भारत का वास्तविक राष्ट्रपिता कौन ? श्रीराम या ……. जीवन शक्ति का करो सदुपयोग
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा भगवान श्रीराम, अध्याय – 5
अब रामचंद्र जी पंचवटी की ओर चल पड़ते हैं, जहां जटायु से उनकी मुलाकात होती है। जटायु कोई पक्षी नहीं था, बल्कि यह एक मनुष्य था , जो कि राजा दशरथ का मित्र था। वह श्रीराम और लक्ष्मण जी और सीता जी से वैसा ही स्नेह रखता था जैसा दशरथ रखते थे। इसका कारण केवल यह है कि कृतज्ञता भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार है। मित्र जहां स्वयं एक दूसरे के साथ स्नेह भाव से बंधे रहते हैं, वहीं भारतीय संस्कृति में मित्र मित्र की संतान से अपनी ही संतान जैसा स्नेह रखने के प्रति सदैव प्रतिज्ञाबद्ध रहता है। भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक वांग्मय में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब किसी एक मित्र ने मित्र की संतान के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया या समय आने पर मित्र की संतान को यह आभास कराया कि यदि आज उसके पिता नहीं हैं तो वह स्वयं पिता के सभी दायित्व निभाने के लिए तत्पर है।
पिता जैसा ही समझ मुझको प्रिय तात।
जीवन के हर मोड़ पर मैं हूं तेरे साथ ।।
जटायु के विषय में यह भी समझ लेना चाहिए कि उससे श्री राम और लक्ष्मण जी की पहली मुलाकात सीता हरण से पहले ही हो गई थी। सीता हरण के समय जब सीता जी की दृष्टि जटायु पर पड़ी थी तो उन्होंने जटायु को पहचानकर ‘आर्य जटायु’ का संबोधन किया था। यह तभी संभव था जब वह जटायु को पहले से जानती होंगी। दूसरे ‘आर्य जटायु’ कहने से यह भी स्पष्ट होता है कि जटायु एक मानव ही थे।
जब श्री राम जटायु के पास पहुंचे तो जटायु ने भी उन्हें उस वन के विषय में यही बताया कि यहां बहुत सारे राक्षस रहते हैं । यदि कभी कोई ऐसी परिस्थिति बनी कि तुम लक्ष्मण सहित आश्रम से कहीं दूर चले जाओगे तो उस परिस्थिति में मैं सीता की रक्षा किया करूंगा। जटायु के इस कथन से पता चलता है कि उस समय राक्षसों का ऋषि समाज में बहुत अधिक भय व्याप्त था।
वाल्मीकि कृत रामायण में यह बात भी स्पष्ट की गई है कि यहां से श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीता जी के साथ जटायु भी हो लिए थे। पंचवटी के लिए श्री राम जटायु को साथ लेकर गए थे।
‘अरण्य कांड’ के एकादश सर्ग के छठे श्लोक में बड़ी पते की बात कही गई है। वहां नवसस्येष्टि पर्व अर्थात दीपावली के विषय में जानकारी देते हुए कहा गया है कि इस समय सज्जन लोग नवसस्येष्टि यज्ञ पूर्वक देव अर्थात विद्वान मित्र अर्थात माता-पिता और संबंधियों का नवान्न से सत्कार करके निष्पाप हो गए हैं। इससे पता चलता है कि श्री रामचंद्र जी के समय से पहले से ही दीपावली का पर्व भारतवर्ष में मनाया जाता रहा है। इस पर्व का रामचंद्र जी के श्रीलंका विजय के पश्चात अयोध्या लौटने से कोई संबंध नहीं है।
मर्यादा पुरुषोत्तम का अनुकरणीय चरित्र
