राक्षसों के संहारक बनो
शूर्पणखा का कार्य अनैतिक और अनुचित था। जिसके अनुचित और अनैतिक कार्य का सही फल लक्ष्मण जी ने उसे दे दिया था। इसके पश्चात अब वे परिस्थितियां बननी आरंभ हुईं जो उस कालखंड की ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात करने वाली थीं।
यह घटना राक्षस वंश के लिए ऐसी घटना सिद्ध हुई जिसने उसके विनाश की प्रक्रिया आरंभ कर दी। रामचंद्र जी ने राक्षस वध का संकल्प पहले ही ले लिया था। वह शूरवीर थे ,साहसी और पराक्रमी व्यक्तित्व के स्वामी थे। युद्ध के मैदान से भागना उन्होंने सीखा नहीं था। उन्होंने भी यह संकल्प ले लिया था कि उनका संपूर्ण जीवन यदि राक्षस वध करने में व्यतीत हो तो उन्हें आनंद प्राप्त होगा।
महासंकल्प लिया जीवन का,
आतंक मिटा दूंगा वन से ।
जो वृत्तियाँ पाप कराती हैं ,
हटा दूंगा उनको आसन से ।।
यज्ञ योग से जुड़े मनुज जो,
भूषण कहलाते वसुधा भर के ।
जो वेद धर्म के लिए समर्पित
हर क्षण गाते गीत सनातन के।।
उनकी रक्षा का भार उठाकर,
निशंक चलूंगा जीवन पथ पर ।
रघुकुल की रीत यही है मेरी ,
निर्वाह करूंगा जीवन भर।।
वास्तव में महापुरुष अपने संकल्प के साथ जीना सीख लेते हैं। उनके लिए 'कल्पवृक्ष' नाम का कोई काल्पनिक वृक्ष नहीं है जो उन्हें ऐसी अद्भुत और अलौकिक चीजों को प्राप्त कराने में सहायक होगा, जिनके लिए संसार का कोई साधारण मनुष्य कभी-कभी सपने ही ले लिया करता है। महापुरुष वही होते हैं जो अपने आप संकल्प का वृक्ष लगाते हैं और उसके मीठे फल खाते हैं । इतिहास संकल्प वृक्ष के लगाने वाले ऐसे महापुरुषों के ही गुणगान किया करता है। जिनके संकल्पों में शिथिलता होती है, वह कभी महान कार्य संपादित नहीं कर पाते। उनके जीवन शिथिल पड़ जाते हैं और जब चुनौतियां उनके सामने आती हैं तो उन्हें देख कर वे भाग जाते हैं ।
रामचंद्र जी भी संकल्प वृक्ष के नीचे बैठकर अपनी साधना कर रहे थे। आतंक, आतंकी और आतंकवाद से उन्होंने शत्रुता मोल ले ली थी। अब इन तीनों को मिटाना उनके जीवन का ध्येय हो गया था। यद्यपि कुछ लोगों ने रामचंद्र जी के जीवन चरित्र का उल्लेख करते हुए कुछ इस प्रकार प्रभाव डालने का प्रयास किया है कि उनके समय में राक्षसी वृत्तियां नगण्य थीं और धार्मिक लोगों का वर्चस्व चारों ओर था। माना कि धार्मिक पुरुषों की संख्या उस समय अधिक थी, परंतु यह भी सत्य है कि उनके काल में राक्षसी वृत्तियां भूमंडल के अधिकांश भाग पर अपना शासन करने में सफल हो गई थीं। जिससे जनसाधारण का जीवन कठिनाइयों और विषमताओं से भर गया था। जिनका विनाश करने का महा संकल्प श्री राम ने लिया।
उन्हें यह पता था कि शूर्पणखा के साथ उन्होंने जो कुछ भी किया है उसका परिणाम क्या होगा ? उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण से यह कह दिया था कि अब सावधान रहने की आवश्यकता है । क्योंकि यह राक्षसिन निश्चय ही अपने लोगों से जाकर हमारी शिकायत करेगी । जिससे यथाशीघ्र कोई न कोई ऐसा हमला हम पर हो सकता है जिसकी हम आशा नहीं कर सकते।
