क्या है श्री कृष्ण जी महाराज का गोवर्धन पर्वत उठाना ?

रावण के राष्ट्र में नीति थी, धर्म नहीं था ।नीति भी अधर्म की नीति थी। यदि उसके साथ धर्म भी होता तो निश्चित था कि रावण की पताका संसार में सबसे ऊंची कहलाती।
आज संसार में प्रत्येक मनुष्य यह कह देता है कि यह तो पाखंडी है, लेकिन पाखंड कहते किसको हैं ?  इसको देखें जरा।
         चारों वेदों का पंडित भी कभी – कभी संसार में पाखंडी कहलाता है और कभी-कभी एक अक्षर को भी न जानने वाला व्यक्ति संसार में सदाचारी कहलाता है। यह निश्चित नहीं कि संसार में वेद पाठ करने से ही सदाचारी बन सकता है। एक निरक्षर व्यक्ति भी सदाचारी बन सकता है , जबकि वेदपाठी व्यक्ति दुराचारी बन सकता है। जैसे रावण को अभिमान था कि मैं सार्वभौम का स्वामी हूं । उसके भीतर दंभ था, छल था, कपट था। वह संस्कृति से दूर था। वेद के एक  वाक्य को भी अपने हृदय में धारण करने वाला नहीं था। इसलिए पाखंडी कहलाता था। संसार में वह पाखंडी कहलाता है जो वेद – वेद तो पुकारता है परंतु वेद के अनुकूल न उसका आहार है, न व्यवहार है और न उसकी वाणी है। केवल मात्र उच्चारण करता है, उसी को पाखंडी की संज्ञा हमारे यहां दी जाती है।
     जो दूसरों से ईर्ष्या एवं जलन करता है ।अपनी प्रशंसा को जानकर अपने आत्मिक तत्व को समाप्त करता रहता है, वह संसार में पाखंडी कहलाता है। जिसके उदार भाव ही नहीं वह संसार में दम्भी, छली और कपटी कहलाता है।
आज का मानव भगवान को कभी राम शब्द से पुकारता है तो कभी कृष्ण शब्द से पुकारता है।  यह तो यथार्थ है कि परमात्मा के अनंत नाम हैं,  उसको किसी नाम से पुकारो, है तो वह परमात्मा ही। परमात्मा को जिन जिन रूपों में पुकारा जाता है उन्हीं  रूपों में प्रकट हो रहा है ,लेकिन जब मानव रूढ़िवादी बन जाता है और रूढ़िवादी बन करके उसके द्वारा उस महान योगेश्वर कृष्ण को भगवान मान लिया जाता है तो उस महान आत्मा पर लांछन लगाकर अपने स्वार्थ को पूरा करना चाहता है। यह हमारी मूर्खता नहीं तो और क्या है ? यह हमारी अज्ञानता नहीं तो और क्या है?
जिन्होंने अपने दर्शनों को, शास्त्रों को, वेदों को नहीं जाना, परमात्मा की वाणी वेद पर विचार नहीं किया ,यह उनकी अज्ञानता नहीं तो और क्या है?
     हम उन महाराज कृष्ण जैसे अनेकों आचार्यों और योगियों के कितने बड़े आभारी हैं जिन्होंने 16 कलाओं को जाना और समय के अनुसार नीति को बरतते हुए संसार का पुनरुत्थान किया ।मानव को विचार करना चाहिए कि महाभारत का इतना संग्राम केवल महाराज कृष्ण का ही कर्तव्य था। जैसी राजनीति देखी, जैसा समय देखा, उसके अनुकूल व्यवहार किया।
यह उन्हीं की योग्यता थी, क्योंकि महाभारत काल में भौतिकता बहुत बढ़ गई थी। नाना प्रकार के यंत्र बन गए थे।  भौतिक विज्ञान से ऐसी यंत्रों का निर्माण कर एक दूसरे को नष्ट करने की योजनाएं बनाई जा रही थीं।
उन्हीं महाराज कृष्ण जी ने विनाशकारी युद्ध को रोकने का यतन किया, परंतु जब कुछ नहीं हुआ तब महाभारत का युद्ध कराया। कितना विशाल संग्राम आज का मानव चकित होता चला जा रहा है ।इस संग्राम में सभी बुद्धिमान और वैज्ञानिक समाप्त हो गए। परंतु क्या करें जैसा मानव का समय होता है, उसी के अनुकूल वातावरण बन जाता है ।
     परंतु   साधारण मनुष्य के अंतर्मन में आने वाला विषय नहीं यह तो केवल परमात्मा की महानता है। जिसके आदेश से यह कार्य चल रहा है ।मानव तो यतन कर सकता है। वह भी सीमित। असीमित नहीं।