अब आते हैं हम श्रीराम के अनुकरणीय चरित्र के उस उज्जवल पक्ष पर जिसके चलते वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उन्होंने पर नारी की ओर देखना तक अच्छा नहीं समझा । रामचंद्र जी ने अपने पिता दशरथ के घर में तीन पत्नियों के होने से होने वाले कलह को बड़ी निकटता से देखा था। यही कारण था कि श्री राम अपने लिए भी यह नहीं चाहते थे कि सीता से अलग वह कोई और पत्नी लेकर आएं। उन्होंने भारत के वर्तमान तथाकथित राष्ट्रपिता की तरह ‘सत्य के साथ’ किसी प्रकार के ‘प्रयोग’ भी नहीं किए और ना ही ब्रह्मचर्य का झूठा नाटक किया। क्योंकि उन्हें झूठ और फरेब के आधार पर ‘राष्ट्रपिता’ नहीं बनना था।
रामचंद्र जी के विषय में यह भी जानने योग्य तथ्य है कि जब तक वह वन में रहे तब तक उन्हें कोई संतान की प्राप्ति नहीं हुई। इसका अभिप्राय है कि वहां पर वह दोनों पति – पत्नी भाई – बहन के रूप में रहे। जो लोग यह कहते हैं कि रामचंद्र जी के भाई लक्ष्मणजी का बहुत बड़ा त्याग था कि उन्होंने अपनी पत्नी उर्मिला को अयोध्या में छोड़ दिया था और स्वयं भाई की सेवा में चले गए थे। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि लक्ष्मण के साथ तो उनकी पत्नी नहीं थी, इसलिए उनका ब्रह्मचर्य पूर्वक संयम के साथ रहना समझ में आ सकता है परंतु रामचंद्र जी के साथ तो उनकी अपनी पत्नी सीताजी थीं। इसके उपरांत भी उन दोनों ने संयम बरता और ‘सत्य के साथ’ किसी प्रकार की न तो छेड़छाड़ की और ना कोई ‘प्रयोग’ किया। इसका अभिप्राय है कि रामचंद्र जी ब्रह्मचर्य व्रत के पक्के थे। यही कारण है कि उनके भीतर गहरा धैर्य, संयम और शत्रु का सामना करने का असीम साहस विद्यमान था।
रामचंद्र जी की मर्यादा और धर्म के प्रति लग्नशीलता स्वतंत्र भारत में राजनीति और राजनीतिक लोगों के लिए आदर्श आचार संहिता के रूप में काम करती तो क्या ही अच्छा होता ?
जिन लोगों ने रामचंद्र जी के अस्तित्व को नकारने का शपथ पत्र देश के सर्वोच्च न्यायालय में दिया, उन लोगों की इसी प्रकार की भारत विरोधी भावना के कारण रामचंद्र जी का आदर्श चरित्र भारतीय राजनीतिज्ञों के लिए आदर्श नहीं बन पाया। यह अलग बात है कि भारतीय राजनीतिक लोगों से अलग भारत की जनता आज भी श्रीराम को एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में पूजती है।
ब्रह्मचर्य व्रत की भारत की परंपरा
हमारे ऋषि पूर्वजों ने ब्रह्मचर्य से नियम को जीवन के लिए बहुत आवश्यक समझा। इसके अनेकों प्रकार के लाभ देखकर जीवन भर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले अनेकों ऋषि भारत में हुए हैं। हमारे पूर्वजों ने ब्रह्मचर्य व्रत को निभाना जीवन को उन्नत बनाने के दृष्टिकोण से आवश्यक समझा । जबकि भारत के वर्तमान तथाकथित राष्ट्रपिता ब्रह्मचर्य के प्रयोग करने में लगे रहे और उन प्रयोगों में भी जिस प्रकार की अश्लीलता उन्होंने दिखाई उसे देखकर तो उनके मित्र भी उन पर थूकने लगते थे । भारत के प्राचीन ऋषियों की ब्रह्मचर्य साधना अपने आप में अनूठी थी :-
“ब्रह्म का अनुरागी बन
जो ब्रह्म में विचरण करे ।
आहार जिसका ब्रह्म हो,
उसे ब्रह्म निज शरण धरे।।
जो ब्रह्मवेत्ता बन धरा पर ,
ब्रह्म शक्ति का संचय करें ।
ऐसा वीर व्रत धारी धरा से,
पापांत एक दिन निश्चय करे।।”