यही हुआ भी। जब शूर्पणखा ने जाकर के अपने भाई खर और दूषण को अपनी व्यथा – कथा सुनाई और उन्हें बढ़ा – चढ़ाकर यह बताया कि किस प्रकार दशरथ पुत्र श्री राम और लक्ष्मण ने उसका यह अपमान किया है और उसका अंग भंग कर तुम्हारे पौरुष को चुनौती दी है तो उससे क्रुद्ध होकर खर और दूषण ने श्री राम और लक्ष्मण पर आक्रमण करने के लिए अपने 14 राक्षसों को भेजने का आदेश दिया।
चौदह राक्षस वेग से पहुंचे राम के धाम।
दशरथ नंदन ढूंढकर कर दो काम तमाम।।
यहां पर यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि खर और दूषण के द्वारा रामचंद्र जी और उनके भाई लक्ष्मण को समाप्त करने के लिए ही यह आदेश दिया गया था । वे 14 राक्षस वनों में रामचंद्र जी और लक्ष्मण की आरती उतारने के लिए नहीं आ रहे थे, बल्कि उनका सिर उतारने के लिए आ रहे थे। आज की परिस्थितियों पर यदि विचार करें तो 14 राक्षसों या आतंकवादियों के दल को समाप्त करने के लिए बहुत संभव है कि 14 हजार की सेना लगा दी जाए । यह सेना भी आधुनिकतम हथियारों से लैस होगी । परंतु उस समय दो सात्विक वीरों को समाप्त करने के लिए 14 राक्षसों की सेना आ रही थी । इसका अभिप्राय है कि आज आतंकवादियों का भय होता है और उस समय सात्विक वीरों का भय होता था। परिस्थितियां अत्यंत विषम थीं, परंतु इसके उपरांत भी श्रीराम धैर्य और संयम बनाए हुए एक वीर योद्धा की भाँति उन राक्षसों की प्रतीक्षा करते रहे । यदि वह चाहते तो उनके आने से पहले उस स्थान को छोड़ सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके विपरीत वे वहीं रुके रहे और आने वाली आपदा का सामना करने को ही उन्होंने प्राथमिकता दी। उन्होंने ऐसा भी नहीं किया कि जो राक्षस उनके सामने आने वाले थे उनके सामने वह किसी प्रकार के गांधीवादी सत्याग्रह का ढोंग रचते और उन्हें अपने प्राण आराम से ले लेने देते ।
रामचंद्र जी यथार्थवादी दृष्टिकोण के व्यक्ति थे। वह जानते थे कि राक्षसों के सामने आह भरने या प्राणों की भीख मांगने से काम नहीं चलेगा, अपितु उनके प्राण लेने से ही काम चलेगा। उन्होंने ऐसे किसी ढोंग या पाखंड को भी नहीं फैलाया कि आतंकवादियों के भी मौलिक अधिकार होते हैं। वह एक ही बात जानते थे कि जो लोग जनसाधारण का जीना हराम करते हैं उनके कोई अधिकार नहीं होते। क्योंकि वह दूसरों के अधिकारों को छीनने की कोशिश करते हुए अपने अधिकार स्वयं ही समाप्त कर देते हैं। जो दूसरों के जीवन का या धन का या यश और सम्मान का हरण करते हैं वह स्वयं अपने अधिकारों को खो देते हैं। श्रीराम को यह भली प्रकार ज्ञात था कि राक्षसों के सामने प्राणों की भीख मांगने का अभिप्राय अपनी कमजोरी को दर्शाना होता है। यही कारण था कि श्रीराम ने यह संकल्प ले लिया कि जो भी कोई शूर्पणखा के पक्ष में हमसे युद्ध करने के लिए आएगा , उसका हम वीरता के साथ सामना करेंगे। रामचंद्र जी के द्वारा ऐसा संकल्प लेने का एक कारण यह भी था कि शूर्पणखा को सहायता देने वाला या उसके किए गए तथाकथित अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए आने वाला व्यक्ति भी आतंकवादी होगा।
एक राक्षसी का कौन समर्थक ?
