धन की सनक से ध्वस्त होती शिक्षा
प्रो. एनके सिंह
एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं पहले यह परंपरा थी कि शिक्षण संस्थाओं का नेतृत्व पेशेवर लोग करते थे। यदि व्यापारी इसमें निवेश भी करता था तो निवेश के बाद इसका प्रशासन और अकादमिक निर्णय लेने का अधिकार योग्य और पेशेवर लोगों को सौंप दिया जाता था। इसी के साथ ही व्यावसायिक हित और पैसे का प्रभुत्व भी इस क्षेत्र में बढ़ा और इस तरह धीरे-धीरे शिक्षा एक उद्योग बन गई। इसके कारण शिक्षा के साथ जुड़ा हुआ निष्ठागत उत्साह समाप्त हो गया। हद तो तब हो गई, जब जीवन शैली से जुड़ी सुविधाएं जैसे कि शापिंग मॉल, स्विमिंग पूल और मनोरंजन की व्यवस्था विश्वविद्यालय में की जाने लगीज्एक समय शिक्षा को राज्य की जिम्मेदारी माना जाता था और इसे मानवतावादी तथा सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार किया जाता था। आर्य समाज ने डीएवी स्कूल और कालेज के जरिए भारत में शिक्षा के विस्तार में अहम योगदान दिया। उनके लिए यह कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण का मिशन था। शिक्षा के प्रति बनी इस परंपरागत अवधारणा में तेजी से बदलाव हो रहा है। भारत ने जब 90 के दशक में निजीकरण की तरफ कदम बढ़ाया तो व्यापारियों ने हजारों प्राइवेट कालेज और संस्थानों की स्थापना की। यहीं से इस क्षेत्र में पैसे की पूछ बढ़ी, क्योंकि कई सारे लोग मानते थे कि यह सर्वाधिक लाभ देने वाले धंधों में से एक है और खतरों की गुंजाइश भी कम होती है। ऐसे लोगों की मान्यता थी कि अलाभकारी संस्था घोषित करने के बावजूद व्ययों के समायोजन और प्रकल्प को आगे बढ़ाने के लिए किए जाने वाले खर्च के जरिए अच्छा लाभ कमाया जा सकता है। कई व्यापारियों ने न केवल विश्वविद्यालयों की स्थापना की, बल्कि इसके खुद मुखिया बने अथवा बोर्ड के जरिए इस पर नियंत्रण स्थापित किया। इसके कारण अध्ययन-अध्यापन की प्राथमिकताओं में व्यापक बदलाव हुआ। पहले यह परंपरा थी कि इन संस्थाओं का नेतृत्व पेशेवर लोग करते थे। यदि व्यापारी इसमें निवेश भी करता था तो निवेश के बाद इसका प्रशासन और अकादमिक निर्णय लेने का अधिकार योग्य और पेशेवर लोगों को सौंप दिया जाता था। इसी के साथ ही व्यावसायिक हित और पैसे का प्रभुत्व भी इस क्षेत्र में बढ़ा और इस तरह धीरे-धीरे शिक्षा एक उद्योग बन गई। इसके कारण शिक्षा के साथ जुड़ा हुआ निष्ठागत उत्साह समाप्त हो गया। हद तो तब हो गई, जब जीवन शैली से जुड़ी सुविधाएं जैसे कि शापिंग मॉल, स्विमिंग पूल और मनोरंजन की व्यवस्था विश्वविद्यालय में की जाने लगी। पहले इन संस्थाओं को मिलने वाले दान का उपयोग कालेज की शैक्षणिक सुविधाओं के सुधार में किया जाता था, लेकिन अब यह बिना खाता-बही बनाए स्वीकार कर लिया जाता है। इन सब कारणों से ज्ञान की खोज करने वाले, नौकरी खोजने वाले तथा पैसा बनाने वाले लोग पैदा हो रहे हैं और उच्च शैक्षणिक गुणवत्ता वाले लोग पैसा बनाने के खेल में प्रवेश कर रहे हैं। शैक्षणिक संस्थान ज्ञान के उत्पादन स्थल के बजाय रोजगार कार्यालय जैसे बन गए हैं। बहुचर्चित व्यापमं घोटाला इस पैसे की भूख की ही देन है। इस भूख ने शैक्षणिक माहौल को विषाक्त बना दिया है। यदि कम कुशल लोग डाक्टर, पायलट अथवा इंजीनियर बनेंगे तो इसके कारण राष्ट्रीय हित प्रभावित होने तय हैं। इसके कारण आर्थिक दबाव वाले अकुशल लोग भी देश के कई गंभीर व अहम पदों तक पहुंच जाते हैं। यहीं से प्रतिभा व काबिलीयत के साथ अन्याय का दौर भी शुरू हो जाता है। बहुत सारे अकुशल लोग ऐसी जगहों पर पहुंच सकते हैं और इस घोटाले ने इस बात को सिद्ध किया है। इसका कारण यह है कि प्रवेश से लेकर, परीक्षा देने और डिग्री प्राप्त करने तक में पैसे का खुला खेल चल रहा है। इसी कारण हम एक बड़े देश के रूप में शोध के क्षेत्र में कुछ खास पहचान नहीं बना पाए हैं। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के बीच हमारे विश्वविद्यालय कहीं नहीं ठहरते। शिक्षा में नई सोच और नवाचार को बढ़ाने की बजाय हमारे यहां विद्यार्थियों को पहले से ही निर्धारित लाइन पर चलने के लिए विवश किया जाता है। न तो नए विचारों का सम्मान किया जाता है और न ही उन्हें प्रोत्साहन दिया जाता है। संभवत: इसी स्थिति को देखते हुए नारायण मूर्ति को यहां तक कहना पड़ता है कि पिछले 60 वर्षों में हमारे विश्वविद्यालयों में शोध और नवाचार के जरिए कुछ भी ऐसा नहीं कर पाए हैं जो हर घर में अपना स्थान बना सका हो। अमरीका में यह व्यवस्था जैसे चलती है, उसे देखकर काफी कुछ सीखा जा सकता है। वहां पर सबसे बड़ी बात यह है कि लोग नए शोध संबंधी सूचनाएं तथा आविष्कार लेकर आते हैं और अपने देश की समृद्धि में योगदान देते हैं। मैं एक अमरीकी प्रोफेसर की एक बात से बहुत प्रभावित हुआ, जब उसने कहा कि जब तक अमरीका के पास मजबूत शिक्षा तंत्र है, तब तक अमरीका को मंदी से डरने की जरूरत नहीं है। क्या यह शिक्षा नई तकनीक देती है और देश को डूबने से बचाती है। देश इस तरह के संकटों से बच पाता है क्योंकि शिक्षित लोग प्रतिबद्ध होते हैं ओर ईमानदारीपूर्वक काम करते हैं। वहां भी बड़े व्यापारिक घराने अकादमिक जगत को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराते हैं, लेकिन शैक्षणिक प्रक्रिया पूरी तरह से श्रेष्ठ अकादमिक लोगों और शिक्षकों के हाथों में होती है। भारत भी कई मोर्चों पर समस्याओं का सामना कर रहा है, लेकिन इन समस्याओं के समाधान में शिक्षा जगत का योगदान लगभग नगण्य है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कई स्तरों पर खामियां हैं, लेकिन सबसे अधिक धक्का भ्रष्टाचार के कारण लग रहा है। आजकल धन की भूख घर से ही पैदा हो रही है और प्रत्येक व्यक्ति पर सब कुछ प्राप्त कर लेने की सनक सवार है। अभिभावक अपने बच्चों को सबसे अच्छे स्कूल और कालेज में पढ़ाना चाहते हैं, ताकि वे अच्छी नौकरी प्राप्त कर सकें और पैसा कमा सकें। वाल स्ट्रीट जर्नल द्वारा सोलह देशों में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय विद्यार्थी नौकरी में सफलता प्राप्त करने के मामले में श्रेष्ठ हैं, जबकि ब्रिटेन, कनाडा और अमरीका में ‘अपनी संभावनाओं को साकार करने को’ पहली प्राथमिकता देते हैं। अभिभावक खुद ही विद्यार्थियों पर पैसा कमाने के लिए दबाव डालते हैं और वह सफलता को अपने विद्यार्थी के ऊपर किए गए निवेश के अनुसार मापते हैं। वह उसे बताते हैं कि अच्छे कालेज में एडमिशन के लिए उन्होंने दो लाख रुपए की कोचिंग दिलवाई है। आपूर्ति और मांग के बीच की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसके कारण लक्ष्य प्राप्त करने की लागत भी बढ़ती जा रही है। लोग अपने लक्ष्य को किसी भी तरीके से प्राप्त करना चाहते हैं। व्यापमं घोटाला इसी इच्छा की देन है। विद्यार्थियों से मांग का स्तर 76 लाख तक पहुंच गया था। इसमें दो हजार लोग गिरफ्तार हो चुके हैं और अब सीबीआई इसकी जांच कर रही है। इस जांच का निष्कर्ष चाहे जो भी हो, लेकिन यह तो तय है कि पैसे की सनक ने प्रवेश और अध्यापन की नैतिकताओं को मिट्टी में मिला दिया है।बस स्टैंडपहला यात्री : नकल की प्रवृत्ति बहुत व्यापक हो गई है। खबरों के अनुसार विद्यार्थी अपने मित्रों को चिट फेंकने के लिए पहली मंजिल की खिडक़ी तक चढ़ जाते हैं?दूसरा यात्री : अब सभी पैसे खर्च कर सकते हैं और तकनीकी भी सभी को उपलब्ध है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि अभिभावक चिट फेंकने के लिए हेलिकाप्टर का सहारा लेंगे।