रामचंद्र जी के सामने यदि उस समय की राक्षस जाति के लोग किसी ऐसी जेल का प्रस्ताव रखते जहां उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध होतीं, जिसके बदले में वे अपने राष्ट्रवासियों और ऋषिमंडल की प्राण रक्षा के लिए संघर्ष करना छोड़ देते तो वह ऐसा प्रस्ताव कदापि स्वीकार नहीं करते। उन्हें राक्षसों की जेल के बादाम खाने अच्छे नहीं लगते बल्कि ऋषि मंडल के कंदमूल ही पसंद आते।
ऐसे श्रीराम ने शूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को जिस विनम्रता से ठुकराया था , उस पर चर्चा करना भी उचित है। रावण की बहन शूपर्णखा जब प्रेमासक्त होकर रामचंद्र जी के पास आयी तो उसने श्रीराम का परिचय पूछा । रामचंद्र जी ने अपना पूर्ण परिचय देकर फिर उस राक्षसी का परिचय पूछा तो उसने बताया कि राक्षसों का राजा महापराक्रमी अत्यंत बलवान विश्रवा मुनि का पुत्र रावण मेरा भाई है। मेरे एक भाई का नाम कुंभकर्ण है, जो बहुत अधिक सोता है। वह बहुत बड़ा बलवान है। मेरे एक भाई का नाम विभीषण है, जो कि बहुत बड़ा धर्मात्मा है।
संग्राम में प्रसिद्ध पराक्रम वाले खर और दूषण नाम के मेरे दो भाई और हैं ।
हे राम ! तुम्हारे प्रथम दर्शन से ही मैं तुम पर आसक्त हो उन सबकी कुछ परवाह न कर तुम जैसे उत्तम पुरुष को अपना पति बनाने के लिए यहां आई हूं। अतः आप चिरकाल के लिए मेरे पति बनो, तुम सीता को लेकर क्या करोगे?
क्यों ठुकराया शूर्पणखा का विवाह प्रस्ताव?
इस प्रकार शूर्पणखा ने अपने परिवार के उन सभी पराक्रमी लोगों का परिचय रामचंद्र जी को दे दिया जो उस समय राक्षस जाति के बहुत बड़े नाम थे। रामचंद्र जी के लिए यह संभव नहीं था कि वह उन राक्षसों के नामों से परिचित ना हों। ऐसे में रामचंद्र जी यह भी भली प्रकार जानते थे कि यदि किसी कारण इस राक्षस कुल से विवाह संबंध स्थापित कर लिया गया तो उनका राक्षसविहीन भूमंडल करने का संकल्प अधूरा रह जाएगा । रामचंद्र जी यह भी भली प्रकार जानते थे कि यदि उन्होंने शूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार कर राक्षसों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए तो इससे ऋषिमंडल में भी उनके नाम की अपकीर्ति होगी। इसलिए उन्होंने बड़ी विनम्रता से शूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कि हे देवी ! मैं तो विवाहित हूं और यह मेरी पत्नी सीता मुझे अत्यंत प्रिय भी है तुम्हारी जैसी स्त्री के लिए सोच का होना बड़ा दुखदायी होगा।
रामचंद्र जी ने शूपर्णखा का विवाह प्रस्ताव अस्वीकार कर उससे यह भी कह दिया कि यदि आप उचित समझें तो यह मेरा भाई लक्ष्मण है इससे विवाह के लिए पूछ सकती हो । परंतु यह क्या ? लक्ष्मण जी ने भी शूर्पणखा को निराश ही किया और उससे कह दिया कि मेरे द्वारा आपकी प्रेम वासना की पूर्ति किया जाना संभव नहीं है।
गांधी जी का चरित्र
अब एक ओर तो हमारे रामचंद्र जी का यह आदर्श चरित्र है और दूसरी ओर गांधी जी का वह चरित्र है जिसे लिखने में लेखनी को भी शर्म आती है। अब यह सबको पता हो गया है कि उनके जीवन में अनेकों महिला मित्रों ने डेरा डाला। जिनके साथ वे कस्तूरबा गांधी के विरोध और क्रोध के उपरांत भी रंगरलियां करते रहे।