यह जान गए दशरथ नंदन ।
निश्चय ही वे लोग बनेंगे ,
जिनके कारण मचा करुण क्रंदन।।
जो भी आएगा रणभूमि में
लौटना कभी नहीं उसका संभव ।
रणभूमि में उसकी भेंट चढ़ेगी
आज ऐसा मेरा है निश्चय।।
कुछ ही समय में वह घड़ी आ गई जब खर और दूषण के भेजे हुए 14 राक्षस आकाश मार्ग से शूर्पणखा के साथ रामचंद्र जी और लक्ष्मण के पास आ पहुंचे। यह एक भयानक राक्षस दल था जो कि रामचंद्र जी और उनके भाई का वध करने के लिए आया था। उनका आने का उद्देश्य स्पष्ट था। जिसे समझने में श्रीराम को तनिक भी देर नहीं लगी। जैसे ही वे राक्षस श्री राम और लक्ष्मण जी के पास पहुंचे वैसे ही रामचंद्र जी ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उन राक्षसों से कहा कि यदि तुम लोग युद्ध करना चाहते हो तो प्रसन्नतापूर्वक जहां के तहां खड़े रहना, भागना मत और यदि अपने प्राण बचाने हों तो हे राक्षसो ! तुम यहां से शीघ्र लौट जाओ। ऐसा कहकर रामचंद्र जी ने उन राक्षसों को अंतिम चेतावनी देते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि वे चाहें तो अपने प्राण बचाकर अब भी यहां से जा सकते हैं। शूरवीरता की यह पहचान है कि वह शत्रु को अनावश्यक मारने से बचती है । यदि शत्रु अपनी प्राण रक्षा चाहता है तो प्रत्येक शूरवीर एक बार उसे बचने या भागने का मौका देता है। युद्ध में ऐसा करने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है । इसका कारण यही है कि युद्ध में कोई भी निरपराध ना मारा जाए । यदि कोई व्यक्ति अपने आप को युद्ध से बचाना चाहता है तो उसे बचने का अवसर प्रदान किया जाए। युद्ध में वही मारा जाता था जो युद्ध में मरने मारने के लिए उतरता था।
श्री राम की यह बात सुनकर वे राक्षस अत्यंत क्रुद्ध हो गए। उन्होंने अपने क्रोध पूर्ण शब्दों में रामचंद्र जी से कहा कि हम लोगों के स्वामी खर के क्रोध को प्रदीप्त करने के कारण आज संग्राम में तुम ही हम लोगों के द्वारा मारे जाकर अपने प्राण गंवाओगे। इतना कहकर उन राक्षसों ने अपने अस्त्रों को उठाकर श्री रामचंद्र जी पर आक्रमण कर दिया । वाल्मीकि कृत रामायण से में पता चलता है कि उन राक्षसों के आक्रमण करने पर महातेजस्वी श्रीराम ने सूर्य के समान देदीप्यमान बिना फ़र के बाण राक्षसों पर उसी प्रकार छोड़े जिस प्रकार इंद्र अपना वज्र चलाते हैं।
रामचंद्र जी के इस प्रकार के बाणों के तीव्र प्रहार को आज से पहले उन 14 राक्षसों ने कभी देखा नहीं था। उन्हें भारत के आर्य राजाओं की सात्विक वीरता का अब से पहले परिचय नहीं हुआ था। आज जब उन्होंने श्री राम को सात्विक वीर की भाटी युद्ध करते हुए देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गए । उन्हें युद्ध से पहले तो ऐसा लग रहा था कि जैसे वह रामचंद्र और लक्ष्मण को अपनी मुट्ठी से भींचकर ही मार डालेंगे । यही कारण था कि उन्होंने आवेश में आकर श्री राम जी से यह कह दिया था कि आज वही हमारे द्वारा मारे जाएंगे।
उन्हें नहीं पता था कि उनकी जीवन लीला अब थोड़ी ही देर की है। रामचंद्र जी ने अपनी क्षत्रिय मर्यादा का पालन करते हुए उन्हें भागने का अवसर दिया था। पर जब देखा कि वह युद्ध में डटकर उनसे दो-दो हाथ करना चाहते हैं तो रामचंद्र जी ने अपने तीखे बाणों से उन्हें शीघ्र ही धराशायी कर दिया। रामचंद्र जी के बाणों के वेग से राक्षसों के हृदय विदीर्ण हो गए और रुधिर में सने वे भूमि पर इस प्रकार जा पड़े जैसे भीषण शब्द करते हुए बिजली गिरती है। ये राक्षस खून से लथपथ थे । उनकी आकृति बिगड़ गई और वे निर्जीव हो गए।
