ओ३म्
स्वभाव से मनुष्य सुख प्राप्ति का इच्छुक रहता है। वह नहीं चाहता कि उसके जीवन में कभी किसी भी प्रकार का दुःख आये। सुख प्राप्ति के लिये सद्कर्म व धर्म के कार्य करने होते हैं। अतः सत्कर्मों से युक्त प्राचीन वेदों पर आधारित वैदिक धर्म का पालन करते हुए मनुष्य अपने जीवन में सुखों की अभिव्यक्ति के लिये पर्वों को मनाते हैं। हमारे देश में मुख्य पर्व चार ही होते हैं। इन्हें श्रावणी या रक्षाबन्धन, विजयादशमी, प्रकाश पर्व दीपावली तथा होली के नाम से जानते हैं। हमारे देश में आदि काल से महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था रही है। प्राचीन ग्रन्थ मनुस्मृति में इसका उल्लेख मिलता है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित थी। वेदों तथा वैदिक साहित्य में सबको वेदों सहित ज्ञान विज्ञान को अर्जित करने का अधिकार था। शिक्षा सबके लिये पक्षपातरहित तथा अनिवार्य होती थी। वर्ण शिक्षा प्राप्ति के पश्चात किसी मनुष्य की योग्यता व उसके कार्यों वा व्यवसाय को प्रदर्शित करता था जिसका चुनाव मनुष्य स्वयं व उसकी योग्यता के आधार पर उसके आचार्य करते थे।
समाज में चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होते थे। ब्राह्मण का कार्य ज्ञान व विज्ञान की उन्नति सहित वेदों का पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना व लेना होता था। हमारे सभी ऋषि मुनि, योग साधक तथा उपाध्याय व अध्यापक ब्राह्मण कहलाते थे। वैदिक काल में जन्मना जाति व्यवस्था का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। रामायण एवं महाभारत हमारे प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के इतिहास ग्रन्थ हैं। इनमें कहीं जन्मना जातिवाद की गन्ध भी नहीं है। यह भी सत्य है कि इन रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में मध्यकाल के आचार्यों ने अपनी वेद विरोधी मान्यताओं व परम्पराओं को मानने व मनवाने के लिये प्रक्षेप किये जिससे लोगों में भ्रान्तियां उत्पन्न हुईं। इसके प्रभाव से समाज में विकृतियां आईं परन्तु मूल वेद और वैदिक साहित्य कभी किसी प्रकार की ज्ञान विरुद्ध परम्परा के पोषक नहीं रहे। वेदों में शुद्ध ज्ञान है जिसका पालन करना सब मनुष्यों का धर्म होता है और यह पूर्णतया पक्षपातरहित होने से इसमें किसी भी मनुष्य को किसी भी प्रकार की शंका एवं विरोध न होकर सन्तोष ही होता है। वैदिक वर्णव्यवस्था में सबको समान रूप से उन्नति के अवसर मिला करते थे। ब्राह्मण वेदों के ज्ञानी होते थे और समाज का उपकार करने के लिये इतर तीन वर्णों को शिक्षित करते व उन्हें उनके जीवन में उपस्थित क्षमताओं को विकसित करके उन्हें समाज के लिये लाभकारी बनाते थे। ब्राह्मण श्रावणी पर्व को मनाते हैं जिसके केन्द्र में ज्ञान व विज्ञान के विस्तार की भावना को केन्द्रित किया जाता था। यह पर्व सभी गुरुकुलों के ब्रह्मचारी अपने आचार्यों तथा समाज में पुरोहित वर्ग मनाता था जिसमें अन्य सभी वर्णों का सहयोग रहता था।