“इस देश को आजाद कराने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी के विषय में गिरजा कुमार ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी और उनकी महिला
मित्र’ में जिस प्रकार गांधीजी के कथित ब्रह्मचर्य का वर्णन किया है, उसे पढ़कर गांधीजी के विषय में आपकी धारणा का भवन पल भर में भूमिसात हो सकता है। नेहरू जी गांधीजी के उत्तराधिकारी थे। गांधीजी अपने विचारों से बहुत दूर रहने वाले सरदार पटेल को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी क्यों नही बना पाए या क्यों नही बनाना चाहते थे, यह भी उस पुस्तक के पढऩे से स्वत: स्पष्ट हो जाएगा।”
गिरिजा कुमार ने गहन अध्ययन और गांधी से जुड़े दस्तावेज़ों के रिसर्च के बाद 2006 में “ब्रह्मचर्य गांधी ऐंड हिज़ वीमेन असोसिएट्स” में डेढ़ दर्जन महिलाओं का ब्यौरा दिया है। जो उनके ब्रह्मचर्य में सहयोगी थीं और गांधी के साथ निर्वस्त्र सोती-नहाती और उन्हें मसाज़ करती थीं। इनमें मनु, आभा गांधी, आभा की बहन बीना पटेल, सुशीला नायर, प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), राजकुमारी अमृतकौर, बीवी अमुतुसलाम, लीलावती आसर, प्रेमाबहन कंटक, मिली ग्राहम पोलक, कंचन शाह, रेहाना तैयबजी शामिल हैं। प्रभावती ने तो आश्रम में रहने के लिए पति जेपी को ही छोड़ दिया था। इससे जेपी का गांधी से ख़ासा विवाद हो गया था। (साभार)
निश्चित रूप से भारत ऐसे चरित्रहीन लोगों को अपना नायक नहीं मान सकता जो ब्रह्मचर्य नाश की शिक्षा देते हैं,या जिनका जीवन व्यभिचार से भरा हुआ हो। हमारे नायक या राष्ट्रपिता श्री राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम ही हो सकते हैं जिन्होंने अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी अपने मर्यादित आचरण का परिचय देकर हमारे लिए अनुकरणीय आदर्श स्थापित किए।
शूर्पणखा की नाक काटने का रहस्य
रामचंद्र जी के पिता दशरथ का राज्य उस समय बहुत छोटे से क्षेत्र पर था। जबकि रावण का राज्य उस समय विशाल भूमंडल पर फैला हुआ था । छोटे से राज्य के राजकुमार श्री राम और उनके भाई लक्ष्मण के द्वारा शूर्पणखा के विवाह प्रस्ताव को नकारने को ही उसके भाई रावण ने अपनी नाक कटी हुई समझ लिया था। जहां कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है वहीं पर वाल्मीकि रामायण में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि रामचंद्र जी ने अपने भाई लक्ष्मण से यह स्पष्ट कह दिया था कि इस महिला का अंग भंग करके तुम इसे और भी कुरूप बना दो। तब लक्ष्मण ने क्रुद्ध होकर म्यान से तलवार निकालकर श्रीराम के देखते-देखते उस राक्षसी के नाक और कान काट डाले।
श्री राम जी ने शूर्पणखा के नाक कान काटने का आदेश देकर क्या कोई अनुचित कार्य किया था ? या यह कार्य शास्त्र संगत था ? इसका उत्तर स्वामी जगदीश्वरानंद जी ने वाल्मीकीय रामायण के अपने भाष्य में पृष्ठ संख्या 233 पर याज्ञवल्क्य स्मृति ( 2- 289 ) का उल्लेख करते हुए दिया है । जिसमें कहा गया है कि यदि स्त्री पुरुष एक दूसरे की इच्छा के बिना धींगामस्ती से स्व वर्ण में विवाह करना चाहें तो उन्हें उत्तम दंड अर्थात कठोरतम दंड देना चाहिए। यदि वह अपने से हीन वर्ण में अनुलोम विवाह करना चाहें तो मध्यम दंड और यदि अपने से उच्च वर्ण में प्रतिलोम विवाह करना चाहें तो पुरुष को वध दंड देना चाहिए और स्त्री के नाक कान काट लेने चाहिए।
शूर्पणखा विधवा थी और पुलस्त्यवंशी रावण की बहन थी। वह शास्त्र मर्यादा के विरुद्ध क्षत्रिय राम से प्रतिलोम विवाह करना चाहती थी। अतः श्रीराम ने उसे जो दंड दिया वह सर्वथा उचित ही था।
राम मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए हैं कि वह शास्त्रों की मर्यादा का पालन करना अपना धर्म समझते थे ।कई बार ऐसा भी होता है कि शास्त्र मर्यादा और लोक मर्यादा कुछ अलग अलग संकेत करती हुई देखी जाती हैं। जैसे कि उस समय लोक मर्यादा तो यह भी थी कि वह अपने पिता का अनुकरण करते हुए तीन शादियां कर लेते, लेकिन उन्होंने पिता द्वारा स्थापित लोक मर्यादा या लोक परंपरा का निर्वाह न करते हुए शास्त्र मर्यादा का पालन किया। क्योंकि लोक मर्यादा कई बार स्वार्थवश भी अपनाई जा सकती है या स्थापित की जा सकती है, जबकि शास्त्र मर्यादा के साथ ऐसा कोई स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता।
सत्य निस्वार्थ होता है और लोक कल्याण के लिए काम करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम वही हो सकता है जो सत्य का अनुयायी हो और लोक कल्याण को अपना जीवन ध्येय बनाकर चलता हो।
ज्ञान के अथाह सागर होने के बावजूद सदैव ऋषि-मुनियों के श्री मुख से धर्म, नीति पूर्ण उपदेश ग्रहण करते तथा धर्म नीति पूर्ण आचरण करते हुए उन्होंने दर्शाया कि ज्ञान अनंत है। उसे अर्जित करने की कोई सीमा नहीं होती तथा ज्ञान प्राप्ति तभी सार्थक होता है जब वह ज्ञान व्यक्तित्व का अंग बन जाए।
साध्वी कमल वैष्णव के मतानुसार राज्यारोहण के पश्चात उन्होंने जो सर्वोत्तम शासन व्यवस्था; अर्थ नीति, धर्म नीति, समाज नीति तथा राजनीति की मर्यादा स्थापित की उन सबके समूह का नाम ही ‘रामराज्य’ है। उन्होंने व्यष्टि तथा समष्टि दोनों के लिए ही रची हुई मर्यादाओं का अपने जीवन में तथा राज्य के द्वारा भली-भांति परिपालन किया ।
रामराज्य का स्वरूप राम राज्य में सभी वर्गों के समस्त नर-नारी सच्चरित्र, वर्णाश्रम धर्म परिपालन तथा सब कर्तव्य निष्ठ थे। कर्तव्य का मानदंड अपनी इच्छा मात्र नहीं था। वह वेद मार्ग को अर्थात वेदों की आज्ञानुसार और शास्त्र वचनों को मानदंड मानकर जीवन-यापन करते थे। इसके फलस्वरूप रोग, शोक तथा भय की प्राप्ति उनको नहीं होती थी। सभी धर्म-परायण थे तथा काम, क्रोध, लोभ, मद आदि से सर्वथा दूर रहते थे, कोई किसी से वैर नहीं करता था। वैर के अभाव में प्रेम स्वाभाविक ही है। सभी गुणों से गुण संपन्न, पुण्यात्मा, ज्ञानी और चतुर थे पर उनकी चतुरता भजन में, ज्ञान में थी। परदारा परधन अपहरण में नहीं। सभी मर्यादित जीवन में आस्था रखने वाले थे।”
उनकी शासन व्यवस्था के ये सूत्र अथवा मानदंड ही भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार हैं।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति