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इतिहास के पन्नों से

झारखंड का हम्पी नवरतनगढ़

सुधीर शर्मा

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
झारखंड का नाम लेते ही साधारणत: जनजातीय लोगों के चित्र ही मन में उभरते हैं। समझा जाता है कि विकास की दौड़ में पिछड़ गए वनों में रहने वाले जनजातीय लोगों का ही प्रदेश है झारखंड। ऐसे में यदि कोई बताए कि सुप्रसिद्ध विजयनगर साम्राज्य की भांति झारखंड में भी एक राज्य था और हम्पी की भांति ही एक सुकविकसित नगर यहाँ हुआ करता था, तो निश्चित ही हम चौंक उठेंगे। सच तो यह है कि झारखंड को अपनी राजनीतिक का अखाड़ा बनाने के क्रम में झारखंड की समृद्ध सनातन वैदिक संस्कृति और वहाँ की सुदीर्घ भारतीय सनातन समाजिक-राजनीतिक परंपरा की घनघोर उपेक्षा की गई। झारखंड का ऐसा ही एक रहस्यमयी इतिहास है यहाँ के नागवंशी राजाओं का। पहाड़ों और नदियों के किनारे इनके साम्राज्य विस्तार और शिव उपासक होने के साक्ष्यों के अवशेष आज जीर्ण अवस्था में सरकारी पुनरूद्धार की बाट जोह रहे हैं।
सरकार और इतिहासकारों की उपेक्षाओं के कारण नागवंशियों की एक महत्वपूर्ण विरासत अपनी पहचान खोने की कगार पर है। राज्य की राजधानी राँची से दक्षिण पश्चिम में 74 किलोमीटर दूर डोयसा नगर आज एक खंडहरों के गाँव में तब्दील हो चुका है। गुमला जिले के सिसई प्रखण्ड का यह क्षेत्र कभी नागवंशियों का प्रशासनिक और सांस्कृतिक राजधानी रहा था। करीब 100 एकड़ में फैले डोयसागढ़ अपने मौलिक सौंदर्य, अनूठे स्थापत्य और अभेद्य दुर्ग के कारण इसकी प्रसिद्धि दूर देशों में भी थी।
नागवंश के 45वां राजा दुर्जनशाल ने इस महल का निर्माण 16वीं शताब्दी में कराया था। वह हीरे का बड़ा पारखी था। नागवंशियों के इतिहास में महलों की कल्पना नहीं थी, लेकिन ग्वालियर के तत्कालीन शासक इब्राहिम खान ने लगान नहीं चुकाने के कारण 1615 ईस्वी में दुर्जनशाल को बंदी बना लिया था, लेकिन हीरे का पारखी होने के कारण 12 साल के बाद इ्रृब्राहिम खान ने इसे रिहा कर दिया। इब्राहिम खान ने दुर्जनशाल के साथ एक वास्तुकार को भेज दिया। इसी वास्तुकार ने दुर्जनशाल को ग्वालियर के किले की तर्ज पर एक महल बनाने का सुझाव दिया। इससे पूर्व नागवंशी राजा आम जनता से थोड़े से ही बड़े घरों में रहते थे।
डोयसागढ़ नागवंशियों की चौथी राजधानी रही, इसी परिसर में एक पाँच मंजिले किले का निर्माण कराया गया, जिसके हर मंजिल में 9-9 कमरे थे, और चारो ओर से नौ खिड़कियों (झरोखे की तर्ज पर) का निर्माण कराया गया, संभवत: इसी के कारण किले का नाम ‘नवरतनगढ़’ पड़ा। लेकिन आज नवरतनगढ़ का यह किला जमींदोज होता जा रहा है, किले के दो मंजिले जमीन के अंदर धंस चुके है, लकडिय़ों की सिल्लियों से पाटकर छतों की अनोखी ढलाई की गई थी। करीब 300 साल के बाद भी लकडिय़ों की चमक आज भी बरकरार है, लेकिन सुरक्षा के अभाव में कई बेशकीमती लकडिय़ों की चोरी हो चुकी है, जिससे छतें भी धंसने की कगार में है।
डोयसागढ़ के पूरे क्षेत्र में कचहरी, मंदिर, तालाब राजदरबार और साधना केन्द्र के अवशेष देखने को मिलते है। पत्थरों की सिल्लियों से टिकाकर बनाये गए मंदिरों का स्थापत्य अनूठा है, वहीं कचहरी व अन्य प्रशासनिक भवनों के अवशेषों में लाहौरी ईटो की संरचना देखने को मिलते है। तीन ओर से पानी के बांध और एक ओर से पहाड़ होने के कारण डोयसागढ़ का यह सम्पूर्ण क्षेत्र प्राकृतिक रूप से अभेद्य रहा होगा। इस परिसर में मौजूद तालाब भी है, जिसे संभवत: रानी के नहाने के लिए बनाया गया था, इतिहासकारों और पुरातत्ववेताओं के अनुसार तालाब से किले के बीच एक सुरंग है, जो आज भी मौजूद है।
