सुद्युम्न आचार्य
शब्दों में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। ये शब्द समाज की वाणी से मुखरित होकर कालक्रमानुसार अनेक प्रकार के रूप धारण करते रहते हैं। कभी तो इनकी ध्वनियों में बदलाव हो जाता है। यह बदलाव इतना अधिक होता है कि वह समूचा शब्द नया रूप धारण कर लेता है। कभी उस शब्द के अर्थ में अनेक परिवर्तनों हो जाते है। भाषा शास्त्र के विद्वान इन अनेक प्रकार के परिवर्तनों से अनेक विशिष्ट सूचनाएॅ प्राप्त करते हैं। किसी विशेष स्थान में किसी विशेष कार्य के लिये विशेष प्रकार के शब्दों के प्रचलन से भी इतिहास के नए तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है।
उदाहरण के लिए अतिप्राचीन काल के किसी विशेष कालखण्ड में रेखा गणित नामक एक विशिष्ट शास्त्र के लिये शुल्व गणित शब्द का विकास हुआ था। इसकी व्याख्या करने के लिये विकसित शास्त्र को शुल्व सूत्र के नाम से जाना गया। संस्कृत में शुल्व शब्द का अर्थ रस्सी होता है। इस नाम से यह जाना जा सकता है कि इस विशिष्ट शास्त्र का विकास मूलत: छोटी सी रस्सी के द्वारा सम्भव हो पाया था। रस्सी की यह विशेषता है कि यह अपने लचीलेपन के कारण ठोस पदार्थों के वृत्ताकार, त्रिभुज,चतुर्भुज आदि के किसी भी आकार को धारण कर सकती है। यह उनसे जुड कर उन पदार्थों का नमूना तथा पैमाना भी बन सकती है। बस, इसी विशेषता की बदौलत यह एक शास्त्र के विकास में प्रमुख भूमिका निभा सकी है।
रस्सी का सामान्य आकार एक सरल रेखा के रूप में होता है। अत: इस आकार को प्रमुखता देते हुए आगे चल कर इस शास्त्र का नाम रेखा गणित भी प्रचलित हुआ। आगे चल कर यह देखा गया कि इन रेखाओं की सहायता से बाहरी भौतिक पदार्थों का चित्र भी बन सकता है। इन्हें रेखाचित्र नाम दिया गया। इस तथ्य को जानने में समय लगा कि इन रेखाओं के प्रयोग से अक्षरों का निर्माण भी हो सकता है तथा इन अक्षरों को मिलाकर बनने वाले शब्दों से लाखो, करोड़ों वस्तुओं तथा मनोभावों का वर्णन हो सकता है। रेखा में वर्णन की क्षमता को इंग्लिश के शब्द में भली प्रकार पिरोया गया है। इस भाषा में रेखा को लाइन कहा जाता है तथा इससे बनने वाला एक शब्द डिलिनीशन है, जिसका अर्थ है वर्णन। इस शब्द से यह संकेत मिलता है कि उनकी मान्यता के अनुसार रेखाओं की विशेष आकृति ही वर्णन है।
संस्कृत में इस रेखा से बनने वाली अक्षर आकृति को लेखा नाम दिया गया है, तथा इस संक्रिया को लेखन नाम प्रदान किया गया। हिन्दी में आज भी यह शब्द ‘लिखनाÓ इस रूप में जीवित है। संस्कृत के एक नियम अनुसार रेफ तथा लकार में कोई विशेष अन्दर नहीं होता। अत: किसी शब्द में इस छोटे से परिवर्तन से उस शब्द के मूल अर्थ के किसी संकुचित अर्थ की सूचना प्राप्त होती है।
इस प्रकार लेखा शब्द रेखा से बनने वाले अक्षरों का परिचायक है। शुल्व गणित तथा रेखा गणित शब्द बताते है कि रस्सी की एक मौलिक विशेषता की सहायता से भारत में एक शास्त्र का विकास हुआ था। यहां वृत्ताकार, वर्गाकार यज्ञवेदि के निर्माण के लिये इस शास्त्र की प्रवर्तना हुई थी। इसके पश्चात् भवन निर्माण आदि के लिये इसका उपयोग किया गया।
यूरोप में सबसे पहले भूमि मापन के लिये इस शास्त्र का विकास हुआ था। यह इसके लिये प्रयुक्त जियोमेट्री शब्द से प्रमाणित होता है। यह शब्द मूलत: ग्रीक भाषा के जियो यानी धरती तथा मेट्रिया यानी मापन अर्थ वाले शब्दों से मिल कर बना है। इसके पश्चात् अन्य कार्यों के लिये भी इस शास्त्र का उपयोग हो सका। इंग्लिश का जियो शब्द संस्कृत के ज्या शब्द से विकसित हुआ है। यह भारत के प्राचीनतम शब्दकोश निघण्टु नामक ग्रन्थ में भूमि अर्थ वाले शब्दों के मध्य ज्या शब्द के पाठ से प्रमाणित है।
यह विडम्बना है कि प्राचीन युग में भारत में परिचालित रेखा गणित नाम तथा उस समय की संक्रियाओं को आधुनिक युग में लगभग भुला दिया गया तथा इंग्लिश से ज्ञान-विज्ञान तथा उनके शब्दों को स्वीकार करने के आवेश में जियोमेट्री शब्द के आधार पर एक नवीन कृत्रिम संस्कृत शब्द ज्यामिति को गढ़ा गया तथा उसे खूब प्रचारित किया गया। आजकल यह शब्द स्कूलों के पाठ्यक्रम में बहुत प्रचलित है।
पर यह ध्यान देने योग्य है कि यह कृत्रिम शब्द रेखा गणित की विशेषताओं को प्रकट कर पाने में सक्षम नहीं है। संस्कृत में ज्या का अर्थ धनुष की डोरी तथा मिति का अर्थ मापन होता है। अत: ज्यामिति का सम्पूर्ण अर्थ धनुष की डोरी के आकार का मापन यह होता है। इस शास्त्र का यह बहुत सीमित अर्थ है। रेखा गणित केवल अण्डाकार का ही नहीं, अपितु वृत्ताकार, वर्गाकार जैसी अनेक आकृतियों के मापन के लिये उपयुक्त है। यह कितना दुखद है कि पाश्चात्य परंपरा के अनुकरण करने के उत्साह में इस शब्द के अर्थ को छोटा बना दिया गया है। इसके प्रचलन के साथ रेखा गणित शब्द की सम्पूर्ण विशेषताएं भुला दी गई हैं। हम इस शब्द का प्रयोग करके शुल्व गणित तथा रेखा गणित शब्द में छिपे हुए इतिहास को नहीं जान सकते। यह ध्यान देने योग्य है कि यह इतिहास केवल इन शब्दों से ही प्रमाणित होता है। अन्य उपायों से इसकी जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस ठोस पदार्थो के आयाम को मापने के लिये मात्रकों के रूप में सबसे पहले हाथ, पैर तथा आदमकद का उपयोग प्रारम्भ हुआ। ये मात्रक मनुष्य के समक्ष सर्वसुलभ थे, अत: इनका उपयोग सर्वथा स्वाभाविक था। यह तथ्य भारतीय प्राचीन गणित में हस्त, पाद तथा पुरुष प्रमाण जैसे शब्दों के प्रयोग से प्रमाणित होता है।
यूरोपीय महाद्वीप की मनीषा भी इन्हीं मात्रकों के उपयोग के लिये प्रवृत्त हुई। इंग्लिश में ‘जो कीप्स एट आम्र्स लेंथÓ यानी जो एक हाथ की दूरी पर वस्तु को रखता है, जैसे मुहावरे हाथ के आधार पर परिज्ञात लम्बाई को सूचित करते हैं। संस्कृत के पाद शब्द के आधार पर इंग्लिश में फूट शब्द विकसित हुआ। यह शब्द पाद या कदम की लम्बाई को प्रकट करता है। यज्ञ ग्रन्थों में वेदि—मापन के लिये पाद नामक मात्रक का बहुत अधिक प्रयोग हुआ है।
परन्तु वर्तमान युग में पाद शब्द का नहीं अपितु इससे नि:सृत फुट शब्द का ही पर्याप्त प्रयोग होता है। हिन्दी में भी इस इंग्लिश शब्द के तदभव फुट, फुट्टा जैसे शब्द देखे जाते है। परन्तु संस्कृत का मौलिक पाद शब्द पुकार पुकार कर यह बताता है कि इस मात्रक का प्रारम्भ भारतीय मनीषा से हुआ था।
संस्कृत में इस शास्त्र की सभी विधाओं के लिये एक सामान्य गणित शब्द का विकास हुआ। यह माना गया कि इन सभी विधाओं में गणना नामक एक सामान्य तत्त्व है। इंग्लिश आदि में प्रयुक्त शब्दों से सभी विधाओं में परिचालित साधारण तत्व का परिज्ञान नहीं हो पाता। गणित शब्द से हिन्दी भाषा का गिनती संज्ञा तथा गिनना जैसे क्रिया शब्दों का विकास हुआ है। यह मान लिया गया कि गणित की सभी विधाओं में गिनने की विविध संक्रियाएं प्रयुक्त होती हैं। अत: संस्कृत में इस गणित शब्द के साथ सभी विधाओं को उचित किया गया है।
भारत के विद्वानों ने इस गणित—शास्त्र के विकास के लिये कितना महान् परिश्रम किया था, इसे हम आसानी से नहीं जान सकते। केवल कुछ शब्दों की सहायता से इसका अनुमान कर सकते है। मध्यकाल में इसका एक नाम धूलि—कर्म विकसित हुआ था। भास्कराचार्य ने एक स्थान पर लिखा है कि यह प्रमेय धूलि—कर्म में प्रयुक्त संक्रियाओं से स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। इस धूलि—कर्म का शाब्दिक अर्थ धूल अथवा रेत में बनाई गई संख्याएं अथवा गणितीय संक्रियाएं है। स्पष्टत: इससे प्रकट है कि उस समय गणितीय प्रमेयों को सिद्घ करने के लिये धूल में उंगलियों से संख्याओं के लेखन का उपयोग किया जाता था। इस उपाय से गणित के विद्वानों को कितनी असुविधा होती होगी, इसका आसानी से अन्दाज लगाया जा सकता है।
भास्कराचार्य, महावीराचार्य जैेसे विद्वानों के गणित में प्राय: हजार, लाख तक की संख्याओं का उपयोग किया गया है। इतने बड़े सवालों को उन्होंने धूल में उंगली के प्रयोग से किस प्रकार हल किया होगा, यह हम कागज, कलम का उपयोग करने वाले नही जान सकते।
आज इस तथ्य के शब्दगत प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत के इन विद्वानों ने अरब वालों को इसी कठिन उपाय से गणित का पाठ पढाया था। अरबी में इस गणित को हिसाब अल् गुबार कहा जाता है, जो कि ठीक इसी धूलि—कर्म का अनुवाद है। अरबी में गणित के लिये हिन्दसा शब्द से यह भी प्रमाणित है कि अरब वालों को यह गणित विद्या हिन्द या हिन्दुस्तान से प्राप्त हुई थी।
संस्कृत में विद्वान् के लिये संख्यावान् शब्द का प्रचलन रहा है। इससे ज्ञात होता है कि संख्याओं को भली प्रकार जाननी तथा उन पर संक्रियाएॅ करना वैदुष्य का सबसे बढिया पैमाना था। विद्वान् की सबसे अच्छी पहचान इसी गणित से होती थी। सचमुच, जिसकी बुद्धि गणित में गतिशील होती है। उसे कही भी रूकावट नहीं हो सकती।
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