परमात्मा इतना अनंत है कि वह सभी कुछ समय के अनुकूल करा देता है ।उस समय महान योगी कृष्ण जी महाराज ने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया था कि जो या तो त्रेता काल में लक्ष्मण जानते थे या द्वापर में महाराज कृष्ण जानते थे। महाभारत के संग्राम का जितना मैदान था उसके चारों ओर एक यांत्रिक रेखा का महाराज कृष्ण द्वारा प्रयोग किया गया था ,जिसके कारण संग्राम के यंत्रों का दूषित प्रभाव उस रेखा से बाहर न जा सका अर्थात संग्राम भूमि से बाहर अन्य प्राणियों पर उन यंत्रों का कोई दूषित प्रभाव नहीं हुआ था ।
यहां तक कि आकाश  के रास्ते से भी यंत्रों का दुष्प्रभाव अन्य प्राणियों पर और पृथ्वी पर न पड़े इस प्रकार का प्रबंध भी श्री कृष्ण जी महाराज द्वारा किया गया था।
इसको  स्वानमाम की रेखा कहते हैं ।
यह योग्यता और महान वैज्ञानिकता है ।जिसमें 16 कलाओं को जाना जाता है। इसी प्रकार लक्ष्मण रेखा त्रेता काल में सीता जी की कुटिया के चारों तरफ लक्ष्मण जी द्वारा रेखा का निर्माण किया था। जैसे परमात्मा अनंत है और उसके गुण अनंत हैं ऐसे ही महान व्यक्ति अनंत गुणों के स्वामी होते हैं। फिर भी महाराज कृष्ण भगवान नहीं थे कि जो चाहें सो कर दें।
  उनको कुछ लोग भगवान कहने लगे परंतु उनको भगवान होने का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता ।वह पूर्ण ब्रह्म नहीं माने जा सकते।
क्योंकि किसी भी ऋषि मंडल द्वारा ऐसा सिद्ध नहीं किया गया है। यदि आज महाराज कृष्ण को भगवान के रूप में मान लेते हैं या पूर्ण ब्रह्म स्वीकार कर लेते हैं तो ईश्वर की महत्ता में भी विच्छेद आ जाता है,  क्योंकि परमात्मा का नियम यह नहीं कहता। यदि परमात्मा  स्वयं अपने ही नियमों को तोड़ने लगे तो उनकी महत्ता ही नष्ट हो जाती है। दूसरे सर्वशक्तिमान परमात्मा को जन्म धारण करने की क्या आवश्यकता है  ? इस प्रकार अवतारवाद निरर्थक है।
परमात्मा तो निराकार रहते हुए भी जिस वस्तु की रचना कर देते हैं उसका नाश भी में निराकार होते हुए कर सकते। क्योंकि परमात्मा निराकार होते हुए सर्वशक्तिमान है।
      वास्तव में मानव ने इस रहस्य को जाना नहीं। महाराज कृष्ण योगेश्वर थे ,महान एवं विचित्र थे। अपने समय के बहुत बड़े बुद्धिमान थे ।अपने समय में वेदों के प्रकांड पंडित थे। महाराज कृष्ण का ऐसा प्रबल आत्मा था कि दूसरों का आत्मा उनके आत्मिक बल से प्रभावित होकर उनके ही आदेशों पर चलने लगता था।
योगेश्वर होने के नाते ही उन्होंने अर्जुन को अपना पंचमहाभूत  मानव शरीर में रहते हुए विराट रूप दिखा दिया था इससे दर्शक चकित हो जाता है। वास्तव में महाराज कृष्ण के जीवन को वास्तविक रूप में जाना ही नहीं। योगेश्वर महाराजा कृष्ण की योग्यता एवं उनके चरित्र को नाना प्रकार से विकृत कर दिया है अनेक प्रकार की भ्रांतियां लोगों ने फैला दी हैं।
षोडश कलाओं  के जानने वाले भगवान कृष्ण ने अपने जीवन में किसी प्रकार का पाप कर्म नहीं किया ,वह इतने महान थे। क्यों नहीं किया।  यह प्राय होता है कि जब मानव संसार में आता है तो पाप भी करता है और पुण्य भी करता है। क्योंकि यह शरीर ही उसे पाप पुण्य कर्म करने के लिए प्राप्त होता है। महाराज कृष्ण इतने महान थे। अपने कार्यों में इतने दक्ष थे, ज्ञान और विज्ञान में इतने पारंगत थे कि वह किसी कार्य को करने के पश्चात उस पर पश्चाताप नहीं करते थे। नम्रता उनकी प्रतिभा थी।
महाराज कृष्ण विज्ञान में भ्रमण करते थे।  कितना विज्ञान उनके समीप था, वह जानते थे कि पृथ्वी में क्या है ?अंतरिक्ष के परमाणु क्या कर रहे हैं और कह रहे हैं ?जो मानव विज्ञान के आश्रित होकर के वायुमंडल की तरंगों को जानने लगता है वही तो संसार में विज्ञानवेत्ता कहलाया जाता है।
     महाराज कृष्ण में अलौकिकवाद था ।इसी प्रकार भारतवर्ष में अनेक महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं। उन महापुरुषों के आगमन से एक विचित्र वाद छाता चला आया है। परंपरा से वैदिक परंपरा को उन्नत बनाने के लिए मानव का परम धर्म हो जाता है क्योंकि मानव की जो मीमांसा है वह मननशील के आधार पर निर्धारित है ,क्योंकि मानव वही कहलाता है जो मननशील होता है, जिसके मन का कोई संकलन होता है, उसी के जीवन में महानता की एक ज्योति प्रकट होती रहती है। जब हम प्रत्येक वाक्य को अपनाने का अथवा मनन करने का साधन बनाएंगे तो हमारा जीवन वास्तविक ज्योतिमय प्रतीत होने लगता है।
महाराज श्री कृष्ण के जीवन में सदैव अग्नि प्रदीप्त रहती थी। उनके पठन-पाठन का कार्यक्रम था, मनन करने की जो पद्धतियां थीं वह विचित्र  में सदैव परिणत रही हैं ।उन पद्धतियों को अपनाने के लिए आज हम लालायित रहते हैं। कि आज पुनः उन पद्धतियों को अपनाया जाए ।उन पद्धतियों के आधार पर ज्ञान और विज्ञान की पुनः विवेचना की जाए।  उस विज्ञान को पुनः लाना चाहिए जिस विज्ञान को जानकर के महाराज कृष्ण का पाठ्यक्रम सदा विचित्र रहा है।
महाराज कृष्ण ने धर्म और मानवता की रक्षा करना अपना परम उद्देश्य माना,  क्योंकि जिस राजा के राष्ट्र धर्म और मानवता की रक्षा नहीं होती उस राष्ट्र और पद्धतियों कदापि नहीं चुनना चाहिए।
      महाराज कृष्ण ने एक वाक्य कहा था कि जहां समाज में गौ की रक्षा होती है गौ  नाम के पशुओं की रक्षा करनी है। गो नाम की इंद्रियों की रक्षा करनी है।  राष्ट्रीय विचारधारा और मानव पद्धति को विलक्षण बनाना है।
महाराज कृष्ण एक ध्वनि किया करते थे उसी ध्वनि के आधार पर मानो एक नाद होता था और गौएँ  प्रसन्न होकर के दूध देने के लिए तत्पर हो जाती थीं ।वह  जब प्रसन्न  हो जाती थीं तो उस समय उनके दुग्ध को पान किया जाता था ।जब पशु प्रसन्न होकर के दुग्ध को देता है तो  स्वामी के लिए बुद्धि वर्धक होता है। रक्तवर्धक होता है।
     महाराज कृष्ण ने गायों को प्रसन्न करने के बिंदु पर जोर दिया।  इसके  माध्यम से गायों की रक्षा होती रही ।गायों की रक्षा करना उनका  परम कर्तव्य था। क्योंकि उससे राष्ट्रीय परंपरा ऊंची बनती है। राष्ट्र में दूध देने वाला पशु है, उसी से मानव की बुद्धि ऊंची बनती है। मानव की बुद्धि में उर्ध्व गति आती है। ऐसे उत्तम पशु जिस राजा के राज में  हों  उनकी रक्षा करना यह सब का परम कर्तव्य हो जाता है।
महाराज कृष्ण कहा करते थे कि प्रत्येक घर में  घृत रहना चाहिए। महाराज कृष्ण की पत्नी ने उनसे निवेदन किया कि महाराज आप भोजन भी नहीं करते ना ही पान करते हो, सदैव ऐसे गोपनीय विषय में संलग्न हो जाते हो कि आपको संसार का ज्ञान ही नहीं रह पाता।
( गोपनीय विषयों में लगे रहना ही कृष्ण जी का गोपिकाओं में खेलते रहना मान लिया गया।  ना जानकार ,अज्ञानी लोग कहते हैं कि वह हमेशा गोपियों में खोए रहते थे।)
   कंस का वध करने के पश्चात महाराज कृष्ण समुद्र के तट पर विराजमान हो करके तप किया था।  12 वर्षों तक तपस्या करते रहे थे ।ऐसे तपस्वी को देवियों में विनोद करने वाला कहा तो यह अज्ञान ही तो है। न जानकर अर्थों का अनर्थ नहीं होना चाहिए ।अर्थों का अनर्थ होकर के महापुरुषों के जीवन की आभा समाप्त हो जाती है। महापुरुषों का क्रियाकलाप समाप्त हो जाता है। उसमें रूढ़िवादिता आ जाती है और वह रूढी इन महापुरुषों को हमसे दूर कर देती है जबकि वास्तव में प्रत्येक मानव को गोपिकाओं से विनोद करना चाहिए। यह गोपिका है क्या ?
