गुरु नानक देव की राष्ट्रीय सोच और चिंतन
राजेंद्र सिंह
कदाचित् मध्यकालीन भारत के सन्तों और सिद्धों की श्रेणी में गुरु नानकदेव अकेली ऐसी विभूति हैं जिन्होंने इस प्राचीन राष्ट्र को एक सांस्कृतिक और राजनैतिक इकाई के रूप में देखा। उल्लेखनीय है कि आदि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी में जिन तीस से अधिक जिन महापुरुषों की वाणी संकलित है, उनमें से केवल गुरु नानकदेव ने दो बार हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग राजनैतिक इकाई के रूप में किया है। इस ऐतिहासिक प्रयोग की पृष्ठभूमि को बडी़ गहराई से समझने की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति का मूल आदर्श गौ
गौ भारतवर्ष की सांस्कृतिक, राजनैतिक और अर्थिक चेतना का मूल आदर्श और स्रोत है। इसके तीन प्रमुख रूप है: वेदवाणी, पृथ्वी और गाय। राजधर्म के अनुसार इन तीनों की विशेष रूप से रक्षा करना राजा का और सामान्य रूप से रक्षा करना क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का परम कर्तव्य है। किन्तु कालांतर में भारतवर्ष में मुसलमान आक्रान्ताओं के द्वारा लादे गए इस्लामी शासनकाल में गौ के इन तीनों ही प्रमुख रूपों की शक्ति क्षीण होती जा रही थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में श्री नानकदेव ने कार्तिक पूर्णिमा, 1526 विक्रमी को भारतभूमि पर अवतरित होने के बाद समय पाकर गौ के तीनों प्रमुख रूपों का उन्नयन किया।
गुरु नानक द्वारा वेदवाणी का उन्नयन
कवि और इतिहासकार ज्ञानी ज्ञान सिंह ने 1936 विक्रमी में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध रचना श्री गुरु पन्थ प्रकाश में गुरु नानकदेव के अवतरण के विषय में लिखा, ‘‘सैयद, शेख, मुगल और पठान आक्रान्ता हिन्दुस्तान में आ धमकते रहे। जो भी आवे वही लूटे और मारे। सबने हिन्दुओं को अधिकाधिक पीड़ित किया। इस प्रकार उन आक्रान्ताओं ने चार-पांच सौ साल तक हिन्दुओं को बड़े-बड़े दुःख दिये। इस प्रकार भारत की सारी धरा धर्म-विहीन हो गई। मुसलमानों ने कोई धर्म ही नहीं छोड़ा। जब यह अवरोध अधिक बढ़ गया तब जगत् के स्वामी ईश्वर ने सोच-विचार किया। फिर सनातन धर्म के पालन और वैदिकधर्म के विस्तार हेतु प्रभु स्वयं गुरु नानक के रूप में भारतभूमि में अवतरित हुए।‘‘
गुरु गोविन्द सिंह के दीवान रहे भाई मनी सिंह बताते है कि अवतरित होने के बाद 5 वर्ष की आयु में श्री नानक को जब उनके पिता कालू तलवण्डीवासी उपाध्याय पण्डित ब्रजनाथ के पास विद्या-प्राप्ति हेतु ले गए तो शिष्य की ज्ञानभरी आध्यात्मिक बातें सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘हे कालू! चारों वेदों की विद्या जगत में गुप्त हो रही थी। सो अब तेरा पुत्रा चारों वेदों के प्रकाश वास्ते प्रकट हुआ है।‘‘ (पोथी जनमसाखी: गिआन रतनावली)
इसी प्रकार पोथी जनमसाखी भाई बाले जी की के अनुसार भी उपाध्याय पण्डित ब्रजनाथ ने श्री कालू को यही कहा था कि तेरा पुत्रा चारों वेदों को प्रकाशित करने के लिए प्रकट हुआ है।
उपरोक्त सारे कथनों की पुष्टि कालान्तर में स्वयं गुरु नानकदेव ने भी की है। जब वे भाई मरदाना रबाबी के साथ पश्चिमी देशों की यात्रा (1574-1577 विक्रमी) करते हुए मक्का और मदीना पहुंचे। वहाँ एक वर्ष से अधिक समय तक चले शास्त्रार्थ में विजयी होकर बगदाद (इराक) पहुंचे तो वहां पर पीर मुहीउद्दीन के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, ‘‘जगत में हिन्दू वेद के धर्म को भूल गए थे, इसलिए हम वेदों के धर्म का उद्धार करने के वास्ते आए हैं।‘‘ (पोथी जनमसाखी: गिआन रतनावाली)।
‘‘मनोहरदास मेहरबान कृत सच खण्ड पोथीः जनमसाखी श्री गुरु नानक देव जी’’ के अनुसार पश्चिमी देशों की यात्रा से ठीक पहले 1564 विक्रमी से लेकर 1573 तक कुल 9 वर्ष वह भारत के पूर्वी, दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्रों की तीर्थयात्रा में व्यतीत कर चुके थे। उत्तरी भारत के तीर्थयात्रा काल में जब गुरु नानकदेव सुल्तानपुर से चलकर बिलासपुर, मण्डी, कांगड़ा, बैजनाथ और मलाना इत्यादि स्थानों से होते हुए कैलाश पहुंचे तो वहां पर नाथपन्थी सिद्धोें के साथ ज्ञानचर्चा करते समय उन्होंने वेदों के प्रति अपनी चिन्ता इन शब्दों में व्यक्त की, ‘‘वेद शास्त्रा जो कहता है, वह कोई नही करता। सब में ऐसी प्रवृत्ति व्याप रही है कि जो शास्त्रा कहे वह न करना, अपनी मनमानी ही पूजा करना और मनमाना ही कर्म करना। जो कुछ शास्त्रा कहे उसे भारतवासी नहीं करते। उन्होंने तुर्की भाषा व कलमा पढ़कर और इस्लामी मान्यताओं को हृदय में बसाना प्रारम्भ कर दिया है। कलिकाल में क्षत्रिय और ब्राह्मण तुर्कभाषा पढ़ने लगे हैं। हाल यह है कि जिन क्षत्रिय-ब्राह्मणों को तुर्कभाषा पढ़ने का आदेश नहीं था, वे तुर्कभाषा पढ़ कर मुसलमानों की मुखबिरी करने लगे और दूसरों का बुरा सोचने लगे। कहने लगे कि मैं ही सच्चा हूँ। हिन्दूधर्म का तो तब ही लोप हो गया जब दूसरों का बुरा सोचा और तुर्कभाषा पढ़ी।‘‘।
वस्तुतः गुरु नानकदेव इस बात से पूर्णतः परिचित थे कि भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना का मूल स्त्रो्रत वेद हैं। इसलिए उपरोक्त प्रकार से कष्ट में पड़ा यह राष्ट्र जब तक वेद के बताए मार्ग पर नहीं चलेगा, तब तक इसका कल्याण सम्भव नहीं। ऐसा समझ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा की –
1. चारों वेद सत्य है तथा उन्हें पढ़ने-गुनने से सुन्दर विचार ज्ञात होते हैं।
2. सुन्दर-सात्विक विचारों से हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है जो अन्धकार को दूर भगा देता है। इस प्रकार वेदों का पाठ करने से पापों का नाश हो जाता है। (श्री आदि ग्रन्थ आसा महला1)
3. जैसे दीपक के जगमगाने से अन्धेरा चला जाता है, वैसे ही वेदों का पाठ मति के पापों को लील जाता है। जैसे सूर्य के उदय हो जाने पर चन्द्रमा नहीं दीखता, वैसे ही वेदज्ञान के प्रकाश से अज्ञान मिट जाता है। वेद का पाठ करना सभी का कर्तव्य है पण्डित जन इसे पढ़-पढ़ कर विचार पूर्वक कार्य करते है किन्तु बिन बूझे पढ़ने वाले सभी लोग भटक जाते है। गुरु नानक कहते हैं कि गुरमुख या वेदपारखी गुरु की छत्राछाया में बैठ कर पढ़ने वाला व्यक्ति पार उतरेगा, मनमुखी व्यक्ति नहीं)। (श्री आदि ग्रन्थ, सलोक महला 1, पृष्ठ 791)
इस प्रकार गुरु नानकदेव ने काल के विपर्यय से गुप्त होती जा रही वेदविद्या को उजागर किया और उसके महत्त्व को समझाते हुए अपने समकालीन और भावी जनसमाज को वेदमार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
