यही जिम्मेदारी तो पुरातत्व विभाग ने उन्हें दी है। उन्होंने डाकुओं को समझाया कि वे उनके बारे में पुलिस को कोई सूचना नहीं देंगे, वे तो इस धरोहर को जीवित करना चाहते हैं। काफी समझाने पर डाकू माने ही नहीं, वरन मंदिरों के जीर्णोद्धार में सहयोगी भी बन गए। डाकुओं से सब डरते हैं। डाकुओं के इसी डर के कारण बरसों से मंदिरों के अवशेष सुरक्षित रहे। वरना खनन माफियाओं ने कब का इन पत्थरों को बेच दिया होता। आसपास के इलाके में बलुआ पत्थर के खनन का काम जोरों पर होता रहा है। डाकुओं के डर के कारण ही खनन माफिया कभी मंदिर परिसर के आसपास भी नहीं आए।
वर्ष 2005 में मंदिरों के जीर्णोद्धार का काम शुरू हुआ। डाकू इस काम में मजदूरों के साथ हाथ बंटाते थे। वर्ष 2006 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने डकैत निर्भय गुर्जर को मार गिराया। इसके बाद तो खनन माफियों के हौंसले बुलंद हो गए। खनन माफियाओं ने बलुआ पत्थर निकालने के लिए मंदिर परिसर के निकट तक धरती का सीना विस्फोट से उड़ाना शुरू कर दिया। तेज धमाकों से मंदिरों के जीर्णोद्धार काम में बाधा खड़ी होने लगी। मंदिरों और मंदिरों के अवशेषों को नुकसान पहुंचने लगा। श्री मोहम्मद ने राज्य की भाजपा सरकार से मदद मांगी। सरकार ने कार्रवाई भी की लेकिन कुछ दिन शांत रहने के बाद खनन माफिया फिर सक्रिय हो गए। ग्वालियर के पत्रकार नासिर गौरी उस वक्त आईबीएन-7 के लिए एक स्टोरी करने के लिए बटेश्वर पहुंचे। उनका प्रयास था कि एतिहासिक विरासत को संजोने और उसके जीर्णोद्धार में आ रही परेशानी पर सरकार और अधिक ध्यान दे। इस दौरान नासिर गौरी को बंदूकधारी खनन माफियाओं ने घेर लिया। उनकी करतूत को टेलीविजन पर दिखाने पर जान से मारने की धमकी भी दी। कैमरा तोडऩे का प्रयास भी किया। लेकिन, अपनी चतुराई और सूझबूझ से श्री गौरी ने कैमरा तो बचाया ही साथ ही शूट किए फुटेज भी सुरक्षित कर लिए। खनन माफियाओं से बटेश्वर मंदिर की सुरक्षा करने में श्री गौरी की इस स्टोरी का बड़ा योगदान रहा। उनकी इस स्टोरी से बटेश्वर के मंदिर और अवैध खनन पर देशव्यापी चर्चा हुई।
बटेश्वर के शिव मंदिरों की सुरक्षा के लिए एक सार्थक कदम के के मोहम्मद ने भी उठाया। उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा और मूल्यों की रक्षा के लिए दुनियाभर में ख्यात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मदद मांगी। श्री मोहम्मद ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री कुप्प सी. सुदर्शन को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया। श्री सुदर्शन के हस्तक्षेप ने असर दिखाया। मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने बटेश्वर मंदिर परिसर के आसपास अवैध खनन को रुकवा दिया। अब मंदिरों के जीर्णोद्धार या कहें पुनर्जन्म का काम बड़ी तेजी से शुरू हो गया। मंदिरों को मूल आकार में लाना पुरातत्व विभाग के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य था। मंदिर के अलग-अलग हिस्से यहां-वहां बिखरे पड़े थे। एक-एक हिस्से को ढूंढना बेहद मुश्किल काम था। लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि पत्थरों की भाषा को समझने में माहिर के के मोहम्मद ने निर्देशन में यह मुश्किल और रोचक काम ठीक गति से आगे बढऩे लगा। एक-एक पत्थर को जोड़कर विरासत को जिंदा किया गया। जिग्शा’पजल की तरह एक-एक पत्थर को जोड़कर देखा गया कि यह इसी का हिस्सा है या नहीं। और ऐसे एक-दो फिर पूरे चालीस मंदिर अपने पुराने आकार में खड़े हो गए। भूमिसात् इतिहास को वर्तमान में लाने के लिए बटेश्वर में काम अब भी जारी है लेकिन पुरातत्वविद् के के मोहम्मद के जाने के बाद यह काम बेहद धीमी गति से चल रहा है।
पुरातत्व विभाग बटेश्वर में 108 मंदिरों का जीर्णोद्धार करना चाहता है। जीर्णोद्धार के काम की गति को देखकर लगता है कि 108 मंदिरों के पुनर्जन्म में अभी काफी वक्त लगेगा। निश्चित ही आने वाले समय में बटेश्वर पर्यटन और एतिहासिक महत्व की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थान होगा। अब भी राज्य सरकार का पर्यटन मंत्रालय बटेश्वर मंदिर परिसर का ठीक से प्रचार-प्रसार करे तो यहां काफी संख्या में पर्यटकों को लाया जा सकता है। दिल्ली, आगरा और ग्वालियर आने वाले पर्यटकों के लिए बटेश्वर घुमक्कड़ी का शानदार ठिकाना हो सकता है। यहां आकर लोग अपनी विरासत, वैभव, स्थापत्य कला, परंपरा और संस्कृति को भी समझ सकेंगे। मुरैना के नजदीक स्थित बटेश्वर तक मुरैना या ग्वालियर से टैक्सी या निजी वाहन की मदद से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
मंदिर निर्माण का विश्वविद्यालय था बटेश्वर
21 दिसम्बर, 2013 को साथियों के साथ बटेश्वर देखने जाना हुआ था। नवम्बर-दिसम्बर माह में ग्वालियर में हाड़कंपाने वाली ठंड शुरू हो जाती है। कड़कड़ाती ठण्ड के बीच युवा पत्रकार हरेकृष्ण दुबोलिया, गिरीश पाल और रामेन्द्र गुर्जर के साथ बाइक से घुमक्कड़ी के इस नए ठिकाने पर पहुंचा था। हरेकृष्ण दुबोलिया भी बटेश्वर मंदिर को लेकर एक-दो महत्वपूर्ण स्टोरी कर चुके हैं। मैंने उनसे पूछा कि यहां इतने सारे एक-जैसे शिव मंदिर होने का कारण क्या हो सकता है? उन्होंने बताया कि पुरातत्व विद्वान मानते हैं कि कभी यह मंदिर निर्माण का विश्वविद्यालय हुआ करता था। देशभर से अनेक कलाकार यहां आकर मंदिर निर्माण का प्रशिक्षण प्राप्त करते होंगे। यहां हमें परिसर के केयरटेकर मिले जिन्होंने मंदिर निर्माण की कहानी सुनाई और जीर्णोद्धार शुरू होने से पहले के फोटो भी दिखाए। मेहनत और शिद्दत के साथ किए गए काम की परिणाम है कि उजाड़-सी जगह पर विरासत गर्व के साथ खड़ी हो गई। एक साथ एक लाइन में खड़े मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है। ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। कंकर-कंकर में शंकर है, यह सबने सुना है। बटेश्वर आकर यह देखा जा सकता है कि कंकर-कंकर में शंकर है। यहां बिखरे पड़े तमाम पत्थर और शिलाखण्ड शिव के ही हिस्से हैं।