खेलों के माध्यम से भी होता रहा है युद्धों का ज्ञान
आनंद कुमार
सन 1850 के दौर में जब अंग्रेजों को भयानक भारतीय प्रतिरोध का सामना करना पड़ा तो धीरे से उन्होंने एक आर्म्स एक्ट लागु कर दिया। इसका उन्हें फायदा ये हुआ कि भारतीय हथियार रखेंगे नहीं तो यहाँ कि शास्त्रों की परंपरा जाती रहेगी। फिर एक प्रशिक्षित सिपाही भी बिना प्रशिक्षण वाली सौ-दो सौ की भीड़ को रोक सकता था। इस तरह पिछले दो सौ सालों में शारीरिक श्रम की भारतीय परंपरा समाप्त हुई। युद्ध की जो विधाएं खेल में सिखा दी जाती थीं, धीरे धीरे उनका खात्मा हो गया।
भारत में इस मल्लखंभ का अभ्यास बहुत पुराना है। पुराने जमाने में इसका प्रयोग एक कसरत की तरह होता था। कुश्ती लड़ने का अभ्यास करने वाले पहलवानों को शुरू से ही मल्लखंभ पर अभ्यास करवाया जाता था। यहाँ मल्ल पहलवान के लिए और खंभ उस गड़े हुए खूंटे के लिए इस्तेमाल होता है जिसपर पहलवान अभ्यास करता है। अब ये एक अलग विधा भी है लेकिन शुरू में इसका उद्देश्य पहलवान की पकड़ और उसके शारीरिक नियंत्राण, एकाग्रता जैसी चीज़ों को बढ़ाने के लिए होता था। इसक पहला लिखित जिक्र हज़ार साल पहले (यानी 1135 सन् में) लिखी गई किताब मनासोल्लास में आता है। इसे सोमेश्वर चालुक्य ने लिखा था। धीरे धीरे बढती हुई ये विधा मराठा साम्राज्य के काल तक एक अलग ही विधा का रूप ले चुकी थी। मराठा काल आने तक इसमें खम्भे के अलावा बिना कहीं गाँठ लगी रस्सी का भी इस्तेमाल होने लगा था। पेशवा बाजीराव द्वित्तीय के काल में बलमभट्ट दादा ने इसमें खम्भे के अलावा रस्सी के इस्तेमाल को भली भांति लिपिबद्ध किया। उस दौर में बांस, लकड़ी की कमी की वजह से भी रस्सी का इस्तेमाल बढ़ने लगा था।
आज की तारिख में इसके तीन प्रकार होते हैं। एक सीधा मल्लखंभ पर, दूसरा थोड़े कम ऊँचे मल्लखंभ और कुछ झूलते हुए खम्भों पर और तीसरा रस्सी पर। एक खेल के तौर पर इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को चार श्रेणियों में बांटा जाता है रू
12 से कम आयुवर्ग
14 से कम आयुवर्ग
17/18 से कम आयुवर्ग
(17 स्त्रिायों के लिए और 18 पुरुषों के लिए)
17/18 से ऊपर का आयुवर्ग
विदेशी शासनों के दौरान काफी कुचले जाने के बाद भी ऐसे भारतीय खेल पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए। अखाड़ों में इसे अभी भी गुरु शिष्य परंपरा के जरिये आगे बढ़ाया जाता है। ख़ास तौर पर महाराष्ट्र और हैदराबाद के इलाकों में इसके कई प्रशिक्षण केंद्र हैं। मल्लखंभ की राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं भी आयोजित होती हैं।
सन 2013 से ये मध्य प्रदेश का राजकीय खेल भी है। ये आम तौर पर देखा जाता है कि प्रतिस्पर्धा वाले खेलों में खिलाड़ी 25 की आयु तक आते आते खेल से संन्यास ले लेते हैं। 10-12 की उम्र में शुरू करने पर बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक क्षमता भी बढ़ती है, 20 आते आते ये स्थायी और 25 के बाद तो घटती ही हैं। ऐसे में किसी भी खेल में प्रशिक्षण काफी कम उम्र में ही शुरू होता है। अगर विदेशी तरीके के जिमनास्ट को भी देखेंगे तो ओलंपिक के गोल्ड मैडल वाले खिलाड़ी अक्सर 15-18 आयु वर्ग के ही होते हैं।
लगभग सभी खेलों में प्रशिक्षण काफी कम उम्र यानि 18 से बहुत पहले शुरू हुआ रहता है। ऐसे में जब फिरंगियों के ज़माने के कानूनों पर चलने वाली अदालतें अपने तुगलकी फरमान में दही हांड़ी उत्सव में 18 से कम उम्र वालों के शामिल होने पर रोक लगाती हैं तो इसके नुकसान का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल नहीं है। मल्लखंभ के अखाड़ों के मानव पिरामिड के विरोध की ये नीति और कुछ नहीं बस उसी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचायक है।
साभार