ब्राह्मण वर्ण से इतर क्षत्रिय विजयादशमी पर्व को मनाते थे जिसमें देश व समाज की रक्षा के विषयों में रखकर कार्यक्रमों को आयोजित किया जाता था। इसी प्रकार से वैश्य जिसमें व्यापारी, कृषक तथा गोपालक आदि आते हैं, दीपावली का पर्व मनाते थे। वैदिक काल में सभी पर्वों को मनाते हुए परिवारों में अग्निहोत्र यज्ञ किये जाते थे और मिष्ठान्न बनाकर उसका वितरण किया जाता था। सामाजिक उन्नति के अनेक कार्य किये जाते थे। लोग आपस में मिलते थे, शुभकामनाओं का आदान प्रदान करते थे और एक दूसरे से मिलकर परस्पर कुशल क्षेम पूछते थे। इन पर्वों को मनाने में किसी भी प्रकार के अन्धविश्वासों व सामाजिक कुरीतियों का कोई स्थान नहीं होता था। सभी परम्परायें ज्ञान पर आधारित होती थी जिससे समाज में सुख का वातावरण उत्पन्न होता था। दीपावली पर्व कार्तिक अमावस्या पर मनाया जाता था। इस अवसर लोग अपने घरों पर चावल की नई फसल से उत्पन्न खील को बना कर यज्ञों में गोघृत के साथ मिलाकर इसकी आहुतियां देते थे तथा उसका भक्षण करते व परस्पर वितरण आदि की परम्परा भी रही है। इससे समाज में एकरसता उत्पन्न होती थी। दीपावली के अवसर पर ग्राम व नगर सभी स्थानों के लोग अपने घरों की लिपाई व पुताई, रंग-रोगन आदि करके स्वच्छ करते थे। नये वस़्त्रों को धारण करते थे। आगे शीतकाल से बचाव के उपयों पर विचार करते थे और घरों में प्रसन्नता के चिन्ह रंगोली आदि बना कर प्रसन्न होते थे। रात्रि को अपने अपने घरों में सभी स्थानों पर दीपक जलाकर प्रकाश किया जाता था। दीपावली के अवसर पर यज्ञ करना एवं प्रकाश करने के लिए दीप जलाना तो उचित होता है परन्तु पटाखें जलाना उचित नहीं होता। इसका कारण यह है कि इससे हमारी वायु जिसे हम अपने शरीर व फेफड़ों में श्वांस लेकर भरते हैं तथा जिससे हमारा रक्त शुद्ध होता है और हम स्वस्थ रहते हैं, वह प्राणवायु प्रदुषित होकर हमारे स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद हो जाती है। अतः जहां तक हो सके पटाखों को जलाने सहित ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये जिससे कि वायु व जल आदि में प्रदुषण हो। दीपावली का पर्व उत्साह व उमंग से अपने घरों को स्वच्छ करके, यज्ञ का अनुष्ठान करके तथा रात्रि में दीपक जला कर मनाना चाहिये। मिष्ठान्न का अपने मित्रों व सभी पड़ोसियों में वितरण करना चाहिये। यही दीपावली मनाने का उचित तरीका है। वैश्य व वाणिज्य से जुड़े लोग इस दिन अपने व्यवसाय के विषय में विचार कर हानि, लाभ तथा उसके विस्तार पर विचार कर सकते हैं।
दीपावली के ही दिन वैदिक धर्म, संस्कृति तथा ईश्वरीय ज्ञान वेद के पुनरुद्धारक, समाज सुधारक, देश को स्वदेशी राज अर्थात् आजादी के मन्त्रदाता, शिक्षा व ज्ञान के विस्तार के प्रणेता, अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प व इसके लिये अहर्निश कार्य करने वाले ऋषि दयानन्द का मोक्ष व निर्वाण दिवस है। इसे ‘महा-प्रस्थान’ दिवस भी कहा जाता है। इससे पूर्व ऋषि दयानन्द जैसे किसी विदित ऋषि या महापुरुष ने न तो उनके जैसे कार्य किये और न ही उनकी तरह से अपने देह का त्याग किया। उन्होंने देहत्याग करते हुए कहा था कि ‘हे ईश्वर! तुने अच्छी लीला की, तेरी इच्छा पूर्ण हों।’ किसी मनुष्य के ईश्वर विश्वास का यह अपूर्व उदाहरण है। इसके बाद तो ऋषि के अनेक अनुयायियों ने अपने मृत्यु समय ईश्वर को स्मरण करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने प्राणों का त्याग किया।
ऋषि दयानन्द के आविर्भाव के समय देश परतन्त्र होने सहित धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। विद्या व शिक्षा का समाज में उचित प्रचार नहीं था। अन्धविश्वासों, कुरीतियों की भरमार थी। जन्मना जातिवाद ने मनुष्य समाज को आपस में बांटा हुआ था। छुआछूत, अन्याय व शोषण का बोलबाला था। बाल विवाह, बाल विधवाओं की दयनीय दशा आदि ने मनुष्य जाति को कंलकित किया हुआ था। ऐसे समय में ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर धर्म का सत्य स्वरूप प्रस्तुत कर उसका जन-जन में प्रचार किया। सभी अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं को दूर किया। बाल विवाह का निषेध करने सहित पूर्ण युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर विवाह करने का सर्वत्र प्रचार किया। विधवाओं को उनके सभी मानवोचित उचित अधिकार प्रदान करायें। आपदधर्म के रूप में पुनर्विवाह को भी स्वीकार किया।
देश को आजाद कराने के लिये ऋषि दयानन्द ने स्वदेशीय राज्य को सर्वोपरि उत्तम बताया। ईश्वर की वैदिक रीति से सन्ध्या, पूजा या उपासना सहित वायु शोधक तथा ज्ञान प्रापक वैदिक अग्निहोत्र यज्ञों को प्रचलित किया। लोगों की अविद्या दूर करने के लिये सत्यार्थप्रकाश जैसा एक अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ दिया। मनुष्य के अधिकांश दुःखों का कारण अविद्या होती है। ऋषि दयानन्द ने अविद्या को पूर्णतया दूर करने वाला ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश रचा व हमें प्रदान किया जिससे आज हम अविद्या से मुक्त हो सके हैं। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है जो सत्य धर्म से परिचित कराने व उसके पालन का विधान करता है और मनुष्यों को सभी अन्धविश्वासों से दूर व मुक्त करता है। ऐसे अनेकानेक कार्य ऋषि दयानन्द तथा उनके द्वारा स्थापित वेद प्रचार आन्दोलन नामी संस्था आर्यसमाज व उनके अनुयायियों ने किये हैं। उनके प्रयत्नों से ही देश में अन्धविश्वास व सामाजिक कुरितियां दूर हुई हैं। विद्या व ज्ञान का प्रचार प्रसार हुआ है। हमारा देश अध्यात्म से ओतप्रोत विश्व का एक प्रतिष्ठित देश बना है। ऋषि की इन देनों के कारण ही दीपावली पर्व को उनके मोक्ष व निर्वाण दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन लोग घरों की शुद्धि कर विशेष अग्निहोत्र यज्ञ करते और आर्यसमाजों में ऋषि जीवन की प्रासंगिकता तथा देश व समाज के निर्माण में उनके योगदान की चर्चा करते हैं। सभी वेद धर्म प्रेमी सभी प्रकार के अन्धकार को दूर कर ज्ञान को प्राप्त करने का संकल्प लेते हैं। सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करने की प्रतीज्ञा भी करते हैं। इसी प्रकार से दीपावली पर्व को मनाना उचित प्रतीत होता है।
हमें लगता है कि दीपावली के दिन सभी देशवासियों को सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने का संकल्प लेकर तथा इस संकल्प को पूरा करने का मन में उत्साह भरकर पर्व को मनाने से हमें जन्म जन्मान्तर में अवर्णनीय लाभ होगा। इसका कारण यह है कि हमारा भविष्य हमारे वर्तमान के निर्णय व कार्यों का परिणाम होता है। इसी प्रकार से हमें दीपावली पर्व को मनाना चाहिये जिससे हमारा समाज विश्व का उन्नत समाज बने तथा हमारा देश भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनने सहित सभी प्रकार के अज्ञान, अविद्या, अन्याय, अभाव व अन्धविश्वासों सहित कुरीतियों व मिथ्या परम्पराओं से पूर्णतया मुक्त हो। ओ३म् शम्
-मनमोहन कुमार आर्य