राज्य सरकार के संस्कृति विभाग के उप निदेशक रहे डॉ॰ हरेन्द्र सिन्हा इसे झारखण्ड का हम्पी कहते है। डॉ॰ सिन्हा अनुमान लगाते है कि नवरतनगढ़ करीब एक सौ से दो सौ सालों तक आबाद रहा, लेकिन इसके बाद इसके पतन की शुरूआत हुई और धीरे-धीरे उजड़ गया। माना जाता है, कि डोयसागढ़ को पंडितों ने शापित मान लिया था, जिसके बाद नागवंशी राजाओं ने उसे छोड़कर पालकोट को अपनी राजधानी बनाई। राज परिवार के साक्ष्यों के आधार पर इतिहासकारों ने माना है, कि पालकोट 17वीं शताब्दी में नागवंशी राजाओं की राजधानी रही।
डोयसागढ़ के मंदिर
डोयसागढ़ किले के अहाते में कई मंदिर है, दो मंजिला कपिलनाथ मंदिर जिसके शिलालेखों के अनुसार इसका निर्माण किले के निर्माण से 40 वर्ष पूर्व हुआ। कपिलनाथ मंदिर में विभिन्न शैलियों के शिवलिंग मिलते है। मंदिर के शिलालेख से प्रतीत होता है,कि रामशाह ने मराठा ब्रह्मचारी गुरू हरिनाथ का शिष्यत्व ग्रहण कर अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। किले के पास ही टेराकोटा स्थापत्य का एक राधाकृष्ण मंदिर का अवशेष भी देखने को मिलता है भी है, जो आज नष्ट होने के कगार पर है। टेराकोटा की दीवारों में खुदाई की हुई चित्रकारी बंगाली शैली में बने मंदिरों में ही होते है। संभवत: राधास्वामी सम्प्रदाय और बंगाली संस्कृतियों का प्रभाव भी इस क्षेत्र में रहा होगा।
लेकिन आज इतिहास के पन्नों का यह स्वर्णिम अध्याय खंडहरों में तब्दील होता जा रहा है। स्थानीय लोग और सामाजिक कार्यकर्ता इसके पुनरूद्धार के लिए संघर्ष कर रहे है, ये क्षेत्र राज्य के विधानसभाध्यक्ष दिनेश उराँव का विधानसभा क्षेत्र है, लेकिन अबतक कोई बड़ी योजना इसके लिए नहीं बनी। अगर इस क्षेत्र को विकसित कर दिया जाय तो पर्यटन की असीम संभवनाएं जन्म लेगी, स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने के साथ ही इस क्षेत्र के कई धार्मिक और सांस्कृतिक रहस्यों से पर्दा भी उठ सकेगा। गुमला जिला धार्मिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है, इसी क्षेत्र में आंजनधाम की गुफा है, जिसे भगवान हनुमान का जन्मस्थान माना जाता है साथ ही राज्य की पुरानी उराँव जनजाति के मान्यताओं के अनुसार इसी क्षेत्र में स्थित एक जलस्रोत सीरासीतानाला भी है, जहाँ से भगवान शिव और पार्वती ने सृष्टि की रचना की थी।
राजपुरोहित की समाधि आज भी है मौजूद
नागवंशी देश का संभवत: पहला ऐसा राजवंश है, जिनके वंशज आज भी जीवित है। ऐसी मान्यता है कि जिस राजपुरोहित ने नवरतनगढ़ को शापित माना था, उसने राजदरबार का पानी पीने से भी मना कर दिया था। उस पुरोहित ने किले के पास ही समाधि ले ली थी। उस समाधि स्थल को एक मंदिर का रूप दिया गया है और नागवंशी राजाओं के वर्तमान वंशजों के द्वारा उक्त समाधि मंदिर में एक स्थायी पुजारी की नियुक्ति की गई है और 24 घंटे अखंड ज्योति जलती रहती है। इस समाधि मंदिर के रख-रखाव व पुजारी का वेतन आज भी राजपरिवार के लोगों द्वारा दिया जाता है।

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