ऐसा भी संभव हुआ है कि जिस दल का बहुमत राज्यसभा में होता है तो वह लोकसभा से उल्टे सीधे काम कराके राज्यसभा में इसलिए ले आता है कि राज्यसभा तो स्वयं ही उसकी अपनी है। मेरा इस पर भी यही कहना है कि राज्यसभा किसी सरकार की रक्षिका नही है कि वह हाथ उठाकर वह करेगी जो लोकसभा में सरकार करती है। किसी भी मार्गदर्शक मंडल, व्यक्ति या संस्थान के लिए यह सर्वथा अशोभनीय ही होता है कि वह अपने द्वारा किये जाने वाले मार्गदर्शन के पवित्र कार्य को छोडक़र वही कहने या करने लगे जिसे उससे चाहा गया है।
राज्यसभा में हमें ऐसे तपे-तपाये अनुभवशील और ज्ञानवृद्घ लोगों को भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए जो संसद के समय का सदुपयोग करने के लिए लोकसभा पर दबाव बना सकें। संसद की कार्यवाही पर प्रति सप्ताह लगभग 6.50 करोड़ रूपया व्यय होता है। इसका अभिप्राय है कि साप्ताहिक अवकाश को यदि निकाल दिया जाए तो एक करोड़ से अधिक जनता का रूपया संसद पर प्रतिदिन व्यय होता है। राज्यसभा के तपस्वी लोग जिस दिन अपने यहां से लोकसभा को समय का सदुपयोग करने, जनता के धन का दुरूपयोग रोकने संबंधी प्रस्ताव बनाकर भेज देंगे, उस दिन इस सदन का औचित्य लोगों को समझ में आएगा।
राज्यसभा के सदस्य का निर्वाचन हमारे यहां ‘एकल संक्रमणीय आनुपातिक मत प्रतिनिधित्व प्रणाली’ के आधार पर किया जाता है। यही प्रक्रिया हमारे राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी अपनायी जाती है। इस निर्वाचन प्रणाली से चुने जाने पर राष्ट्रपति को दलीय राजनीति से ऊपर कर दिया जाता है। यह सौभाग्य की बात है कि हमारे अधिकांश राष्ट्रपतियों ने संसद का एक अंग होकर भी स्वयं को दलीय राजनीति से ऊपर स्थापित करके दिखाया भी है। इसका एक कारण यह भी है कि राष्ट्रपति और राज्यसभा सदस्य के निर्वाचन में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को ही मत डालने का अधिकार होता है। स्पष्ट है कि किसी राष्ट्रपति या राज्यसभा सांसद को किसी दल विशेष के लोगों से ही अपने लिए मत मांगने नही होते हैं, अपितु वह किसी भी दल से अपने लिए मत मांग सकता है। हमने व्यवहार में देखा भी है कि कई राष्ट्रपति और कई राज्यसभा सांसद विभिन्न दलों के सहयोग से अपने पद पर चुने गये हैं। तब स्वाभाविक प्रश्न है कि राष्ट्रपति की भांति राज्यसभा सांसदों को भी दलनिरपेक्ष क्यों न माना जाए? यह कितना अशोभनीय है कि आप वोट तो सबके मांगें और काम किसी एक के लिए करें।
हमारे संविधान ने लोकसभा को ‘प्रधानमंत्री प्रधान’ बनाया है उसका स्वरूप और चरित्र वैसा ही माना जाता है जैसा प्रधानमंत्री बनाना चाहता है। जैसे ईश्वर, जीव और प्रकृति में जीव को ईश्वर की ओर अभिमुख रहने की शिक्षा दी जाती है, क्योंकि ईश्वरोन्मुखी जीव ही अपना कल्याण कर सकता है, उसे प्रकृति बंधन से बचाकर उसका मार्गदर्शन किया जाता है। उसी प्रकार लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति की स्थिति है। लोकसभा प्रकृति है, जहां मायावाद है, राज्यसभा जीव है, जिसे लोकसभा के छलप्रपंच पूर्ण मायावाद से बचकर स्वयं को ईश्वरोन्मुखी बनाना है। कहने का अभिप्राय है कि राज्यसभा को लोकसभा की चख-चख से स्वयं को बचाकर उच्चादर्श स्थापित करने हैं। अपना और लोक का कल्याण जीव तभी कर सकता है, जब वह प्रकृति के मायावाद से मुक्त हो। इसलिए हमारे लिए अपने आध्यात्मिक चिंतन का राजनीतिकरण करने का समय है, नेताओं को अपनी संस्कृति के स्वरूपों के रहस्य को समझना चाहिए और तदानुसार गरिमामयी आचरण बनाकर उच्चादर्श स्थापित करने चाहिए।
देश की जनता को हमारे नेता मूर्ख मानते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति ही मूर्खतापूर्ण है। जनता मूर्ख नही होती वह बहुत समझदार होती है और चुपचाप सारे घटनाक्रम को देखती रहती है। समय आने पर ऐसा न्याय करती है कि जो उसे मूर्ख समझकर अपना मूर्ख बना रहे थे उनकी भी आंखें खुल जाती हैं। ‘कोऊ नृप होई हमें का हानि’ का अर्थ यह नही है कि जनता अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग नही है, इसलिए जो राजा बन जाए-वह बन जाए इससे जनता का कोई लेना देना नही है। इसका अभिप्राय है कि जो व्यक्ति ‘राजा’ के कत्र्तव्यों को समझता हो, और तदानुसार जीवन-व्यवहार चलाने का अभ्यासी हो वह चाहे जो हो और राजा बन जाए तो हमें कोई हानि नही होने वाली। यह हमारे देश की जनता का सदियों नही युगों पुराना राष्ट्रीय संस्कार है। जिसे वह आज भी अपनाये हुए है, पर वह सत्ता पलट करती है तो कह देती है कि-‘‘राजधर्म से मुंह फेरने वालों अब तुम्हारा ‘राज’ से कोई लेना देना नही होगा।’’ तब वह बता देती है कि यदि किसी राष्ट्रधर्म से पतित व्यक्ति को ‘राजा’ बना दिया जाता है, तो हमें हानि होती है? ‘राज्यसभा’ को राष्ट्रधर्म से युक्त होना होगा, अन्यथा जनता इसके भी विरूद्घ निर्णय दे सकती है।