ऋग्वेद में वर्णित रोग और उनका निदान

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कृपाशंकर सिंह

ऋग्वेद की ऋचाओं में कुछेक रोगों के नाम भी मिलते हैं। इनमें यक्ष्मा, राजयक्ष्मा, हृदय रोग, दनीमा (बवासीर) हरिमा पृष्ठयामगयी आदि रोगों का उल्लेख है। इसमें से यक्ष्मा रोग का वर्णन कई ऋताओं में मिलता है। यक्ष्मा से ऋषियों का वास्तविक आशय किस तरह के रोग का है, यह पूरी तौर पर स्पष्ट नहीं हो पाता। सम्भवत: कई तरह की बीमारियों के लिये यक्ष्मा नाम रहा होगा। इनमें ज्वर जान पड़ता है और शायद विभिन्न अंगों की मांसपेशियों से होने वाले दर्द के लिये भी यही शब्द रहा हो। शारीरिक कमजोरी के लिये भी यक्ष्मा शब्द का प्रयोग किया जाता था। यह भी हो सकता है कि शायद रोग का अर्थ देने वाला यह एक सामान्य शब्द के रूप में भी प्रयुक्त होता रहा हो।
दसवें मंडल की एक ऋचा में यक्ष्मा और राजयक्ष्मा दोनो का अलग अलग रोग के रूप में नाम आया है। उससे संकेत यह मिलता है कि सम्भवत: राजयक्ष्मा बीमारी रही हो। आजकल यह नाम तपेदिक के लिये प्रयोग में आता है। उस समय यह बीमारी क्या थी, इसके बारे में निश्चत रूप से कुछ कहना कठिन है। ऋचा में कहा गया है – जीने के लिये हवि द्वारा मैं तुम्हे अज्ञात यक्ष्मा रोग और राजयक्ष्मा से छुुडाता हूं यदि कोई पाप-ग्रह इस रोगी को पकड़े हुए है, तो इन्द्र और अग्नि उससे इसे छुटकारा दिलावें। (10.161.1)
यदि इस रोगी की जीवन शक्ति समाप्त हो चुकी है (यदि क्षितायु:) और यह मृत्यु के नजदीक है, तब भी मै निऋति (मृत्यु देवता) के पास से इस वापस ले आउंगा। (10.161.2)
मैंने इस रोगी को सहस्त्रगुणयुक्त, सौ वर्ष आयु वाले यज्ञ से इसके रोग को नष्ट कर दिया है। सारे पापों से छुड़ाकर इन्द्र इसे सौ वर्ष तक जीवित रखें। (10.161.3)
मैंने इस रोगी को सौ शरत् एक सौ हेमंत और एक सौ वसंत ऋतुओं तक सुखपूर्वक जीवित रहने के लिए रोग मुक्त कर दिया है। इन्द्र, अग्नि, सविता और बृहस्पति हव्य से तृप्त होकर इसे सौ वर्षों तक जीने की शक्ति पुन: दें। (10.161.4) एवं पुन:
हे रोगी, तुम्हें मैने रोग से मुक्त किया है। तुम्हें मैं लौटा लाया हुॅ। तुम पुुन: नये होकर आये हो। तुम्हारे सफल अंगों (सर्व अंग) तुम्हारी ऑखों और समस्त परमाणु को मैंने प्राप्त किया है। (10.161.5)
दसवें मंडल के ही सूक्त 162 की एक ऋचा में कहा है – हे नारी, जो कुरुप (दुर्नामा) रोग (अमीवा) तुम्हारे गर्भ तथा योनी में गुप्त रूप से गया है। अग्नि उस रोग पैदा करने वाले मांसाहारी कीटाणु को मिटायें।
ऋग्वेद के सातवें मंडल के सूक्त 71 की दूसरी ऋचा में अश्विनी कुमारों की स्तृति में कहा गया है कि वे अन्न की दरिद्रता और रोगों को हमसे दूर रखें और दिन रात हमारी रक्षा करें।
कुछ लोगों ने पहले मंडल के सूक्त 117 की सातवीं ऋचा के आधार पर यह कहा है कि कुष्ठ रोग के कारण घोषा का विवाह नही हुआ, जिससे वह अपने पिता के घर बैठी हुई वृद्धावस्था को प्राप्त हो रही थी, जब अश्विनी कुमारों ने उसके कोढ़ को दूर कर उसे प्रप्ति प्रदान किया। हालांकि इस ऋचा से घोषा को कुष्ठ रोग हुआ रहा हो यह स्पष्ट नही होता।
इस सूक्त की आठवीं ऋचा में भी कहा गया है- हे अश्विनौ, तुमने कुष्ठरोग से ग्रस्त श्याव ऋषि को अच्छा करके उन्हें उज्ज्वल त्वचा वाली स्त्री प्रदान की, तथा नेत्रहीन कण्व को तेजपूर्ण नेत्र दिये। तुमने नृषद के बहरे प्रभु को कान दिये, तुम्हारे ये कार्य प्रशंसनीय है। सूक्त की तेरहवीं ऋचा में कहा गया है – हे अश्विनीकुमारों, तुमने अपने औषधि दान के कार्य द्वारा वृद्ध च्यवन ऋषि को युवा किया था।
ऋग्वेद में जहां रोगों के इलाज की बात होती है, वहां सर्वत्र आश्विनौ का नाम लिया जाता है। अश्विद्वय ऋग्वेद के वैद्य की हैसियत रखते हैं। रोगों से छुटकारा दिलाने के लिये उन्हीं को याद किया जाता था। आठवें मंडल में है – प्रख्यात देव वैद्य अश्विनौ हमारा मंगल करें। हमारे यहां से पाप हटाये और शत्रुओं को दूर भगायें। (8.18.8)
पहले मंडल के सूक्त 117 की एक ऋचा में कहा गया – हे अश्विनी कुमारों, तुमने दस्यओं द्वारा कुएॅ के जल में डुबोए गये रेम ऋषि को बाहर निकाल कर उनके क्षत विक्षत शरीर को अपनी ओषधियों से ठीक किया था।
पहले मंडल के ही सूक्त 116 में उल्लेख है कि खेल राजा की पत्नी विश्पला का एक पैर युद्ध में कट गया था, जिसे अश्विनी कुमारों ने रात भर में घातु का पैर बनाकर विश्पला को लगायाा था। (15) हिरण्यस्तूय ने पहले मंडल की एक ऋचा में कहा है – हे अश्विनौ, दिव्य लोक की ओषधि हमें तीन बार दो, पृथ्वी पर पैदा वाली औषधि हमें तीन बार दो। अन्तरिक्ष से तीन बार औषधि हमें दो। बृहस्पति के पुत्र शंयु की तरह हमारे पूत्र को भी सुख स्वास्थय दो। हे शुभ लाने वाली औषधियों के पोषण, हमें वात, पित्र, कफ इन तीनों धातुओं से संवन्धित सुख दो।
हे नासत्यो, तुमने जिन औषधियों के द्वारा पकथ राजा की रक्षा की थी, जिन औषधियों के द्वारा अघ्रिगु राजा की रक्षा की थी, जिनमें बभु की रक्षा की थी, उन्हीं औषधियों के द्वारा, शीध्र आकर, आतुर (रोगी) को बचाओ।
कहीं कहीं सोमरस को भी दवा के रूप में माना गया है उदाहरण के लिये आठवें मंडल मे कहा गया है – हे मित्र और वरुण, सूर्योदय के समय मैं सोमरस पीता हूं, वह आतुर (रोगी) की दवा (भेषज) है। इसी तरह औषधि को लेकर भी ऋग्वेद में अनेक तरह से उसकी प्रशंसा की गई है। उसका वर्णन दसवें मंडल के सूक्त 97 की तेईस ऋचाओं में है। (8.61.17)
हे माता के समाप्त हितकारिणी ओषधियों! तुम्हारे सैकड़ों जन्म और सैकड़ों नाम है, और तुम्हारे सहस्त्रों अंकुर और पौधे हैं। तुम मुझे आरोग्य प्रदान करो। तुम्हारे पास सैकड़ों शक्तियां हैं।
हे ओषधियों! तुम सदैव फूल और फल वाली हो। तुम अश्वों के समान रोग रूप शत्रुओं पर विजय पाने वाली हो। तू विविध प्रकार की रोग-पीड़ाओं का रोधक हो। रोगियों को रोग से मुक्त करने वाली हो।
हे मातातुल्य हितकारिणी ओषधियो! तुम्हारे सामने मै यह कहता हुॅ कि हे वैघ, मै ओषधियों को पाने के लिये अश्व, गौ, भूमि, वस्य (वास:) और अपने आप को भी (आत्मन:) तुम्हारे लिये देता हूं।
हे ओषधियों, तुम्हारा अश्वत्थ और पलाश वृक्ष पर निवास है। तुम भूमि, सूर्य व राशियों को सेवन करने वाली हो, जिससे तुम पुरुष देह का पोषण करती हो।
राजा जिस प्रकार सभा में शोभायमान होते है (राजान: समितौ इव), उसी प्रकार भिन्न-मिल ओषधियों के बीच भिषक (चिकित्सक) शोभित होता है। भिषक रोगो का विनाश कर्ता है।
इस रोगी को दूर करने के लिये मै अश्ववती, सोमवती बल उत्पादकर और पराक्रम बढाने वाली ओषधि को तथा दूसरी सभी ओषधियो को जानता हूं।
गोशाला से जैसे गौवे आती है है, वैसे ही ओषधियों में से उनका गुण बाहर होता हैं। हे रोगी, ये ओषधियॉ तुम्हें स्वास्थ्य प्रदान करेंगी।
हे ओषधियो, तुम्हारी माता का निमा इष्कृति नीरोग करने वाली है। तुम सब रोगों को बाहर करने वाली हो जो रोग शरीर को पीड़ा देता है, उसे तुम लोग शीघ्रता से बाहर निकाल दो (नि:कृथ)। रोगी को रोग मुक्त करो।
लुटेरा जैसे पथिकों पर प्रहार करके लूटता है, उसी प्रकार शरीर में हर जगह फैल कर ओषधियॉ रोगो पर धावा करती है, और शरीर से रोगों को दूर करती है।
जब शक्ति प्रदान करने वाली इन ओषधियो को मै हाथ मे लेता हूँ तो रोग की आत्मा वैसे ही मर जाती है। जैसे मृत्यु से जीव मर जाता है।
हे ओषधियो, तुम जिसके अंग अंग, पोर पोर में प्रसिद्ध होती हो, उसके शरीर से रोग को तुरन्त ही दूर कर देती हो।
जो फल युक्त है, जो फलरहित है तथा जो फल युक्त है, जो फूलरहित है, वे सभी औषधियां, बृहस्पति द्वारा उत्पादित होकर हमें पाप से बचावें ।
जिन ओषधियों का राजा सोम है और जो ओषधियॉ सैकड़ों गुणों से युक्त है, उनमें तुम उत्तम हो तुम वासना को पुरी करने और ह्रदय को शन्ति देने में समर्थ हो।
हे ओषधियों, तुम्हे खोदकर निकालेने वाला मैं पीडि़त न होऊॅ जिसके आरोग्य के लिये मै तुम्हें खोदता हूंू वह भी नष्ट नहीं हो। मनुष्य और पशु सभी रोग रहित रहें।
जो ओषधियां मेरा यह स्तोत्र सुन रही है और जो दूर होने के कारण मेरा स्तोत्र नहीं सुन पा रही है, वे सब इकट्टी होकर इस रोग मुक्त शरीर को बल देवें।
हे ओषधियों! तुम उश्रम हो (त्वम् उश्रमा असि), जितने वृक्ष है, वे सब तुमसे हीन है। जो हमारा अनिष्ट चाहता है वह हमसे दूर रहे। (10.97.23)
हे वास्तोष्पति, तुम रोगनाशक हो। तुम सब प्रकार के रूपों में प्रवेश कर हमारे सखा और हमारे लिये सुखकर बनो। (7.55.10)

विष-विषधर
ऋग्वेद में विष खासकर विषैले सर्पो को भी दूर रहने की प्रार्थना की गई है। पहले मंडल के सूक्त 191 की ऋर्चाओं में इसी तरह का वर्णन है। इस तरह की ओषधियों का भी उल्लेख है, जो शरीर की काटी हुई जगह पर लगाने से विष के प्रभाव को: नष्ट कर देती है। पहली ऋर्चा में कहा है –
अल्प विषवाले और बहुत अधिक विषवाले तथा जल में निवास करने वाले विषधर, दोनों प्रकार के ये विषधर, दाहक प्राणी और अहष्ट प्राणी मुझे विष द्वारा लिप्त किये हुए हैं।
ओषधि विषघर प्राणीयों के काटे हुए स्थान पर आकर विष के प्रभाव केा नष्ट कर देती है। ओषधि विषधारियों को दूर भी भगाती है। (1.191.1-2)
सरपतो में, कुशों में, तालाबों के किनारे की घास में, गूॅज (मौजा:) में, वीरण आदि घासों में छिपे विषघर मुझसे लिपट जाते हैं। (1.191.3)
जिस समय गौएं गोशाला में बैठती है, जिस समय हरिण अपने अपने स्थान में विश्राम करते हैं, और जिस समय मनुष्य निद्रा के वशीभूत होता है, उस समय अदृष्ट विषधर आकर मुझ से लिपट जाते है।
जिस प्रकार चोर रात में निकलते है, और लोगों की निगाह से छिपे रहते है, पर स्वयं सबको देख रहे होते हैं। उसी प्रकार विषधर सबकी निगाहों से छिपे रहकर सबको देखते रहते हैं। सब लोग विषधरों (सर्पों) से सावधान रहें।
आकाश पिता, पृथिवी माता, सोम म्राता और अदिति मागिनी है। हे दृष्टिगोचर न होने वाले और सबको देखते रहने वाले (विश्वदृष्टा:) विषधारियों (सर्पों)! तुम अपने स्थान को जाओ और उश्रम सुख से रहो।
हे दृष्टिगोचर न होने वाले विषधरियों जीवों, तुममें जो स्कंध वाले जन्तु है, जो अंग वाले है, जो सूची के समान (सूचीका:) पीड़ा देने वाले बिच्छू हैं, और जो अत्यंत विषधारी जन्तु हैं ऐसे विषधरों का यहां क्या काम, इसलिये हे विषधारी जन्तुओं तुम लोग एक साथ यहां से चले जाओ।
पूर्व दिशा से निकलने वाला सूर्य अदृष्ट विषधरों का नष्ट करने वाला है। सूर्य सभी विषधरों और राक्षसों को (यातुधान्य) भयभीत कर भगा देते है।
समस्त विश्व का अवलोकन करने वाले तथा अदृष्ट विषधारियों को नष्ट करने वाले सूर्य विषधर जन्तुओं को दुर्बल बनाते हुए उदयगिरि से उदित होते हैं।
सुरा खीचने वाला कलार (सुरावत:) जिस प्रकार सुरा को चमड़े के पात्र में डालता है, उसी प्रकार मै विष को सूर्यमंडल की ओर फेंकता हूं। जिस प्रकार इससे सूर्य नहीं मरता, उसी प्रकार हम भी न मरें। हे विष, सूर्य की मधुविद्या तुम्हें अमृत बना देती है।

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