‘कोऊ नृप होई हमें का हानि’ और राज्यसभा
पूर्व राष्ट्रपति कलाम चले गये, ‘मुंबई बम कांड’ के दोषी याकूब मेमन को भी फांसी हो गयी। बहुत सा पानी यमुना के पुल के नीचे से बह गया। पर हमारी संसद में राजनीतिक दलों की राजनीति हठ किये हुए वहीं खड़ी है, जहां सत्रारम्भ में 21 जुलाई को खड़ी थी। सचमुच ऐसी स्थिति पूरे देश के लिए और संसदीय लोकतंत्र के लिए चिंतन और चिंता का विषय है।
‘भूमि विधेयक’ को पास कराना जहां सरकार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है वहीं विपक्ष ने भी मान लिया है कि चाहे जो हो जाए पर सरकार को ‘भूमि विधेयक’ पारित नही करने देना है। विपक्ष राज्यसभा में मजबूत है और अपनी इसी मजबूती के दृष्टिगत वह सरकार को ‘नाकों चने चबाने’ के लिए विवश करना चाहता है।
ऐसे में विचारणीय है कि ‘संसद’ में राज्यसभा की स्थिति पर विचार किया जाए। हमारे देश में राज्यसभा प्राचीनकाल से रही है। शतपथ ब्राह्मण में इसे ‘राजन्य: परिषद’ कहा गया है। इस सदन में राज परिवार के वरिष्ठ और सम्मानित लोग तो रहते ही थे, साथ ही देश की विभिन्न प्रतिभाओं को भी राजा लोग राज्य के सफल संचालन में उनके अनुभवों और ज्ञान का लाभ लेने के लिए मनोनीत किया करते थे। इसी परंपरा को अंग्रेजों ने अपनी पार्लियामेंट के ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ में यथावत जारी रखा। जिन लोगों को भारत के इतिहास का ज्ञान नही रहा, या ज्ञान होते हुए भी जिन्होंने भारत को हेयदृष्टि से ही देखा उन्होंने ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ की नकल पर ही भारत में राज्यसभा की स्थापना की मिथ्या अवधारणा स्थापित कर दी।
राज्यसभा को ‘उच्च सदन’ कहने का एक कारण यह भी है कि इसमें ज्ञानवृद्घ और अनुभवशील लोगों को ही भेजे जाने की व्यवस्था रही है। हमारे देश के संविधान निर्मात्ताओं की मान्यता थी कि राज्यसभा में ऐसे लोग जायें जो राजनीतिक मतभेदों में फंसी लोकसभा को समय-समय पर सत्यपरामर्श दे सकें और किसी भी गतिरोध की स्थिति में उसका समुचित मार्ग दर्शन भी कर सकें। परंतु व्यवहार में राज्यसभा का भी दलीयकरण और राजनीतिकरण हो गया। इसमें नेता विशेष की चाटुकारिता करने वाले और दलीय भावना से ग्रसित लोग भेजे जाने लगे। फलस्वरूप राज्यसभा का कार्य हो गया-‘अडंगा डालना’। यदि लोकसभा में किसी एक दल का बहुमत है और राज्यसभा में किसी दूसरे दल की या गठबंधन की स्थिति दृढ़ है तो राज्यसभा को भी दलीय राजनीति करने का अच्छा शस्त्र मान लिया जाता है।
वर्तमान में मोदी सरकार के साथ ऐसी ही स्थिति है, उसका लोकसभा में तो स्पष्ट बहुमत है परंतु राज्यसभा में नही है। इसलिए कांग्रेस और उसके सहयोगी विपक्षी दल राज्यसभा में अपनी सुदृढ़ स्थिति का लाभ लेते हुए सरकार के लिए कठिन परिस्थितियां उत्पन्न करना चाहते हैं।
अब मोदी सरकार के समक्ष उपाय क्या है, जिससे वह इस कठिन परीक्षा से निकल जाए? इसके लिए मोदी सरकार को उसके लोग संसद के संयुक्त सत्र को आहूत करने की सलाह भी दे रहे हैं। उस स्थिति में भी संसद के कुल 788 सदस्यों में राजग के 395 सदस्य तथा संप्रग और अन्य दलों के 393 सदस्य होंगे। कहने का अभिप्राय है कि ऐसी स्थिति में भी राजग को अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए कड़ा संघर्ष करना होगा और बिना संप्रग में सेंध लगाये उसकी गोटी तब भी नही निकल पाएगी। वैसे हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1950 से आज तक केवल तीन बार ऐसे अवसर आये हैं जब संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाया गया है। पहला अवसर था 9 मई 1961 को दहेज निरोधक अधिनियम पर चर्चा कराने का, दूसरा अवसर था 16 मई 1978 को बैंकिंग सेवा आयोग निरस्तीकरण अधिनियम पर चर्चा कराने का और तीसरा अवसर रहा 26 मार्च 2002 को ‘पोटा’ पर चर्चा कराने का। 68 वर्ष के संसदीय इतिहास में केवल तीन बार संसद के संयुक्त अधिवेशन की स्थिति आने का एक कारण यह भी है कि ऐसी असहज स्थिति से सरकारें बचने का प्रयास करती हैं।
वैसे यह राज्यसभा के ही हित में है कि वह स्वयं को राजनीति का अखाड़ा न बनाये। जब राजनीति अपनी विकृतियों और विसंगतियों से राज्यसभा के चेहरे का विद्रूपीकरण कर देगी तो समय ऐसा भी आ सकता है कि लोकसभा इस सदन के अस्तित्व को मिटाने के लिए कभी देश की ‘लोकसंसद’ अर्थात जनता जनार्दन से ही निर्णय करा ले। जैसा कि ब्रिटेन में एक बार 1910 ई. में हो भी चुका है।
क्रमशः