“जो बीज पाप के बोते हैं
वे भक्षक मानवता के होते।
ऐसे उन हत्यारे लोगों का,
नहीं बोझ वीर कभी ढोते ।।
जिनके हृदय में पाप वासना
स्थायी निवास किया करती ।
उन नीच पातकों का रण में,
तलवारें विनाश किया करतीं।।”
इन 14 राक्षसों को लेकर जब शूर्पणखा श्री राम और लक्ष्मण की ओर चली थी तो उसे भी यह घमंड था कि वह इन राक्षसों के माध्यम से श्री राम और लक्ष्मण का वध करवा देगी।परंतु उसका यह सपना साकार नहीं हुआ। जब उसने अपनी आंखों से उन 14 राक्षसों के शव देखे तो वह अत्यंत दुखी हुई और मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। इस बार श्रीराम ने लक्ष्मण से यह नहीं कहा कि इस मूर्छित महिला की गर्दन उतार दें या उसके साथ कोई भी ऐसा अशोभनीय व्यवहार करें जो कि शास्त्र विरुद्ध हो। यद्यपि वह यह भली प्रकार जानते थे कि शूर्पणखा को यहां से जीवित छोड़कर वापस भेजना उनके लिए फिर नए खतरों को निमंत्रण देने के समान होगा। परंतु उन्होंने इस बार उसे निर्दोष समझा । वीरता का तकाजा भी यही होता है कि जो शत्रु बिना हथियारों के सामने खड़ा हो उस पर हमला नहीं करना चाहिए। यद्यपि यह भी कहा जा सकता है कि जिस समय शूर्पणखा की नाक काटी गई थी, उस समय भी तो वह बिना हथियारों के थी ? यहां पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि जिस समय शूर्पणखा की नाक काटी गई थी उस समय वह सीता जी पर हमला करने पर आतुर हो गई थी। उसकी उस उद्दंडता का उस समय दण्ड दिया जाना उचित था।
जब शूर्पणखा ने उन 14 राक्षसों को धरती पर लेटे हुए देखा तो वह एक बार तो स्वयं भी मूर्छित हो गई । इसका कारण केवल एक ही था कि उसने कभी सपने में भी यह नहीं सोचा था कि इन 14 राक्षसों का वध करने में भी श्री राम और लक्ष्मण सफल हो जाएंगे । कुछ समय उपरांत उसे होश आया तो होश में आते ही महानाद करती हुई बड़े वेग से अपने भाई खर के पास पहुंची और सूखी हुई लता के समान वहां जाकर गिर पड़ी। वास्तव में श्री राम और लक्ष्मण की वीरता इस राक्षसिन के लिए एक प्रकार की दलदल बन चुकी थी। वह जितनी शीघ्रता से इसमें से निकलने का प्रयास कर रही थी, उतना ही वह नीचे धँसती जा रही थी। उसके लिए सब कुछ अप्रत्याशित होता जा रहा था और वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर श्री राम और लक्ष्मण का अंत कैसे किया जाए ?
अब उसे एक बार फिर एक ऐसा नाटक करना था जिससे उसके भाई उसके तथाकथित अपमान का बदला लेने के लिए श्री राम और लक्ष्मण के वध की कोई नई योजना बनाते । उसके रोने, चीखने और चिल्लाने को देख कर उसके भाई खर ने कहा कि मैंने तो तुझे खुश करने के लिए राम और लक्ष्मण का रक्तपान करने के लिए 14 राक्षस भेज दिए थे। अब तू किस बात के लिए रो रही है?" - इसका अभिप्राय है कि खर और दूषण को अपने उन 14 राक्षसों पर यह पूर्ण विश्वास था कि वे रामचंद्र जी का वध करके ही लौटेंगे और उनकी बहन शूर्पणखा श्री राम और लक्ष्मण का रक्तपान कर लेगी। खर नाम के उस राक्षस ने अपनी बहन शूर्पणखा को सांत्वना देते हुए कहा कि जब तेरी रक्षा के लिए मैं स्वयं यहां पर उपस्थित हूं तो तुझे इस प्रकार अनाथों की तरह रोने की आवश्यकता नहीं है ? तू मुझे वास्तविकता बता। जिससे मैं राम और लक्ष्मण के वध का प्रबंध कर सकूं। मुझे तेरे आंसू नहीं चाहिए। मैं चाहता हूं कि उस शत्रुओं का विनाश हो , जिन्होंने तेरा यह रूप कर दिया है। मैं नहीं मानता कि हमें कोई चुनौती देने वाला मनुष्य इस वन में आ सकता है । खर ने जो भी कुछ कहा, वह उसके अहंकार को प्रकट कर रहा था और अहंकार ही वह चीज है जो व्यक्ति को नीचे गिराती है।
खर के इस प्रकार पूछने पर शूर्पणखा ने वह सारी सच्चाई बता दी, जिसके चलते खर के द्वारा भेजे गए 14 राक्षसों का बुरा हाल हो चुका था । उसने रोते-रोते यह बताया कि भाई उन 14 राक्षसों का संहार करने में राम को तनिक भी देर नहीं लगी। शूर्पणखा के इस प्रकार के कथन से स्पष्ट हो गया कि वह श्रीराम की वीरता का लोहा मान चुकी थी। उसने अपने भाई से आगे कहा कि अब तुम्हारे वे 14 राक्षस इस दुनिया में नहीं हैं। मैंने जब उन 14 राक्षसों को धरती पर पड़े देखा तो मुझे बहुत अधिक दु:ख हुआ। मैं अत्यंत भयभीत हो गई और अब भयभीत अवस्था में ही तुम्हारे पास इस आशा से लौटी हूं कि तुम शत्रु का विनाश करने में देर नहीं करोगे।
उसने कहा कि - "विषादरूपी मगरमच्छों से परिपूर्ण तथा भय रूपी तरंगों से तरंगित महासागर में मैं डूब रही हूं। फिर तू मुझे बचाता क्यों नहीं है ?" वास्तव में शूर्पणखा को अपनी वासना का भूत इस स्थिति तक ले तो आया लेकिन अब वह इससे सम्मानजनक ढंग से निकलना चाहती थी। वह चाहती थी कि शत्रु को बदनाम करके किसी तरीके से उसका अंत करा दिया जाए, अन्यथा लोग उसे ही गलत बताएंगे। यद्यपि उसे यह पता नहीं था कि अब वह अपने ही विनाश के रास्ते पर चल चुकी है। उसने अपने राक्षस कुल का विनाश कराने की नींव रख दी थी।
नींव रखी विनाश की नहीं रहा कुछ ज्ञान।
कालचक्र को देखकर हंसते खुद भगवान।।
बाल्मीकि जी द्वारा किए गए इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट होता है कि शूर्पणखा इस समय बहुत अधिक भयभीत थी। उसे यह अपेक्षा नहीं थी कि उसके भाई के द्वारा भेजे गए 14 राक्षसों का वध श्री राम इतनी शीघ्रता से कर देंगे । उसे यह पूर्ण विश्वास था कि वे 14 राक्षस श्रीराम और लक्ष्मण का वध करने में सफल होंगे और वह उनका रक्तपान करने में सफल हो जाएगी। अब जब वह हताश और निराश होकर अपने भाई के पास लौटी तो इसके अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं था कि वह अपने भाई को फिर रामचंद्र जी लक्ष्मण के वध के लिए उकसाये।
संसार में राक्षसी शक्तियां वास्तव में सृजनात्मक ऊर्जा का विनाश करने के लिए इसी प्रकार के उत्पात रचा करती हैं। सात्विक संसार में रहने वाले लोग इन सारे षड़यंत्र और घात प्रतिघात की नीतियों से निश्चिंत हुए एक निष्काम योगी की भांति अपने कामों में लगे रहते हैं। उनके पास यह सोचने तक का समय नहीं होता कि राक्षसी शक्ति उनके विनाश के लिए कौन-कौन से षड्यंत्र रच रही हैं ? वास्तव में विनाश उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमा करता है जो विनाश की मानसिकता रखते हैं। जो लोग विनाश के स्थान पर विकास की संरचना अपने मानस में करते रहते हैं, वह सात्विक जीवन जीते हुए दीर्घायु को प्राप्त होते हैं।
सात्विक शक्तियों की निश्चिंतता को देखकर कई बार ऐसा लगता है कि जैसे वे अपने अस्तित्व की रक्षा के प्रति पूर्णतया असावधान हैं। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। उनकी अंतश्चेतना उन्हें जगाये रखती है और शत्रु के घात प्रतिघात के प्रति सचेत और सजग भी बनाए रखती है।