यह मानव के द्वारा जो संकल्प विकल्प होते हैं, उनका नाम गोपनीय विषय कहा जाता है। जब हम उस गोपनीय विषय के विचार पर रहते हैं, उनका मंथन करते रहते हैं तो एक समय देवता बनने की हमारे द्वारा प्रवृत्ति आई तो देवता बन गए और एक क्षण समय आया तो असुर बन गई। अब विचारना है कि हम असुर बन कर रहें या देवता ? इन पर मंथन करना, इन पर विचार करना प्रत्येक मानव, प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है ।जब मानव इन पर विचार करता है तो गोपनीय विषय विचारता है। भगवान कृष्ण को कहा जाता है उनके 16008 गोपियां थी पत्नियां थीं । वह क्या थीं ?भगवान कृष्ण को 16008 वेद की वेद की ऋचाएं कंठस्थ थीं। वके उनमें रमण करते रहते थे ।उनका मंथन करते रहते थे। न भोजन की स्मरण रहता था ना संसार का स्मरण आता था)

भगवान कृष्ण ने कहा कि देवी मैं क्या करूं यह जो वेदों का ज्ञान है यह ऐसा गोपनीय विषय है कि मेरा हृदय प्रसन्न होता है और उसे त्यागने के लिए मेरी इच्छा नहीं होती कि मैं आज इस भौतिक परंपरा को त्याग दूँ अथवा यह गोपनीय विषय मेरे हृदय से दूर चला जाए। इस प्रकार वह सदैव गोपनीय विषयों को लेकर विचार में निमग्न  रहते थे। नई-नई अनुसंधान करने में संलग्न रहते थे। पति और पत्नी दोनों एकांत स्थान में विराजमान होते वेदों की चर्चा प्रारंभ होती रहती, विचार चलता रहता, और उनका हृदय मग्न रहता कि आज वैदिक विचार धाराओं की छत्रछाया में हमारा जीवन परिपक्व हो रहा है।

महाराज कृष्ण मौनधुक (वेदों में इसको सोनधुक भी कहा गया है,) नाम की रेखा को जानते थे जो अंतरिक्ष में छा जाने के बाद सूर्य को ढक लेती थी। अर्जुन की प्रतिज्ञा को पूरा कराने के लिए उसी    रेखा को उन्होंने अंतरिक्ष में बनाया था । जिससे सूर्यास्त होने का दृश्य पैदा हो गया था।
परमात्मा की उपासना करना और प्रत्येक वस्तु पर चिंतन करना उनका उद्देश्य होता था ।
वे जिस मार्ग को भी अपनाना चाहते थे उस पर अपना पूर्ण चिंतन करते थे ।उसी में निधारित  हो जाते थे।
प्राची दिक  , दक्षिण दिक, प्रतिची दिक  ,उदीची डिगक ,पृथ्वी कला, वायु कला, अंतरिक्ष कला, समुद्र कला ,सूर्य कला, चंद्रकला, अग्नि कला, विद्युत कला, मन कला, चक्षु कला, स्त्रोत्र कला,घ्राण कला,यह 16 कलाएं थीं,जिनको भगवान कृष्ण अच्छी प्रकार से जानते थे।
कलाओं का ज्ञान होने के पश्चात संसार में ब्रह्म वेता ,विज्ञान वेता , भौतिक और आध्यात्मिक से विशेष ज्ञान प्राप्त हो सकता था। इन्हीं कलाओं को संसार में जानने वाला महान योगी कहलाता है।
इन्हीं 16 कलाओं में रत रहने के कारण कृष्ण जी महाराज को 16,000 गोपियों का पति कहा जाता है जो मूर्खता है,  अज्ञानता है और अनाड़ीपन है।
महाराज रामचंद्र जी 12 कलाओं को ही जानते थे , जबकि महाराज श्री कृष्ण जी 16 कलाओं के ज्ञाता थे।
25 वर्ष तक महाराज कृष्ण ने संदीपनी ऋषि के आश्रम में उज्जैन में अध्ययन किया । 25 वर्ष के पश्चात उनका संस्कार विवाह हुआ। तत्पश्चात वह संसार के कार्यों में लीन हो गए ।संसार के कार्यों में  लीन रहकर महाराज कृष्ण का जीवन बड़ी पवित्रता में रहा ,महान रहा। उनके जीवन में कभी अश्लीलता नहीं आई ।जिसे आज का मानव अश्लील कह करके उनको अपमानित करता है। आधुनिक काल का व्यक्ति चाहे कुछ भी कहता हो परंतु उस समय का साहित्य कुछ और ही कहता है। उस समय का साहित्य काल बड़ा विचित्र और महान रहा है। बाल्यकाल से ही उन्होंने नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन किया।
    महाराज कृष्ण एक समय गोपियों में विनोद ही करते रहे । विनोद करते करते हुए कई दिवस हो गए ।महारानी रुक्मिणी आई, कहा – प्रभु आप क्या कर रहे हैं ?आप इन गोपियों  में विनोद करते रहते हैं। आपको राष्ट्र का ध्यान ही नहीं है। भगवान कृष्ण ने कहाव- देवी !यह संसार तो चलता जा रहा है, और चलता चला जाएगा। परंतु मुझे गोपीका से विनोद करने दो। मुझे आनंद आता है। जब मैं इनसे विनोद करता हूं तो मेरी अंतरात्मा शक्ति को प्राप्त कर लेती हैं। भगवान कृष्ण जब यह कहा करते हो तो रुक्मिणी मौन हो जाती, और कोई उत्तर नहीं बना तो कहा करती – भगवान ! भोजन, भोजन इत्यादि पान करो।
     हमारे जीवन में 5 अवगुण होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जब यह किसी व्यक्ति के अंदर आ जाते हैं तो समझो वह सर्प की तरह हो जाता है अर्थात विषधर हो जाता है सबकी तरफ फुंकारने लगता है । इन्हीं पांचों अवगुणों के ऊपर चढ़ करके अर्थात उनको वश में करके कृष्ण जी नाचते हैं ,नृत्य करते हैं। यही नाग मंथन हैं यही नागनाथन है। जो अज्ञानी लोग हैं वह उसका अर्थ कुछ और लगाते हैं अनेक मनगढ़ंत, दृष्टकूट कहानी बनाकर के लोगों में पेश करते हैं। कालीदह पर काले नाग को अपने वश में करके कृष्ण जी को नाचता हुआ दिखाते हैं , वह वास्तविकता से बहुत दूर हैं।
समुद्र कला, पृथ्वी कला, अंतरिक्ष कला और वायु कला से खाद्य और खनिज पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसी को वर्धन करने के लिए अर्थात इसमें वृद्धि करने के लिए कृष्ण जी ने प्रयास किया था। इसी से नाना प्रकार की वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं। अन्न उत्पन्न होता है ।खनिज उत्पन्न होता है। उसका जो प्राणी पान करता है। उसके ऊपर जो अनुसंधानकर्ता है, वह मानव इस पृथ्वी का, गौ का स्वामी बन जाता है ।उसके ऊपर उसका आधिपत्य हो जाता है। उसका वह नित्य प्रति वर्धन करता है, यही गोवर्धन है।
      अंततः निवेदन करना चाहूंगा कि गोवर्धन पर्वत को अंगुली पर उठाना, राधा नामक काल्पनिक औरत के प्रेम प्रसंग में ही रत रहना, गोपियों के पीछे दौड़ना ऐसा लांछन कृष्ण जी पर ना लगाएं। उनके वास्तविक गुणों को समझने का प्रयास करें। सारी इंद्रियों को अपने वश में कर लेना और ग्यारहवें मन को अपने वश में कर लेना ही इस संसार रूपी पहाड़ को उठा लेना होता है। इसको वास्तविक स्वरूप में समझने का ज्ञानी पुरुष प्रयास करें ।इसी ज्ञान को आगे बढ़ाने का भी प्रयास करें। पाखंड और झूठ का नाश करें। जिससे कि हम कृष्ण जी महाराज के वास्तविक गुणों से जानकार हो सके।
धन्यवाद।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र
ग्रेटर नोएडा

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