गौ रूपी भारतभूमि के प्रति संवेदना
भारतीय मनीषियों ने धरती को गौ-स्वरूप बताया है। राजधर्म के मर्मज्ञ सोमदेव सूरि अपनी विख्यात रचना नीतिवाक्यामृत 25/96 में बताते है कि राजा को चाहिए कि वह प्रति दिन समाधिस्थ होकर इस मन्त्रा का जाप करेंः चतुःपयोधिपयोधरां धर्मवत्सवतीं उत्साहवालधिं वर्णाश्रमखुरां कामार्थश्रवणां नयप्रतापविषाणां सत्यशौचचक्षुणं न्यायमुखीं इमां गां गोययामि। अतस्तमहं मनसाऽपि न सहेय योऽपराध्यतस्यै।
अर्थात् दूध रुपी समुद्र से भरे चार थनों वाली, धर्म रूपी बछड़े वाली, उत्साह रूपी पूछ वाली, चार वर्ण और चार आश्रम रूपी चार खुरों वाली (प्रत्येक खुर नीचे से दो भागों में बंटा होने पर भी ऊपर से एक होता है, यही बात वर्ण और आश्रम में है), काम और अर्थ रूपी दो कानों वाली, नय और प्रताप रूपी दो सीगों वाली, सत्य और शौच (शुचिता) रूपी दो आंखों वाली और न्याय रूपी मुख वाली इस धरती रूपी गौ की मैं (राजा) सदा रक्षा करूंगा। अतः जो भी इस धरती रूपी गौ के प्रति अपराध करेगा, उसको मैं मन से भी सहन नही कंरूगा।
उल्लेखनीय है कि गुरु नानकदेव के अवतरण से 277 वर्ष पूर्व 1249 विक्रमी में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी की सेनाओं के बीच हुए निर्णायक युद्ध में राजा पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई। इसके साथ ही दिल्ली, अजमेर और लाहौर मुस्लिम आक्रांता शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी और उसके गवर्नरों के अधीन हो गए। इधर कश्मीर मेें भी 1396 ईसवी में मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था। उसके बाद सिकन्दर बुतशिकन ने अपने शासनकाल (1446-1470 विक्रमी) में हिन्दुओं को इतना अधिक पीड़ित किया कि वहां 11 हिन्दू परिवारों को छोडकर बाकी हिन्दू मार डाले गए या फिर बलपूर्वक मुसलमान बना लिए गए। इस नृशंस बादशाह ने तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के अधिकांश मन्दिरों और मूर्तियों नष्ट-भ्रष्ट कर डाला था। इसी कारण उसके नाम के साथ बुतशिकन शब्द जुड़ गया और तभी से उसे सिकन्दर बुतशिकन कहा जाने लगा था।
‘‘श्री आदि ग्रन्थ धनासरी महला’’ में लिखा है कि जब गुरु नानकदेव कैलाश-मानसरोवर में सिद्धों से ज्ञानचर्चा के बाद तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ, मार्तण्ड, अनन्तनाग, श्रीनगर और बारामूला इत्यादि क्षेत्रों में पहुंचे तो उन्होंने सिकन्दर बुतशिकन द्वारा की गई व्यापक विनाशलीला के खण्डहरों को देखा और फिर इस पीड़ादायक घटना पर टिप्पणी करते हुए बोल उठे कि अब अनुकूल काल नहीं रहा, योग नहीं रहा और न ही सतोगुणी विधि बची है। पूजा और यज्ञ के स्थान भ्रष्ट हो गए हैै।
तीनमुखी गौ के आदर्श वाली मौलिक सांस्कृतिक धारा से परम्परागत जुड़ी अपनी प्रजा की इस दीन-हीन अवस्था के विषय में स्वयं चिन्तित भारतभूमि किस प्रकार सोचती है, इसका बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन गुरु नानकदेव ने अपने एक अन्य पद में भी किया है जिसमें भारत की धरा अपनी संवेदना प्रकट हुए प्रभु से कहती है, ‘‘यह कलि एक तीखी धुरी है और कसाई बना मुस्लिम आक्रान्ताओं का शासन इस छुरी को प्रजा पर चलाते हैं जिससे धर्म पंख लगाकर उड़ गया है। अब अभावस की अन्धेरी रात जैसा झूठ सर्वत्रा फैल गया है और सत्य का शुक्लपक्षीय चन्द्रमा कहीं चढता नहीं दिखता है। मैं सत्य के इस चन्द्रमा को ढूंढती-फिरती व्याकुल हो गई हुँ, किन्तु इस धनधोर अन्धेरे में कोई मार्ग नहीं मिलता। आक्रान्ता के अहंकारपूर्ण पापाचार में डूबी मै दुःखी होकर रो-रो पड़ती हूँ। हे प्रभु! तू ही बता कि किस विधि से मेरी सद्गति होगी।’’ (श्री आदि ग्रन्थ माझा की वार)
उक्त संवेदना भरे पद की रचना करने के कुछ एक मास बाद जब गुरु नानकदेव पश्चिमी देशों की यात्रा (1574-1577 विक्रमी) के समय मक्का में एक वर्ष रहकर मदीना पहुंचे तो वहां पर भी हुए शास्त्रार्थ में उन्होंने इमाम कमालुद्दीन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भारतभूमि क प्रति अपनी संवेदना इस शब्दों में प्रकट की, ‘भारतवर्ष की धरती गौ-स्वरूप है। वह दिन-रात पुकार रही है कि ऐसा कौन सामर्थ्यवान साधुजन है जो मुझ डूबती हुई को उबार ले। पापों के भारी बोझ से दुःखी होकर वह रात-दिन प्राणदाता के लिए पुकार रही है। गौवध बहुत बड़ा पाप है जिस कारण धरती अपाहिज हो गई है। धरती रूपी गौ इस समय एक ही पैर पर खड़ी है। उसके धर्म रूपी तीन पैर नष्ट-प्रायः हो गए हैं। यदि उसका अवशिष्ट एक पैर भी कुम्भी नरक में गिर पड़ा तो सर्वनाश हो जाएगा। चतुष्पाद धर्म का अब केवल एक पैर बचा है और तीन का विलोप हो गया है। यदि यह एक पैर भी न रहा तो धरती रूपी गौ रसातल में धस जाएगी।’ (मक्के मदीने दी गोशटि)
राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक शब्द
उपरोक्त पद की पहली पंक्ति में गुरु नानकदेव ने ईरान के एक क्षेत्रा खुरासान के उल्लेख के साथ इधर अपने यहां आक्रान्ता बाबर द्वारा किए गए हमले का उल्लेख करते समय बृहत्तर पंजाब के छोटे परगना सैदपुर का नहीं बल्कि हिन्दुस्तान का सार्थक और साभिप्राय प्रयोग किया है। इस बात को गहराई से समझने की आवश्यकता है। जब भी किसी जीवित मनुष्य के किसी अंग विशेष को कोई चोट लगती है अथवा उस पर घाव हो जाता है तो उससे उपजी पीड़ा को उसमें विद्यमान व्यापक चेतना दुःख के रूप में तुरन्त अनुभव कर लेती है। किन्तु चेतनाशून्य व्यक्ति को ऐसा घटित होने पर कुछ भी अनुभव नहीं होता। जीवित होते हुए भी जिन्हें ऐसा अनुभव नहीं होता उन्हें ही भावशून्य अथवा संवेदनहीन व्यक्ति कहा जाता है।
इन सब बातों का विचारपूर्वक अवलोकन करते हुए गुरुनानक देव ने उपरोक्त पद की पहली पंक्ति में क्षेत्रावाचक सैदपुर नाम के स्थान पर राष्ट्रवाचक हिन्दुस्तान शब्द का सार्थक और सटीक प्रयोग किया है। सैदपुर पर बाबर द्वारा किए हमले को पूरे हिन्दुस्तान पर हुए राष्ट्रघाती धावे के रूप में देखना गुरू नानकदेव की व्यापक संवेदनशीलता और राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक है।
लुटेरे बाबर का हिंदुस्तान पर हमला
मुहम्मद कासिम फरिश्ता ने अपनी रचना तारीखे फरिश्ता (1668 विक्रमी ) में ‘‘बाबर के हिन्दुस्तान पर हमले‘‘ शीर्षक के अन्तर्गत बताया है कि अपने तीसरे हमले के समय सन् 926 हिजरी में आक्रान्ता बाबर ने परगना सैदपुर को पूरी तरह तबाह और बरबाद कर दिया था। ज्ञात हो कि पौष शुक्ला 1, विक्रमी 1577 को सन् 926 हिजरी की समाप्ति से पहले कार्तिक शुक्ला एकादशी पड़ी जिसे देवोत्थानी या देवप्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। यह शुभ दिन अनपुच्छ मुहूर्तो में गिना जाता है और इसमें तुलसी विवाह भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसी कार्तिक शुक्ला एकादशी, 1577 विक्रमी को गुरु नानकदेव और भाई मरदाना रबाबी सैदपुर में आ पहुंचे थे। इसकी अगली सुबह मंगलवार कार्त्तिक शुक्ला 12, विक्रमी 1577 (12-10-1520 ईसवीं) को आक्रान्ता बाबर ने सैदपुर पर धावा बोला। उसने सैदपुर में हो रहे विवाहों के उल्लासपूर्ण उत्सव को चन्द घण्टों में मरघट के मातम में बदल दिया था।
इस हृदय विदारक घटना के प्रत्यक्षदर्शी गुरु नानकदेव ने अपनी मर्मस्पर्शी वाणी में आक्रान्ता बाबर को शैतान और उसके इस्लामी लश्कर को पाप की बारात बताया है, यह उल्लेखनीय है कि गुरू नानकदेव ने बाबर के इस धावे को बृहत्तर पंजाब के एक क्षेत्रा विशेष पर हुए हमले के रूप में नहीं अपितु पूरे हिन्दुस्तान पर हुआ हमला माना है। उन्होंने कहा आक्रान्ता बाबर पाप की बारात लेकर काबुल से यहां आ धमका है और भारतभूमि रूपी कन्या का दान बलपूर्वक मांग रहा है। इस कुकृत्य के कारण से शर्म और धर्म दोनों कहीं जा छुपे हैं और उनके स्थान पर झूठ की प्रधानता हो गई है। इस अन्याय के कारण काजियों और ब्राह्मणों की साख समाप्त हो गई है क्योंकि अब शैतान (बाबर) ही निकाह-विवाह पढ़ा रहा है।’
आगे भी ऐसा होने की सम्भावना को देेखते हुए उन्होंने अपने इसी पद में कुछ पंक्तियों बाद हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग करते समय कहा है, ‘आगे जब यह काया टुकड़े-टुकडे़ हो जाएगी, तब सारा हिन्दुस्तान मेरे बोलों को सदा स्मरण रखेगा, भुला नहीं पाएगा।’
बताते हैं कि जब गुरु नानकदेव भाई मरदाना रबाबी के साथ पश्चिमी देशों की यात्रा समाप्त करके सन्ध्या के समय अपने एक भक्त भाई लालो से मिलने पठान-बहुल क्षेत्रा परगना सैदपुर में पहुंचे तो ज्ञात हुआ कि सैदपुर में पठानों के घरों में विवाह हैं, पठान नाच रहे हैं, सारंगियां बज रही हैं। घर-घर विवाह हो रहे थे, किसी के बेटे का तो किसी की बेटी का। शायद ही कोई घर खाली हो तो हो।
इससे विदित होता है कि उस दिन विवाहों का बहुत बड़ा साहा था। ‘विवाहों में भोजन के भण्डार लगे होने पर भी जहां भूख से आतुर चन्द फकीरों को याचना के बावजूद खाने को कुछ नसीब न हुआ।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के सन्दर्भ में बताया गया है कि रात्रि बीतने के बाद जब ‘‘सवेरा हुआ तो वहां अमीर बाबर टूट पड़ा। सैदपुर में जितने गांव थे, सबमें कत्लेआम हुआ। स्त्रिायां बांध ली गईं, जो घर थे सो लूट लिए गए, बिछौने तक चले गए। घर जला दिए गए। जो भी पुरुष थे, सब कत्ल कर दिए गए। जिनके यहां बारातें आयी थीं, उन सभी को मुगलों ने बांध लिया।
जब बाबा नानक बाबरी लश्कर की ओर गए तो देखा कि स्त्राी-पुरुष गलों और पैरों में जंजीरों से बंधे त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। जब बाबा जी को वे लोग ऐसी हालत में नजर आए तो बाबा बहुत विह्वल हो उठे। आक्रान्ता बाबर द्वारा करवाए गए कत्लेआम और बड़ी संख्या में बन्दी बनाए गए स्त्राी पुरुष और बच्चों की दयनीय दशा को देखकर गुरु नानकदेव परमेश्वर को उलाहने देते हुए बोले, ‘‘हे विधाता! तूने खुरासान को तो मालिक बना दिया और इधर हिन्दुस्तान को आतंकित कर डाला। फिर भी तू इस सारे काण्ड का कर्ता होते हुए भी अपने-आप को दोष नहीं देता! तूने मुगल बाबर को प्राणहर्ता यमराज बनाकर इस देश पर चढ़ा दिया। उस यमराज बने बाबर के अत्याचार के कारण हिन्दुस्तानियों पर इतनी बेदर्दी से मार पड़ी कि वे त्राहि कर उठे। तू तो सबका कर्ता है न! यदि कोई सशक्त पुरुष किसी शक्तिशाली को मारे तो मन में रोष नहीं होता, परन्तु जब बलवान शेर गायों के बाड़े पर आ धमके तो लोग स्वामी से ही पूछा करते हैं कि संकट की घड़ी में तू कहां चला गया था! रत्न रूपी हिन्दुस्तानियो को मार-मार कर इन मुगल रूपी कुत्तोें ने ऐसी दुर्गत कर दी और इतने लोग मार दिए कि इनकी कोई सार-सुध नहीं। हे विधाता ! तू स्वयं जोड़ता और स्वयं ही बिछोह करवाता है, अब तू स्वयं अपनी महिमा देख ले।’’
संदर्भ:-
सच खण्ड पोथी (1669 विक्रमी),
पुरातन जनमसाखी (1691 विक्रमी),
आदि साखीआं (1758 विक्रमी)
जनमसाखी (1790 विक्रमी),
श्री आदि ग्रन्थ, तिलंग महला 1,
श्री आदि ग्रन्थ आसा महला 1,
गुरु नानक की फकीरों के प्रति दृष्टि
यह उल्लेखनीय है कि चोर, डाकू, और आक्रान्ता के आने और अपराध करने की कोई तिथि नहीं होती। उधर फकीरों के आ पधारने की भी कोई तिथि नहीं हुआ करती। परन्तु इन दानों प्रकार के क्रमशः बुरे और अच्छे अतिधियों के प्रति हमारी दृष्टि में बहुत बडा अन्तर होता है। परगना सैदपुर में हो रहे विवाहों के उल्लासपूर्ण उत्सव के शुभावसर पर घर-घर भोजन के भण्डार लग होने पर भी भूख से आतुर चन्द याचक फकीरों को खाने हेतु कुछ नसीब नहीं हो पाया था।
विवाहों में बज रहे बाजों की धुनों में मगन और अन्य कार्यो में व्यस्त सैदपुरवासियों का चन्द फकीरों के प्रति यह उपेक्षा का भाव गुरु नानकदेव को बिल्कुल नहीं भाया। इसीलिए उन्होंने आक्रान्ता बाबर के राष्ट्रघाती कुकृत्य की तीखी भर्तस्ना के साथ ही सैदपुरवासियों द्वारा भूख से व्याकुल चन्द फकीरों के प्रति किए गए अनपेक्षित व्यवहार की भी आलोचना की। इस आलोचना को सुनकर एक ब्राह्मण, जिसकी अपनी पुत्राी का विवाह था, मेवों और मिठाइयों से भरा एक टोकरा लाया तथा गुरु नानकदेव और फकीरों के आगे आदरपूर्वक रख कर बोला कि कृपा करें। कुछ समय बाद श्री गुरु जी ने उसे सिर पर मंडरा रहे बाबरी संकट से बचने का उपाय सुझाते हुए कहा, ‘‘देखो, यहां से 12 कोस पर अमुक तालाब है। अपने परिवार को वहां ले जाकर बैठाओ। यहां मत रहना, यहां रहोगे तो मारे जाओगे। जो बारात तुम्हारे घर आने वाली है उसके पास कोई आदमी भेजो।’’ सच खण्ड पोथी ( 1669 विक्रमी) और आदि साखीआं के अनुसार तब वह ब्राह्मण अपने परिवार और सामान को गाड़ी वाहनों पर लाद कर बाहर उसी स्थान पर चला गया जहां गुरु नानक ने कहा था। तब एक वही ब्राह्मण अपने समधी सहित बच पाया, अन्य सभी लोग बाबरी धावे में मार डाले गए। इस प्रकार गुरु नानकदेव का चिन्तन बड़े व्यापक स्तर पर राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देता हुआ दृष्टिगोचर होता है।