श्री राम शत्रुओं से खेल रहे थे और शत्रुओं से घिरे हुए भी थे। इसके उपरांत भी वह निश्चिंतता के साथ अपना जीवन यापन कर रहे थे। यद्यपि उनकी इस प्रकार की निश्चिंतता का अभिप्राय यह नहीं था कि वह शत्रु के हमलों के प्रति असावधान थे ।उनकी अंतश्चेतना उन्हें निरंतर शत्रु के प्रति सावधान रहने के लिए प्रेरित कर रही थी। ईश्वर भक्त लोग शांतिपूर्ण रहकर भी शत्रुओं के प्रति सावधान रहते हैं। क्योंकि उनकी अंतरात्मा में निवास करने वाली शक्ति उनकी चेतना को सदैव सजग बनाए रखती है। भक्त लोग भगवान का सानिध्य प्राप्त करके अपने अंतर्मन में व्याप्त काम क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जिनके भीतर के शत्रु शांत हो गए वे बाहर के शत्रुओं पर बड़े सहजता से विजय प्राप्त कर लेते हैं। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने हमारे अन्तर्जगत को पवित्र रखने की साधना पर विशेष बल दिया है।
यदि कुछ देर के लिए यह माना जाए कि श्री राम जब वन में रह रहे थे तो वह 14 वर्ष का ‘वनवास’ नहीं बल्कि जेल काट रहे थे तो हमें उनके उस समय के जीवन आचरण पर ध्यान देना चाहिए। वास्तव में उन्होंने अपनी इस तथाकथित जेल या वनवास का सदुपयोग करते हुए अपने आत्म संयम और धैर्य को और भी अधिक बढ़ाया। आधुनिक काल में गांधी जी ने जेलों को सुधार-ग्रह का नाम दिया था। जबकि रामचंद्र जी ने अपने वनवास को अपने लिए साधना स्थली में परिवर्तित कर लिया। उनकी यह साधना भी इतनी ऊंची और पवित्र थी कि वह राष्ट्र साधना में परिवर्तित हो गई और राष्ट्र साधना से प्राणीमात्र की हित साधना में रत हो गई। यह उनका विश्व मानस था और यही उनका विराट स्वरूप था। व्यष्टि से समष्टि तक के इस विस्तार के कारण ही श्री राम ‘भगवान’ कहलाए ।
उनका यह वनवास काल :-
– धर्म साधना का काल था,
– संस्कृति की रक्षा का काल था,
– संसार की उन सभी दैवीय शक्तियों से आशीर्वाद प्राप्त कर उनकी रक्षा का काल था जो संसार की गति को धर्म के अनुकूल और वेद के अनुकूल बनाए रखने में सहायक होती हैं। उनके आत्म संयम और आत्म धैर्य को न तो शूर्पणखा हिला सकी और ना ही उसके भाइयों के द्वारा भेजे गए 14 राक्षसों का आक्रमण ही उनके मनोबल पर विपरीत प्रभाव डाल सका। वह जंगल में उस पेड़ की भांति खड़े थे जो यह जानता है कि तूफान आएंगे परंतु उनसे सीना तान कर टक्कर लेनी है, अन्यथा वे तेरा अस्तित्व मिटा देंगे।
भारत में स्वाधीनता के पश्चात ‘रामराज्य’ की कल्पना करने वाले गांधीजी सन 1931 तक भी अंग्रेजों के भारत आगमन को भारत का सौभाग्य मानते रहे और यह भी कहते रहे कि अंग्रेजों का राज भारत के लिए ‘वरदान’ है।
अपने आपको राक्षस अंग्रेजों की प्रजा कहने में गांधी जी और उनके लोगों को बड़ा आनंद अनुभव होता था। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद तथ्य है कि गांधीजी अपने जीवन काल में राक्षस लोगों की पहचान नहीं कर पाए । वे यह नहीं समझ पाए कि अंग्रेज भारत में आकर भारत के लोगों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं और यहां की अकूत संपदा को लूट – लूटकर अपने देश ले जा रहे हैं। तनिक कल्पना करें कि यदि श्रीराम भी रावण के राक्षस साम्राज्य को अपने लिए वरदान मान लेते तो क्या होता ? तब निश्चय ही संसार से वैदिक संस्कृति का विनाश हो गया होता और संसार में जितनी भी सृजनात्मक शक्तियां हैं जो विनाश को प्राप्त हो गई होतीं ।
