अरविंद जयतिलक
पिछले एक सप्ताह से जिस तरह विपक्ष गैर लोकतांत्रिक तरीके का प्रदर्शन कर संसद न चलने देने की जिद पर अड़ा हुआ है यह उसके असंसदीय आचरण का ही बोध कराता है। समझना कठिन है कि जब सरकार संसद में हर मसले पर चर्चा को तैयार है तो विपक्ष देशहित में संजीदगी न दिखाकर किस्म-किस्म के कुतर्क क्यों गढ़ रहा है? विपक्ष की इस दलील से देश हैरान है कि सरकार पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा मध्यप्रदेश व राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बलि ले तब वह संसद को चलने देगा। संसद को बंधक बनाए रखने की अगुवाई कर रही कांग्रेस से उम्मीद थी कि वह आमचुनाव में करारी शिकस्त के बाद सकारात्मक भूमिका का निर्वहन कर एक जिम्मेदार विपक्ष की कसौटी पर खरा उतरेगी। लेकिन उसके रुख से साफ है कि वह अभी भी एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका के लिए तैयार नहीं है। अन्यथा उसके सिपहसालार यह भोथरी दलील नहीं देते कि चूंकि मनमोहन सरकार के समय विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी इसी तरह के आचरण का प्रदर्शन किया था इसलिए उसे भी यह हक बनता है। लेकिन यह दलील उचित नहीं है। गौर करें तो दोनों परिस्थितियां भिन्न हैं। अगर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले मामले में भारतीय जनता पार्टी ने मनमोहन सरकार की घेराबंदी कर संसद को नहीं चलने दिया तो इसके लिए भाजपा कम तत्कालीन सरकार ज्यादा जिम्मेदार थी। अगर मनमोहन सरकार कैग की रपट सामने आने के बाद संयुक्त संसदीय समिति से जांच के लिए तैयार हो जाती तो संसद ठप नहीं होता। लेकिन देखा गया कि सरकार के मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक सभी ने एक सुर में ए राजा को निर्दोष बताया और काबिल मंत्रियों की फौज ने स्पेक्ट्रम आवंटन में जीरो लॉस की बात कही। रही बात मनमोहन सरकार के कानून मंत्री अश्विनी कुमार के इस्तीफे की तो याद रखना होगा कि कोयला घोटाले की सीबीआइ जांच की प्रारंभिक रपट में छेड़छाड़ होने की पुष्टि स्वयं उच्चतम न्यायालय ने किया। ऐसे में विपक्ष की जिम्मेदारी बनती थी कि वह ऐसे कानूनमंत्री को पद से हटाने के लिए सरकार पर दबाव बनाए। अगर मनमोहन सरकार अपने कानून मंत्री से शीध्र ही इस्तीफा ले ली होती तो संसद का कामकाज प्रभावित नहीं होता। लेकिन देखा गया कि तत्कालीन सरकार अपनी जिद का परित्याग करने को तैयार नहीं थी। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि आज जब वह विपक्ष में है तब भी उसका आचरण नकारात्मक ही है। शायद वह मान बैठी है कि संसद को बंधक बनाने से सरकार की लोकप्रियता घटेगी। लेकिन वह कदाचित भूल कर रही है कि उसके इस रवैए से देश गुस्से में है और खुद उसकी ही साख पर बन आयी है। देश जानना चाहता है कि कांग्रेस पार्टी संसद में बहस से बच क्यों रही है? वह भी तब जब खुद सुषमा स्वराज बहस को तैयार हैं। क्या उचित नहीं होता कि कांग्रेस संसद को बाधित और देश को गुमराह करने के बजाए अपनी बात लोकतांत्रिक तरीके से संसद में उठाती। निश्चित रुप से तब उसकी भूमिका अधिक प्रभावी व प्रासंगिक होती। लेकिन वह ऐसा न कर साबित कर रही है कि वह सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रही है। दरअसल उसे पता है कि सुषमा स्वराज के मसले पर वामपंथियों के अलावा उसे अन्य राजनीतिक दलों का समर्थन नहीं मिलने वाला। सच्चाई तो यह है कि इन दोनों दलों के अलावा कोई भी दल सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग नहीं कर रहा है। ऐसे में कांग्रेस को भान है कि संसद में बहस से इस मसले पर उसकी आक्रामकता को धार नहीं मिलने वाला। यही वजह है कि वह संसद में बहस के बजाए संसद को बाधित कर रही है। लेकिन उसके लिए बेहतर होगा कि इस मसले पर अपनी उर्जा क्षय करने के बजाए संजीदगी भरे आचरण का प्रदर्शन कर संसद में कामकाज का माहौल निर्मित करने में सहयोग दे। रही बात मध्यप्रदेश व राजस्थान के मुख्यमंत्रियों से जुड़े मसलों को तूल देने की तो इस पर संसद में बहस नहीं हो सकती। इसलिए कि ये राज्य से जुड़े मसले हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी कि जिस व्यापम घोटाले को लेकर कांग्रेस शिवराज सिंह चैहान के इस्तीफे की मांग कर संसद में कामकाज नहीं होने दे रही है, उस मामले की जांच सीबीआइ कर रही है। चूंकि कांग्रेस प्रारंभ से ही इस मसले की जांच की मांग सीबीआइ से कर रही थी ऐसे में उचित होगा कि अब वह इस मामले पर अनावश्यक वितंडा खड़ा न करे। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे मामले में जिस तरह कांग्रेस ने धौलपुर महल पर ओछी सियासत कर अप्रमाणिक दस्तावेजों का सहारा लिया वह उल्टे उस पर ही भारी पड़ा। आइने की तरह साफ हो चुका है कि धौलपुर महल बसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह का ही है। लेकिन आश्चर्य कि इसके बावजूद भी कांग्रेस शर्मिंदा नहीं है और जानबुझकर संसद को बाधित करने की जिद पर अड़ी हुई है? वह दलील दे रही है कि चूंकि भारतीय जनता पार्टी ने भी महाराष्ट्र से जुड़े आदर्श हाऊसिंग घोटाले मामले को संसद में उठाया था इसलिए उसे भी भाजपा शासित राज्यों से जुड़े मामलों को संसद में उठाने का हक है। लेकिन कांग्रेस को समझना चाहिए कि चूंकि आदर्श हाऊसिंग घोटाला मामला सेना से जुड़ा था और सेना राज्य का नहीं बल्कि केंद्र का विषय है इसलिए भाजपा ने इसे उठाया। यह उचित नहीं कि कांग्रेस उस मामले की तुलना मध्यप्रदेश और राजस्थान से जुड़े मामलों से करे। कांग्रेस और विपक्ष को नहीं भूलना चाहिए कि उसके द्वारा शासित राज्यों में भी भ्रष्टाचार से जुड़े ढेरों ऐसे मामले हैं जिन्हें तूल दिए जाने पर उसे भी शर्मिंदा होना पड़ सकता है। केरल का सोलर और बार रिश्वत घोटाला, गोवा और असम का जल परियोजना घोटाला, उत्तराखंड का बाढ़ घोटाला, कर्नाटक में किसानों की आत्महत्या और पश्चिम बंगाल का मानव तस्करी मामला जैसे बहुतेरे ऐसे मामले हैं जिन्हें सत्ता पक्ष उठाकर कांग्रेस और विपक्ष की मुश्किलें बढ़ा सकता है। लेकिन सवाल यह कि राज्य से जुड़े मामलों को उठाने से क्या एक गलत परंपरा की नींव नहीं पड़ेगी? क्या संसद का कामकाज बाधित नहीं होगा? पर आश्चर्य कि इस तथ्य से अवगत होने के बावजूद भी डेढ़ सौ साल पुरानी कांग्रेस पार्टी संसदीय गंभीरता को समझने को तैयार नहीं। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को संसदीय परंपरा और मूल्य का भान नहीं है। लेकिन शायद वह आमचुनाव में मिली करारी शिकस्त और विपक्ष को लामबंद न किए जाने की पीड़ा से बौखलायी हुई है इसीलिए वह संसद को ठप करने पर आमादा है। अचंभित करने वाली बात यह कि सत्ता में रहते हुए कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने जिस जीएसटी बिल को देश के लिए हितकर बताया था वह अब उसी बिल पर असहमति जता रही है। यही नहीं वह अपने मुख्यमंत्रियों द्वारा दिए गए सुझावों पर भी असहमति जता रही है।