मनमोहन सिंह आर्य
हम अल्पज्ञ जीवात्मा हैं इस कारण हमारा ज्ञान अल्प होता है। ईश्वर जिसने इस सृष्टि को बनाया व इसका संचालन कर रहा हैए वह हमारी तरह अल्पज्ञ नहीं अपितु सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ का अर्थ होता है कि जिसे सब प्रकार का पूर्ण ज्ञान हो। जो अतीत के बारे में भी जानता हो वर्तमान के बारे में भी और जीवों के कर्मों की अपेक्षा से भविष्य के विषय में भी ज्ञान रखता हो। अब यह कहा जा सकता है कि ईश्वर आंखों से दिखाई तो देता नहीं फिर उसकी सत्ता और उसे सर्वज्ञ कैसे मान सकते हैं इस पर यह जानना उचित होगा कि क्या हम स्वयं व अपने निकटस्थ परिवारजनों व मित्रों आदि को देख पाते हैं उत्तर हां में मिलता है। हमारा कहना है कि हम जो देखते हैं वह मनुष्यों का भौतिक शरीर होता है। हमारे पारिवारिक जन व मित्र आदि भौतिक शरीर नहीं हैं अपितु एक चेतन तत्व जीवात्मा हैं। जीवात्मा एक अति सूक्ष्म तत्व है जो सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। जब हम अपनी व दूसरों की सत्य पदार्थ जीवात्माओं को ही नहीं देख पाते तो फिर जीवात्मा से भी अत्यन्त सूक्ष्म व निराकार तत्व ईश्वर को न देख पाने के कारण उसके अस्तित्व से इनकार करना बुद्धिमत्ता नहीं है। हां ईश्वर को उसके गुण कर्म स्वभाव व उसकी कृति सृष्टि को देखकर जाना जा सकता है। उसको जानने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान के साथ हमें पूर्वाग्रहों जो हमने इस जन्म व पूर्व जन्मों से अपने चित्त में धारण किये हुए हैं उनसे मुक्त भी होना पड़ेगा। ईश्वर व सृष्टि विषयक समस्त आवश्यक ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेद् के रूप में हमें प्रदान किया था। यह चारों वेद और इनका ज्ञान आज भी हमारे पूर्वजों के पुरूषार्थ के कारण हमें उपलब्ध है जिनकी सहायता से ईश्वर को जाना जा सकता है। दूसरा साधन वेदों के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा लिखा गया ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश भी ईश्वर जीव व प्रकृति के ज्ञान में सहायक है। अन्य अनेक ग्रन्थ यथा उपनिषदए दर्शन आदि भी सहायक हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वेदों के सिद्धान्तों को बहुत ही सरल रूप में बोलचाल की भाषा आर्यभाषा हिन्दी में समझाया गया है। सत्यार्थप्रकाश को पढक़र ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान इसके पाठक को हो जाता है व हमनें भी किया है। वेदों के आधार पर महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि ईश्वर कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैंए जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त हैए जिसके गुण कर्म स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ निराकार सर्वव्यापक अजन्मा अनन्त सर्वशक्तिमान दयालु न्यायकारी सब सृष्टि का कत्र्ता धत्र्ता हत्र्ता सब जीवों को कर्मानुसार सत्य.न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त हैए उसका ऐसा ही स्वरूप वेदों में वर्णित है। सत्यार्थप्रकाश में महर्षि दयानन्द ने यह सिद्धान्त भी बताया है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इस सिद्धान्त से सृष्टि की रचना को देखकर इसके रचयिता ईश्वर का ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त सभी अपोरूषेय कार्य जिसमें एक सुन्दर व मनमोहक फूल भी होता है अपने रचयिता ईश्वर का परिचय दे रहा होता है। यह ऐसा ही है जैसे कि किसी बच्चे को देखकर उसके माता.पिता तथा धुवें को देखकर अग्नि का ज्ञान होता है। ईश्वर के बारे में विस्तार से जानने के लिए उपनिषदए दर्शन तथा वेद आदि का अध्ययन करना अपेक्षित है।
अब ईश्वर के त्रिकालदर्शी होने पर विचार करते हैं। त्रिकाल भूत वर्तमान तथा भविष्य काल को कहते हैं। भूत जो बीत गया है तथा वर्तमान जो अब इस समय का काल है। इनका पूरा पूरा ज्ञान ईश्वर को होता है। इसका अर्थ है कि सृष्टि विषय व जीवों के अतीत व वर्तमान के सभी कर्मों का पूरा पूरा ज्ञान ईश्वर को सदा सर्वदा रहता है। अब तीसरा भविष्य काल है। इसके भी दो भाग किये जा सकते हैं। एक तो जीवात्मों के भविष्य में किये जाने वाले कर्म हैं। दूसरा इससे भिन्न सृष्टि के निर्माण व संचालन आदि ईश्वरीय कार्य हैं इनका पूरा पूरा ज्ञान ईश्वर को रहता है कि उसे कब क्या करना है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र हैं। अत: परमात्मा जीवों के भविष्य के कर्मों को पूर्व ही नहीं जानताए कर्म करने पर साथ.साथ जानता है। शनै: शनै: वर्तमान भूतकाल में बदलता रहता है और भविष्य वर्तमान बनता जाता है। भविष्य के वर्तमान होने के साथ ईश्वर को जीवों के कर्मों का साथ.साथ ज्ञान होता जाता है। इसी को जीवों के कर्मों की अपेक्षा से ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि भविष्य में जीवों के द्वारा कर्म किये जाने पर ईश्वर उनको जानता है। कर्म करने से पूर्व ईश्वर को उनके होने न होने का ज्ञान नहीं होता।
ईश्वर त्रिकाल दर्शी है या नहीं वा किस प्रकार से हैए इस पर महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला है। इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले उन्होंने जीव और ईश्वर स्वरूप गुण कर्म और स्वभाव से कैसे हैं इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत किया है। यह भी जानने योग्य हैंए अत: इसे प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं. दोनों चेतनस्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्रए अविनाशी और धार्मिकता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति प्रलय सब को नियम में रखनाए जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं। और जीव के सन्तानोत्पत्ति उन का पालनए शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे काम हैं।। ईश्वर के नित्यज्ञान आनन्द अनन्त बल आदि गुण हैं। दोनों सूत्रों में इच्छा पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा द्वेष दु:खादि की अनिच्छा वैर प्रयत्न पुरुषार्थ बल सुख आनन्द दु:ख विलाप अप्रसन्नता ज्ञान विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में प्राण प्राणवायु को बाहर निकालना अपान प्राण को बाहर से भीतर को लेना निमेष आंख को मीचना उन्मेष आंख को खोलना जीवन प्राण का धारण करना मन: निश्चय स्मरण और अहंकार करना गति चलना इन्द्रिय सब इन्द्रियों को चलाना अन्तर्विकार भिन्न.भिन्न क्षुधा तृषा हर्ष शोकादियुक्त होना ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं।
इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी क्योंकि वह स्थूल व भौतिक पदार्थ नहीं है। जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों और न होने से न हों वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।