जबकि श्रीराम ने कभी भी शत्रु राक्षस लोगों का ना तो गुणगान किया और ना ही उनके सामने इस प्रकार की आत्महीनता की बातें प्रकट कीं। वे उन्हें अपना शासक मानने को भी तैयार नहीं थे। क्योंकि उनका एक ही लक्ष्य था कि मानवता के विरुद्ध काम करने वाली सभी शक्तियों का विनाश करना आवश्यक है। रामचंद्र जी ने शूर्पणखा और उसके भाइयों के इस प्रकार के आक्रमण को मात्र एक तूफान माना और उस तूफान का सामना करने का संकल्प लिया। इस संकल्प शक्ति से उन्होंने मानो रावण को पहली चुनौती दे दी कि या तो रास्ते पर आ जाओ, अन्यथा संहार के लिए तैयार रहो।
“संकल्प एक धारकर,
शत्रुओं को मारकर ,
निर्भीक हो आगे बढ़े,
तूफान को निवारकर।”
भाजपा नेता कलराज मिश्र की पुस्तक ‘हिंदुत्व एक जीवन शैली’ में गांधी जी से जुड़ी बात कही गई है। किताब के पृष्ठ संख्या 179 पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक सालिगराम दूबे ने हिंदुत्व मानव श्रेष्ठता का चरम बिंदु नाम से एक लेख लिखा है। इसमें उन्होंने कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है।
दूबे लिखते है, “आज हम जिस हिंदू संस्कृति की बात करते हैं वह एक उद्धिवासी व्यवस्था है, जिसके विचारों व दृष्टिकोण में विविधता पाई जाती है और जिसमें नदियों की गति की तरह निरंतरता है। हिंदुत्व एक जीवन-पद्धति या जीवन-दर्शन है, जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को परम लक्ष्य. मानकर व्यक्ति व समाज को नैतिक, भौतिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति के अवसर प्रदान करता है।”
श्री दुबे की इस मान्यता से पता चलता है कि भारत की संस्कृति निरंतर प्रवाहमान स्थिति को पसंद करती है। उसे रुकना पसंद नहीं है। क्योंकि रुकना मृत्यु का प्रतीक है । निरंतर प्रवाहमान जीवन से ही प्रवाहमान राष्ट्र का निर्माण होता है । राष्ट्र की इस प्रवाह मानता में कहीं पर भी किसी प्रकार का गतिरोध में आए इसके लिए देश के शासक वर्ग और नेताओं को सदा सावधान रहना चाहिए यह बिल्कुल वैसे ही होना चाहिए जैसे श्री राम ने किया था।
श्री दुबे के अनुसार, “राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वयं कहा था कि मैं हिंदू हूं और मैं राष्ट्रवादी हूं। अर्थात हिंदुत्व व राष्ट्रवाद एक-दूसरे के पर्याय हैं- तथाकथित धर्मनिरपेक्षताादियों को हिंदुत्व का सही अर्थ समझने की आवश्यकता है। राष्ट्र का संरक्षण व सशक्तीकरण प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है। भारत के राष्ट्रीय एकात्म को मजबूत करने का कार्य एकमात्र हिंदू धर्म ने किया है, क्योंकि भारत में राष्ट्रीयता हमारी संस्कृति की कोख से उत्पन्न हुई है। राष्ट्रीयता हमारी मातृत्व शक्ति है और हिंदुत्व हमारी परंपरा, भगवान राम हिंदू समाज के आदर्श पुरुष, इसी कारण उन्हें पुरुषोत्तम राम कहा गया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की राम के प्रति आस्था से पूरा विश्व परिचित है। उनका प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम…..’ किसे प्रिय नहीं है।”
इस पर हमारा कहना है कि गांधी जी ने राम के प्रति अपनी आस्था में भी दोगलापन रखा। उन्होंने किसी ऐसे राम को अपने लिए आदर्श माना जो वास्तव में कभी अस्तित्व में था ही नहीं। ‘रघुपति राघव राजा राम’ – के भजन को भी वह गाते रहे परंतु राम के उस आदर्श को कभी भी अपना नहीं सके जिसके अंतर्गत उन्होंने राक्षसों का संहार करना राज्य शक्ति का प्रथम कर्तव्य घोषित किया था।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत