हमारे ऐसा सोचने में जहां हमारी कोमल भावनाएं संस्कारित जीवन शैली, सात्विक विचारधारा और मानवतावाद में मौलिक आस्था जैसे हमारे परंपरागत भारतीय संस्कार उत्तरदायी हैं वहीं न्यायालयों से न्याय मिलने में होने वाली अप्रत्याशित देरी भी उत्तरदायी है। यदि 1993 में ‘मुंबई बम ब्लास्ट’ को अंजाम दिलाने वाले याकूब मेमन को 22 वर्ष पश्चात फांसी दी जाती है, तो इतनी देर में कई चीजें स्वाभाविक रूप से बदल जाती हैं, जिससे घटना के परिणाम के प्रति लोगों की उत्सुकता में कमी आ जाती है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि 22 वर्ष में एक पीढ़ी युवा होकर कमान संभाल लेती है। जो उस समय 50-60 वर्ष के थे वे अधिकतर या तो बूढ़े हो जाते हैं या ऊपर चले जाते हैं और जो उस समय 22 वर्ष के थे या 40 के थे वे दाल रोटी के चक्कर में दुनिया को भूलकर चलने लगते हैं। इसलिए घटना के परिणाम के प्रति आकर्षण की कमी के कारण लोग याकूब मेमन में अधिक रूचि नही लेते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी है जो हमें किसी आतंकवादी को फांसी देने पर उसके प्रति दयालु बनाता है और वह है-हम 22 वर्ष में आतंकी घटना के शिकार लोगों को, उनके चेहरों को, उनके परिवार के दुख को और इस काल में उनके परिवार की विधवाओं, बच्चों, माता-पिता आदि को मिले कष्टों को भूल जाते हैं। क्योंकि मीडिया में उनके विषय में कुछ नही बताया जाता। हमें उनके चेहरे भी नही दिखाये जाते हमें चेहरा दिखाया जाता है उस आतंकी का जिसने उस घटना को अंजाम दिया था। इससे ऐसा लगता है कि जैसे यह आतंकी तो शहीद है, मासूम है और जो इसके द्वारा मारे गये वे भेड़-बकरी थे।
वास्तव में हमने ‘शहीद’ शब्द का इतना अपमान किया है कि कुछ कहा नही जा सकता। अभी पंजाब के गुरदासपुर में आतंकी घटना घटित हुई है, हमने उसमें मारे गये लोगों को ‘शहीद’ कहा है, पर जब शहीद होने वालों के हत्यारे को ‘दण्ड’ दिया जाएगा तो हममें से कुछ लोग कहने लगेंगे कि-‘छोड़ दो बेचारों को, गलती हो गयी , अब नही करेंगे’। ऐसी सोच रखने वाले ‘शहादत’ का अपमान करते हैं।
याकूब मेमन को फांसी दी ही जानी चाहिए थी। उसके साथ जो कुछ हुआ है वह न्याय है। यदि इसे आप न्याय न कहकर अन्याय कहेंगे, तो जिन 257 लोगों को मुंबई बम ब्लास्ट में अपनी जान गंवानी पड़ी थी उनके साथ भी क्या उस समय न्याय हुआ था? सोचने के लिए कई गंभीर प्रश्न हैं।
याकूब मेमन को एक प्रतीक के रूप में फांसी दी गयी है। उसने व्यवस्था और शांत समाज को अव्यवस्थित और अशांत करने की नीयत से पूरी व्यवस्था को चुनौती देकर अपना आपराधिक कृत्य किया था। जिससे सिद्घ है कि उसने किसी आकस्मिकता या अचानक आयी उत्तेजना के वशीभूत होकर ऐसा नही किया था। अपराध करने से पूर्व आपराधिक पृष्ठभूमि में अपराधी की बनी आपराधिक मानसिकता और उसकी तैयारी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। उससे पता चलता है कि व्यक्ति अपराध के लिए पूरी तरह पूर्ण मनोयोग से तैयार था या नही। यदि अपराधी पूर्ण मनोयोग से अपराध के लिए तैयार था तो मानना पड़ेगा कि वह कठोरतम दण्ड का पात्र है। याकूब मेमन का ‘मुंबई बम ब्लास्ट’ में पाकिस्तानी हाथ होने की बातों की स्वीकारोक्ति को कुछ लोगों ने यूं कहकर प्रदर्शित करने का प्रयास किया है कि वह किसी षडयंत्र का शिकार हो गया और इस सारी घटना में तो पाकिस्तान ही दोषी है।
ऐसा कहते समय भी हमें कुछ सोचना चाहिए। याकूब मेमन ने यदि ‘मुंबई बम ब्लास्ट’ में पाकिस्तान का हाथ होना बताया है, तो इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि वह अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि और आपराधिक मानसिकता कितने समय से कितने मनोयोग के साथ बना रहा था? वह घटना को अंजाम देना चाहता था और इस प्रकार देना चाहता था कि अधिक से अधिक लोग मारे जाएं। इसलिए माननीय न्यायालय ने जो कुछ किया है, लोगों को उसे स्वीकार करना चाहिए। जो लोग फांसी की सजा का विरोध करते हैं और इसे अमानवीय कहकर हटाने की बात करते हैं उनके कोमल मनों को समाज को अपराधमुक्त और भयमुक्त करने पर रिसर्च करनी चाहिए। क्योंकि मौलिक प्रश्न अपराधी को भयमुक्त करना नही है, अपितु समाज को भयमुक्त करने का है। यदि समाज भयमुक्त हो गया तो अपराधी स्वयं ही नही रहेगा। जब तक समाज भययुक्त है, तब तक अपराधी है और अपराधी को भययुक्त रखने के लिए ही सारी व्यवस्थाएं जन्म लेती हैं। इसलिए फांसी मुक्त दण्ड की वकालत करने वाले जनाब तनिक विचार करें कि यदि अपराधी को फांसी का दण्ड नही दिया जाए तो जिनको उसने बम ब्लास्ट कर ‘फांसी’ लगायी थी उन्हें भी किसी प्रकार ‘फांसी’ न लग पाती-ऐसी तुम्हारे पास क्या युक्ति है?