लगता है सरिता ढूंढ़ती है, सागर भी उन्हें पुकारता है।
ये समीर में सरगम सांसों की, जिन्हें क्रूर काल डकारता है।
वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं, जलवाष्प से शबनम बनती है।
किंतु है संदेह मुझे, प्रकृति कहीं सिर धुनती है।
लूट लिया श्रंगार काल ने, जिस पर उसको रोष।
मैं कहता हूं प्रकृति के आंसू, तुम कहते हो ओस।
कौतूहल से नित्य निखरता, प्रकृति के नयन तरल।
जीवन बदल रहा पल-पल,
सोचता हूं ईश मेरे, तेरी सृष्टि का सार क्या?
चांद तारों से परे, और क्षितिज से पार क्या?
सागर की ऊंची लहरों का, अंतिम है विस्तार क्या?