ढूंढ़ रहे पदचिन्ह मिले नही, यत्र तत्र सर्वत्र।
मजार, मूर्ति बुत के रूप में, रह गयी शेष निशानी।
नारे और संदेश गूंजते, चाहे घटना युगों पुरानी।
अरे हिमालय तेरी गोदी में, तपे अनेकों संत।
थे घोर तपस्वी मृत्युंजय, हुआ कैसे उनका अंत?
बचपन में तू भी सागर था, है आज तेरा सर्वोच्च शिखर।
अरे काल थपेड़ों के आगे, जाएगा तेरा अस्तित्व बिखर।
निर्झर झरने सरिता बहती, कहीं तोड़ अभेद्य तेरा सीना।
है प्रकृति परिवर्तनशील, जड़ चेतन को सीमित जीना।